आम नागरिक के रूप में हम सबसे उम्मीद की जाती है कि सिविक सेंस यानी नागरिक भावना कायम रखें। सीधे तौर पर कहें तो अपने शहर में रहने के तौर-तरीके ऐसे बनाएं जिसमें किसी को भी परेशानी नहीं हो। सिविक सेंस ही किसी भी शहर की खुशहाली का पैमाना है। लेकिन जब कोई अपनी धौंस में ही लोगों के लिए परेशानियां खड़ी करने लगे तो इसे क्या कहेंगे.. यही न कि हम खुशहाल शहर में तो कतई नहीं हैं।
जब बात सिविक सेंस की आती है तो उम्मीद यह भी की जाती है कि यातायात निर्बाध होना चाहिए। लेकिन पहले ही यातायात का दबाव झेलने वाला शहर धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक आयोजनों से जाम में तब्दील हो जाए तो आम नागरिक तो खुद को असहाय ही महसूस करेगा क्योंकि जो जाम लगा रहे हैं वे समूह में हैं। अब सवाल यह है कि इसके लिए दोषी कौन है? आयोजनकर्ता या आयोजन की अनुमति देने वाला तंत्र। वैसे तो दोनों ही दोषी हैं। पर सर्वाधिक दोषी तो प्रशासनिक तंत्र है, जिसने जाम की संभावना को भांपने के बाद भी आयोजन की अनुमति दी।
सड़क पर यातायात का सामान्य नियम होना चाहिए कि रोको मत, जाने दो… मगर ट्रैफिक पुलिस इस नियम की पालना कराने में अक्षम नजर आती है। वीवीआईपी विजिट हो अथवा कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम, ट्रैफिक पुलिस का हर शहर में एक ही नियम है… ‘रोको, मत जाने दो।’
विधानसभा में सोमवार से विपक्ष धरने पर बैठा है। सबको पता था कि मंगलवार को भी विपक्ष का हंगामा होगा। कांग्रेस कार्यकर्ता भी विधानसभा के आस-पास विरोध दर्ज कराने पहुंचेंगे। इसके बावजूद मंगलवार को विधानसभा के आस-पास यातायात इस कदर बिगड़ा कि रास्ता रोकने के ट्रैफिक पुलिस के ब्रह्मास्त्र के कारण लगभग आधा शहर जाम में फंस गया।
दो दिन पहले भाजपा के नवनियुक्त प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ ने कार्यभार संभाला तो भाजपा कार्यालय के बाहर मजमा लगा था। ट्रैफिकपुलिस ने आस-पास के तमाम रास्ते रोक दिए। सांगानेर, बी-टू-बाईपास, जेएलएन मार्ग पर हर सड़क पर लोग घंटों फंसे रहे। अचरज की बात यह कि दो दिन तक इस मार्ग को बाधित रखने वाली ट्रैफिक पुलिस ने जनता को सूचना देना तक जरूरी नहीं समझा। लोग निर्धारित रूट से आते रहे और जाम में फंसते चले गए।
मोहर्रम के दिन भी बड़ी चौपड़ से कर्बला तक ऐसे ही यातायात बंद रखा गया। इस जाम की वजह से पुराना शहर मानो नए शहर से कट गया। आए दिन ऐसे हालात बन रहे हैं। सावन में जब तब किसी भी रोड पर धार्मिक आयोजन के नाम पर रास्ते रोके जा रहे हैं। परेशान लोग आयोजन को सराहने के बजाए सिस्टम को कोसते नजर आते हैं। इन तस्वीरों के बीच ट्रैफिक पुलिस तो पहले से वीवीआईपी के लिए सड़कों पर बिछी है।
वीवीआईपी की कार पोर्च में ज्यों ही लगी, त्यों ही उनके मार्ग में आने वाली तमाम सड़कों पर ट्रैफिक पुलिस अघोषित कर्फ्यू लगा देती है। चौराहों पर रस्से बांध दिए जाते हैं, लोगों को फटकार कर धकेला जाने लगता है। कोई इंसान अब उस सड़क को तब तक पार नहीं कर सकता, जब तक कि वीवीआईपी घर या आफिस से निकलकर गंतव्य तक नहीं पहुंच जाए। हर दिन आम लोग किसी न किसी सड़क पर यों ही 30 से 45 मिनट की पीड़ा भोगते हैं। यह हाल हर शहर का है। जयपुर में तो एयरपोर्ट से जेएलएन मार्ग और टोंक रोड पर ऐसा नजारा दिन में कई बार देखा जा सकता है।
तकनीकी युग में ऐसे कष्ट भोगना ज्यादा पीड़ादायक है। दरअसल ट्रैफिक पुलिस में इच्छाशक्ति हो तो ऐसी समस्याओं को आसानी से सुलझा दे। गूगल मैप को ट्रैफिक के आधार पर नियमित अपडेट करवाकर कुछ हद तक इस समस्या का हल निकाला जा सकता है लेकिन किसी को भी लोगों की फिक्र कहां है। अफसरों को तो बस आयोजन की मंजूरी देकर संबंध निभाने हैं, कष्ट तो जनता को भोगना है।
अब जरूरी है कि राज्य स्तर पर ऐसे आयोजनों की मंजूरी को लेकर कड़े नियम बनाए जाएं। ऐसे किसी आयोजन को किसी कीमत पर मंजूरी नहीं दी जाए, जिसकी वजह से क्षेत्र का यातायात जरा भी बाधित होता है। सिर्फ घोषणा से काम नहीं चलेगा, उसकी शत-प्रतिशत पालना करानी होगी।