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श्रम की भट्टी में झुलसता बचपन

विश्व बालश्रम निषेध दिवस (12 जून) पर विशेष बालश्रम की समस्या दुनिया के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई है। राजनीतिक इच्छाशक्ति, पर्याप्त संसाधनों, सामूहिक कार्यों और वंचित बच्चों के प्रति सहानुभूति से ही इस समस्या को समाप्त किया जा सकता है।

Jun 11, 2020 / 04:21 pm

shailendra tiwari

World Day Against Child Labour: कोरोना काल में बच्चों को बालश्रम से बचाने की कोशिशें ज्यादा करनी होंगी

योगेश कुमार गोयल, टिप्पणीकार

बालश्रम की समस्या दुनिया के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई है। इस समस्या के समाधान के लिए बालश्रम पर प्रतिबंध लगाने के लिए कई देशों ने कानून भी बनाए हैं लेकिन फिर भी स्थिति में अपेक्षित सुधार दिखाई नहीं देता। बालश्रम के प्रति विरोध, इसके लिए लोगों को जागरूक करने, बालश्रम की क्रूरता तथा बालश्रम को पूरी तरह समाप्त करने और बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा की जरूरत को उजागर करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 12 जून को दुनियाभर में ‘बालश्रम निषेध दिवस’ मनाए जाने की शुरूआत की गई थी। इसकी शुरूआत ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन) द्वारा वर्ष 2002 में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को बाल मजदूरी से बाहर निकालकर उन्हें शिक्षित करने के उद्देश्य से की गई थी। आईएलओ का मुख्यालय जेनेवा में स्थित है और इसकी स्थापना वर्ष 1919 में हुई थी, जो संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी के रूप में कार्यरत है। इसका उद्देश्य दुनियाभर में श्रम मानकों को स्थापित करना तथा श्रमिकों की अवस्था और आवास में सुधार करना है। बालश्रम के कारण बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होता है, जिससे ऐसे बच्चों के व्यक्तित्व विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
विश्व बालश्रम निषेध दिवस के लिए प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र ही एक विषय निर्धारित करता है। बच्चों की समस्याओं पर विचार करने के लिए पहला बड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रयास अक्तूबर 1990 में न्यूयार्क में विश्व शिखर सम्मेलन में हुआ था, जिसमें गरीबी, कुपोषण और भुखमरी के शिकार दुनिया भर के करोड़ों बच्चों की समस्याओं पर 151 देशों के प्रतिनिधियों ने विचार-विमर्श किया था। हालांकि चिंता की बात यही है कि बालश्रम निषेध दिवस मनाते हुए 18 वर्ष बीत जाने के बाद भी बाल मजदूरी पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। बढ़ती जनसंख्या, निर्धनता, अशिक्षा, बेरोजगारी, खाद्य असुरक्षा, अनाथ, सस्ता श्रम, मौजूदा कानूनों का दृढ़ता से लागू न होना इत्यादि बालश्रम के अहम कारण हैं। बालश्रम के ही कारण बच्चे शिक्षा से वंचित हो जाते हैं, उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बाल अपराध बढ़ते हैं और भिक्षावृत्ति, मानव अंगों के कारोबार तथा यौन शोषण के लिए उनकी गैर कानूनी खरीद-फरोख्त होती है।
खतरनाक श्रम कार्यों में बच्चे
