इस सीजन की शुरुआत से ही शहीद की प्रतिमा और स्मृति में बना पुस्तकालय बार-बार उस शहादत की याद दिलाता है, जिस दुख से उबरना प्रह्लाद चा जैसे जुझारू इंसान के लिए भी कठिन हो रहा है। जाहिर है तमाम हंसी खुशी के साथ एक उदासी पूरी सीरीज पर तारी दिखती है।
जीवंत सिचुएशनल कामेडी से पहचान बनाने वाले निर्देशक दीपक कुमार मिश्र के लिए सीरीज में उदासी का अहसास कराना आसान नहीं रहा होगा। ‘पंचायत’ मानव मन की अच्छाइयों की कथा रही है। इस बार भी यह प्रह्लाद चा की कथा है, जो बेटे के बलिदान पर मिले 50 लाख रुपए की अनुकम्पा राशि को हथेली पर लिए घूम रहे हैं कि कोई सही जगह लगा दे इसे। यह उस प्रधान की भी कथा है,जो अपने अधबने घर की दीवारों पर खुद पानी डाल रहा है, जिसे कार भी भाड़े पर बुलानी पड़ती है। यह उस समाज की कथा है,जहां लौकी और कटहल एक दूसरे के घर से मांग लिए जाते हैं, जहां प्रह्लाद के खाने-पीने का ध्यान रखना हर किसी की जवाबदेही होती है। कोई समाज ठहरा हुआ नहीं रहता, गांव भी समय के साथ बदल रहे हैं।
सरकारी योजनाएं और सरकारी पैसा किस तरह ग्रामीणों को भी लोभी और भ्रष्ट बनाने की कोशिश कर कर रहा है, ‘पंचायत ३’ इस बार इसे भी रेखांकित करने की कोशिश करती है। दादी के बदले व्यवहार से भी इसका पता चलता है। शहीद की स्मृति में गांव में पंचायत भवन के ठीक सामने भव्य पुस्तकालय भवन दिखता है,लेकिन पंचायत भवन में जहां सत्ता की गहमागहमी दिखती है, वहीं लगता है कि पुस्तकालय की सीढियां भी कोई नहीं चढ़ता। यह भी हमारे गांवों में आया बदलाव ही है। शायद पंचायत इसीलिए दर्शकों से कनेक्ट करती है, जितना यह बोलती है, उससे कहीं अधिक बताती है।
— विनोद अनुपम
— विनोद अनुपम