यह गर्व की बात है कि पिछले सात दशकों की अनेक चुनौतियों के बावजूद हमारी शासन व्यवस्था संविधान में निहित गणतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप रही है। ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ संविधान के ये मूलभूत सिद्धान्त रहे हैं जिसमें अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। समय के साथ भारत की जनता और उसके प्रतिनिधियों के बीच संविधान की स्वीकार्यता बढ़ी है तो इसका कारण यह है कि आरंभ से ही जनता ने इसे पूरी तरह से स्वीकार किया है।
लोकतांत्रिक संस्थाएं और परंपराएं भारत की समृद्ध विरासत का अभिन्न अंग रही हैं। यहां वैदिक काल से ही सार्वजनिक सभाओं और निर्वाचित राजतंत्रों के रूप में लोकतान्त्रिक संस्थाओं का अस्तित्व रहा है। संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान को अंगीकृत करने का प्रस्ताव रखते हुए 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में भारत की सहभागी शासन संस्थाओं की समृद्ध विरासत के बारे में अहम बात कही। उनका कहना था कि ‘ऐसा नहीं है कि लोकतन्त्र भारत के लिए कोई नई बात है। एक समय था जब भारत में अनेक गणराज्य थे। यदि राजतंत्र थे तो वे भी निर्वाचित अथवा सीमित प्रकृति के थे’। संविधान सभा की चर्चाओं से प्रदर्शित होता है कि सदस्यों ने कितने उत्साह से सभा की कार्यवाही में भाग लिया और कितने विस्तार से चर्चा की। संविधान सभा ने भारतीय संविधान को पूर्ण रूप से तैयार करने के दौरान 11 सत्रों में 165 बैठकें की। सदस्यों ने प्रारूप संविधान के संबंध में 7,600 से अधिक संशोधन प्रस्तुत किए जिनमें से लगभग 2,500 संशोधनों पर सभा में चर्चा भी हुई।
रोचक तथ्य यह भी है कि 50,000 से अधिक लोग संविधान सभा की कार्यवाही देखने आए और संविधान निर्माण के साक्षी बने। समय के साथ संविधान के प्रति आम लोगों में संविधान को अक्षुण्ण रखने की भावना और बलवती ही हुई है। संविधान के प्रावधान और इनमें निहित भावना के माध्यम से ही राष्ट्र और नागरिकों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान किया जाता है। नागरिक अपनी समस्याओं के निवारण और अधिकारों के प्रवर्तन के लिए विधानमंडलों और न्यायालयों के समक्ष विषय उठाते हैं। संविधान की प्रतिष्ठा बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उसे पिछले सात दशकों में किस प्रकार लागू किया गया है। डॉ. अंबेडकर का कहना था कि ‘संविधान केवल राज्य के विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे अंगों की व्यवस्था कर सकता है। राज्य के इन अंगों का कार्यकरण, जनता और राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।” संविधान के उपबंधों ने न केवल हमारी राजनीतिक व्यवस्था के लिए प्रहरी का काम किया है अपितु हमारे संविधान निर्माताओं के स्वप्नों के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने में हमारा मार्गदर्शन भी किया है। बड़ी संख्या में जन-केंद्रित विधानों का निर्माण, न्यायालयों के अहम फैसले और जनकेंद्रित नीतियां राज्य के तीनों अंगों के प्रभावशाली कार्यकरण का प्रमाण हैं। हमारे संविधान की एक विशेषता यह भी है कि यह प्रत्येक नागरिक की आशाओं और अपेक्षाओं का प्रतिबिंब है। प्रत्येक नागरिक, चाहे वो किसी भी जाति, लिंग, समुदाय, वर्ग या क्षेत्र के हों और कोई भी भाषा बोलते हों हमारे संविधान में उनसे सार्थक और सहानुभूतिपूर्ण संवाद करने की क्षमता है। इसमें विविधता का सम्मान है और मतभेद के लिए भी पर्याप्त स्थान है।
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हमारी राजनीतिक विचारधारा में संविधान में निहित मूल्यों और आदर्शों की जड़े इतनी गहरी हैं कि 17 आम चुनावों और राज्य विधान सभाओं के अनगिनत चुनावों में हुए सत्ता के हस्तांतरण में कभी बाधा नहीं आयी। एक तरीके से हमारे संविधान में ‘लचीलेपन’ और ‘कठोरता’ के बीच एक अद्भुत संतुलन है। उदाहरण के लिए ऐसे संशोधन जो संघीय संरचना को प्रभावित करते हों, उन्हें राज्यों के विधानमंडलों द्वारा बहुमत से अभिपुष्ट किया जाना अनिवार्य किया गया है। इस क्रम में 106वां संविधान संशोधन अधिनियम, जिसे ‘नारी वंदन अधिनियम’ के नाम से जाना जाता है, एक ऐतिहासिक विधान था। इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा भारतीय संसद के नए भवन में आयोजित संसद के ऐतिहासिक पहले सत्र में पारित किया गया। यह इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार कार्यपालिका और विधायिका ने महिलाओं के नेतृत्व में विकास तथा लैंगिक न्याय को बढ़ावा देने वाला परिवर्तनकारी कानून लाने के लिए एकजुट होकर काम किया है। संविधान दिवस पर आइए, हम यह संकल्प लें कि संविधान की भावना से प्रेरणा लेकर हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सशक्त, समावेशी और समृद्ध भारत का निर्माण करेंगे।