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट ‘बाल श्रम के वैश्विक अनुमान: परिणाम और रूझान 2012-2016’ के मुताबिक दुनियाभर में 5 और 17 वर्ष की उम्र के बीच करीब 15.2 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करने को विवश हैं, जिनमें से 7.3 करोड़ बच्चे बहुत बदतर परिस्थितियों में खतरनाक कार्य कर रहे हैं, जिनमें सफाई, निर्माण, कृषि कार्य, खदानों, कारखानों में तथा फेरी वाले व घरेलू सहायक इत्यादि के रूप में कार्य करना शामिल हैं। आईएलओ के अनुसार हाल के वर्षों में खतरनाक श्रम में शामिल 5 से 11 वर्ष की आयु के बच्चों की संख्या बढ़कर करीब दो करोड़ हो गई है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार 15 से 24 वर्ष आयु के 54.1 करोड़ युवा श्रमिकों में से 3.7 करोड़ बच्चे हैं, जो खतरनाक बालश्रम का कार्य करते हैं, जो विश्व की कुल श्रमिक क्षमता का 15 फीसद है। इन बाल श्रमिकों को कार्य करने के दौरान अन्य श्रमिकों की तुलना में 40 फीसद ज्यादा घातक चोटें लगती हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्य के तहत हालांकि वर्ष 2025 तक बाल मजदूरी को पूरी तरह से खत्म करने का संकल्प लिया गया है लेकिन पूरी दुनिया में बालश्रम के आंकड़े जिस प्रकार बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए फिलहाल तो ऐसा होता संभव नहीं दिखता। प्रतिवर्ष दुनियाभर में बालश्रम निषेध दिवस मनाए जाने और इस दिशा में सभी देशों द्वारा अपने-अपने स्तर पर कार्य करते रहने के बावजूद सच्चाई यही है कि बाल श्रम, बाल शोषण और बाल व्यापार निरन्तर फल-फूल रहा है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) का मानना है कि विश्वभर में बच्चों को श्रम कार्य में इसलिए लगाया जाता है क्योंकि उनका शोषण आसानी से किया जा सकता है। गरीबी बालश्रम का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण है, जिस कारण लोग अपने अबोध बालकों को भी कठिन कार्यों में धकेलने को विवश हो जाते हैं। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट में बताया जा चुका है कि दुनियाभर में 13 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे किसी न किसी कारण स्कूल नहीं जा पाते। वैसे दुनिया के विभिन्न देशों में बालश्रम को लेकर बच्चों की अलग-अलग आयु निर्धारित की गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार श्रम करने वाले 18 वर्ष से कम आयु वालों को बाल श्रमिक माना गया है जबकि आईएलओ के मुताबिक बालश्रम की उम्र 15 वर्ष तय की गई है। अमेरिका में 12 वर्ष अथवा उससे कम उम्र वालों को बाल श्रमिक माना जाता है जबकि हमारे यहां भारतीय संविधान के अनुसार किसी उद्योग, कल-कारखाने अथवा किसी कम्पनी या प्रतिष्ठान में शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने वाले 5 से 14 वर्ष की आयु वाले बच्चों को बाल श्रमिक कहा जाता है।
भारत में बालश्रम की स्थिति
भारत में भी बाल श्रम, बाल शोषण और बाल व्यापार एक गंभीर समस्या है, जिसके लिए आर्थिक तंगी, भुखमरी इत्यादि अहम कारक हैं। यूनीसेफ के अनुसार दुनिया भर के कुल बाल मजदूरों में 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी अकेले भारत की है। हालांकि भारत में बाल श्रम (निषेध व नियमन) अधिनियम 1986 के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के जीवन एवं स्वास्थ्य के लिए अहितकर माने गए किसी भी प्रकार के अवैध पेशों तथा कई प्रक्रियाओं में नियोजन को निषिद्ध बनाता है। दरअसल वर्ष 1979 में बाल श्रम समस्याओं से संबंधित अध्ययन के लिए सरकार द्वारा गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया था, जिसके सुझावों के आधार पर ही ‘बालश्रम अधिनियम 1986’ लागू किया गया था। वर्ष 1987 में राष्ट्रीय बालश्रम नीति बनाई गई तथा वर्ष 1996 में उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में संघीय और राज्य सरकारों को खतरनाक प्रक्रियाओं तथा पेशों में कार्य करने वाले बच्चों की पहचान करने, उन्हें कार्य से हटाने और गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया। वर्ष 2006 तक बालश्रम को लेकर असमंजस की स्थिति बरकरार रही कि किस कार्यक्षेत्र को खतरनाक और किसे गैर खतरनाक बालश्रम की श्रेणी में रखा जाए। आखिरकार बाल श्रम (निषेध व नियमन) अधिनियम 1986 में संशोधन किया गया और ढ़ाबों, घरों, होटलों में बालश्रम करवाने को दण्डनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया।
