सच यह भी है कि बहुत से बेहतर कलाकारों की कलाकृतियां भी करोड़ों क्या हजारों में भी बिक नहीं पाती है। आजकल सच यह है कि जो इन्हें खरीदता है, प्राय: वह उनमें निवेश की अच्छी संभावनाएं तलाशता है। कला के बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण स्वरूप में कलादीर्घाएं इधर उपभोक्ता और उत्पादक के रूप में कार्य करने लगी हैं! कलाकृतियों में निवेश की बढ़ती प्रवृत्ति ने कला बाजार को तो पंख लगाए हैं परन्तु इससे सृजन सरोकार बाधित भी हुए हैं। किसी जमाने में कला-रसिक उद्यमी कलाकृतियों को निवेश के लिए नहीं खरीदते थे।
बद्री विशाल पित्ती को ही लें। वह देश के बड़े व्यवसायी थे परन्तु कला प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने का कार्य भी उन्होंने निरंतर किया। हुसैन ने अपने आरंभिक दौर में उनके आग्रह पर रामायण और महाभारत की कलाकृतियां सिरजी थीं। ब्रिटेन की महारानी ने आजादी से पहले अवनीन्द्रनाथ टैगोर की तिष्यरक्षिता कलाकृति देखी और बस देखती ही रह गईं। उसने इसे खरीद लिया था। अवनीन्द्रनाथ तब इतने चर्चित नहीं हुए थे पर अपनी कला के कारण उनका बाद में बड़ा स्थान बना।
राजा रवि वर्मा ने भारतीय परिवेश, मिथकों, पुराणों को आधार बनाकर अर्थगर्भित कथा-चित्र सिरजे तो वे अपनी मौलिक दृष्टि से जगचावे हुए। तब बाजार की बजाय कला में निहित गुण ही उसका मूल्य हुआ करता था। लोक कलाकार बहुत से स्तरों पर अपनी परम्पराओं संग अब भी बहुत महती सिरज रहे हैं पर उन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं होती। इसके ठीक उलट लोक कलाओं को बाजार की भाषा में रूपान्तरित कर बाजार की समझ वाले कलाकार लाखों-करोड़ों कमा रहे हैं। बाजारोन्मुख भूमंडलीकरण में कला जीवन के उपादान रूप में नहीं होकर जिस तरह से बाजार प्रायोजित हो रही है, उससे औचक कला का महत्त्व बढ़ता हुआ भले हमें लगे परन्तु सवाल यह है कि भविष्य में कला क्या इससे आम जन से निरंतर दूर नहीं होती चली जाएगी।
डॉ. राजेश कुमार व्यास