अगर मौजूदा समय में दुनियाभर में बालश्रम की स्थिति देखें तो माना जाता है कि पूरी दुनिया में 21 करोड़ से भी अधिक बच्चे बालश्रम में लिप्त हैं।
भारत में भी यह समस्या विकराल है और यहां भी करोड़ों बच्चे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने की उम्र में खतरनाक काम-धंधों से जुड़े हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर से लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र से लेकर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा इत्यादि लगभग पूरे देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे बच्चे कालीन, दियासलाई, रत्न पॉलिश, ज्वैलरी, पीतल, कांच, बीड़ी उद्योग, हस्तशिल्प, पत्थर खुदाई, चाय बागान, बाल वेश्यावृत्ति इत्यादि कार्यों में करोड़ों बच्चे लिप्त हैं। जूता पॉलिश करने वाले, अखबार बांटने वाले, रेलवे स्टेशनों पर बोझा उठाने वाले और कूड़े-कचरे के ढ़ेर से कागज-पॉलीथिन चुनने वाले लाखों ऐसे बच्चे भी हैं, जो छोटी सी उम्र में खुद ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। एक ओर जहां श्रम कार्यों में लिप्त बच्चों का बचपन श्रम की भट्ठी में झुलस रहा है, वहीं कम उम्र में खतरनाक कार्यों में लिप्त होने के कारण ऐसे अनेक बच्चों को कई प्रकार की बीमारियां होने का खतरा भी रहता है। खतरनाक कार्यों में संलिप्त होने के कारण बाल श्रमिकों में प्रायः श्वास रोग, टीबी, दमा, रीढ़ की हड्डी की बीमारी, नेत्र रोग, सर्दी-खांसी, सिलिकोसिस, चर्म-रोग, स्नायु संबंधी जटिलता, अत्यधिक उत्तेजना, ऐंठन, तपेदिक जैसी बीमारियां हो जाती हैं।
नहीं सुधर रहे हालात
हालांकि भारत में बालश्रम को लेकर स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 5 से 14 वर्ष के 25.96 करोड़ बच्चों में से 1.01 करोड़ बालश्रम की दलदल में धकेले गए थे लेकिन बालश्रम निषेध के लिए बने तमाम कानूनों और उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों के बावजूद यह समस्या कम होने के बजाय निरन्तर बढ़ती गई है। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में वर्तमान में पांच करोड़ से ज्यादा बाल मजदूर हैं। भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 20 फीसद योगदान बाल श्रमिकों द्वारा होता है और माना जाता है कि देश की राजधानी दिल्ली में भी करीब 18 फीसद बच्चे बालश्रम करके अपने परिवार की जीविका चलाने का माध्यम बनते हैं। कुछ आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में कुल बाल मजदूरों में से करीब 80 फीसद बच्चे गांवों से ही हैं और खेती-बाड़ी जैसे कार्यों से लेकर खतरनाक उद्योगों और यहां तक कि वेश्यावृत्ति जैसे शर्मनाक पेशों में भी धकेले गए हैं। शहरों तथा कस्बों में तो बच्चे ऐसे माहौल में काम करने को विवश हैं, जहां उनके स्वास्थ्य के साथ खुलकर खिलवाड़ होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 50 लाख से ज्यादा बच्चे तो ऐसे हैं, जो सड़कों पर रहते हैं, फुटपाथों पर सोते हैं और भयावह अनिश्चितता का जीवन जी रहे हैं।
देश में करोड़ों बच्चे 5वीं कक्षा तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते, 5 वर्ष से कम आयु के बहुत सारे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। बालश्रम के खिलाफ कार्यरत संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 7-8 करोड़ बच्चे अनिवार्य शिक्षा से वंचित हैं और इनमें से अधिकांश बच्चे संगठित अपराध रैकेट के शिकार होकर बाल मजदूरी के लिए विवश किए जाते हैं जबकि शेष गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाते। बाल श्रमिकों में बालिकाओं को तो प्रायः यौन शोषण का शिकार भी होना पड़ता है लेकिन उनके माता-पिता अपनी गरीबी के कारण पेट भरने की अपनी मजबूरी के चलते इन अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते। देश में इस समय वेश्याओं की संख्या 40 लाख से भी ज्यादा मानी जाती है और इनमें करीब 15 फीसदी बाल वेश्याएं हैं। केवल मुम्बई में ही बाल वेश्याओं की अनुमानित संख्या एक लाख से ज्यादा होने का अनुमान है। बाल वेश्यावृत्ति के संबंध में यह तथ्य भी खासतौर से उल्लेखनीय है कि अधिकांश बाल वेश्याएं पिछड़े वर्गों से ही आती हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में सेक्टर आधारित बाल मजदूरी पर नजर डालें तो बच्चों की सबसे बड़ी करीब 33 फीसदी आबादी खेती से जुड़े कार्यों में लगी थी जबकि करीब 26 फीसदी बच्चे खेतिहर मजदूर थे। भारत में बाल मजदूरों की सबसे ज्यादा संख्या देश के पांच बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में है। कुछ अनुमानों के अनुसार इन पांच राज्यों में ही बाल मजदूरों की करीब 55 फीसदी संख्या है और सर्वाधिक बाल मजदूर उत्तर प्रदेश तथा बिहार से ही हैं। श्रम विशेषज्ञों का मानना है कि बालश्रम केवल गरीबी की ही देन नहीं है बल्कि इसका संबंध समुचित शिक्षा के अभाव से भी है। विड़म्बना है कि देश में विकास कार्यक्रमों के लिए निर्धारित राशि में से शिक्षा पर मात्र दो प्रतिशत और स्वास्थ्य पर एक प्रतिशत राशि ही खर्च होती है। बाल श्रम पर अंकुश लगाने के लिए देश में दर्जनों कानून हैं लेकिन तमाम कानूनी प्रतिबंधों, प्रावधानों के बावजूद शिवकाशी सहित तमाम पटाखा फैक्टरियों, दियासलाई उद्योगों, कांच उद्योग, पीतल उद्योग, हथकरघा उद्योग इत्यादि में करोड़ों बच्चे कार्यरत हैं और यह सब खुलेआम हो रहा है। बच्चों से मजदूर के रूप से काम कराने वालों के लिए कानून में दंड का प्रावधान है लेकिन इस दिशा में प्रशासनिक सक्रियता का अभाव स्पष्ट परिलक्षित होता रहा है।
वास्तविकता यही है कि बाल श्रम उन्मूलन तथा पुनर्वास कार्यक्रमों पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं लेकिन उनसे कुछ खास हासिल नहीं होता। जहां तक स्वयंसेवी संगठनों की बात है तो अधिकांश स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका बालश्रम के नाम पर लाखों-करोड़ों रूपये का अनुदान हासिल कर बालश्रम के लिए कार्य के बहाने मीडिया में प्रचार-प्रसार पाने तक ही सीमित दिखाई देती रही है। सरकार द्वारा बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए ढ़ेरों योजनाएं बनाई जाती हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन के मामले में प्रशासन का ढ़ुलमुल रवैया किसी से छिपा नहीं है। बालश्रम की समस्या को मिटाने के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, पर्याप्त संसाधनों, सामूहिक कार्यों और वंचित बच्चों के प्रति पर्याप्त सहानुभूति से ही इस समस्या को समाप्त किया जा सकता है। वह कहते हैं कि जिस दिन हम एक गरीब के बच्चे के साथ भी अपने बच्चों की तरह व्यवहार करने लगेंगे, बालश्रम स्वतः ही खत्म हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा तीन दशक से पत्रकारिता एवं साहित्य में सक्रिय हैं)

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