एक बात और है, इतिहास केवल देने वाले को याद करता है। लेने वाले का प्रकृति में भी कोई अस्तित्व नहीं माना जाता। यह एक कड़वा सच है और हमारे लोकतंत्र की तस्वीर का मुख्य पहलू भी है। हम लोगों को शासन के लिए चुनते हैं, टैक्स के रूप धन एकत्र करके भी देते हैं, देश के श्रेष्ठ प्रतिभाशाली नागरिकों को काम सौंपते रहे हैं। पिछले सालों का अनुभव रहा है कि आप इनको कितना भी टैक्स दो, कम पड़ता है। उसके बाद भी गलियां निकालकर धन ऐंठते हैं, चोरियां करते हैं, रिश्वत मांगते हैं, योजनाओं की लागत बढ़ाते रहते हैं, वंशजों को जोड़ते चले जाते हैं। आज 75 साल बाद हम कहां हैं-यही इनकी देशभक्ति और बुद्धिमता का प्रमाण है। इनके चिन्तन में माटी से जुड़ाव ही नहीं है, माटी का कर्ज क्या चुकाएंगे!
एक और परिस्थिति भी है इस देश में। विधायिका राजनीति पर आधारित है। उसमें देश के विकास का दृष्टिकोण होना अनिवार्य नहीं है। सरपंच से लेकर मंत्रिमण्डल तक की कोई पात्रता संविधान में नहीं है। इस की भव्यता-व्यापकता-वैभिन्य असाधारण है। बड़ा संकल्प चाहिए विकास के लिए और यह संकल्प चाहिए कार्यपालिका-न्यायपालिका में। हर प्रांत में ‘इन्वेस्टमेंट समिट’ होते रहे हैं। वे ही आने वाले और वे ही बुलाने वाले। एक नया उत्सव खड़ा हो गया-सरकारों का। परिणाम सबके सामने है। व्यक्तियों का विकास होता है, सामूहिक नहीं।
राजस्थान में भी ‘राइजिंग राजस्थान’ समिट होने जा रहा है। राज्य सरकार कृत-संकल्पित नजर आ रही हैं। केन्द्र सरकार भी पीछे खड़ी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आ रहे हैं। अभी तक के संदेश भी सकारात्मक आ रहे हैं। सारा दारोमदार कार्यपालिका पर टिका है। उन्हें भी संकल्पित होना चाहिए। निजी स्वार्थों से ऊपर उठना पहली आवश्यकता है। केवल अच्छी घोषणाओं से विकास नहीं हो सकता। पीढ़ियां बदल गई, विकास की दिशा बदल रही है, गति बदल रही है, स्पर्धा बदल रही है। नए भविष्य की नई चुनौतियां भी बड़ी हैं। पलायन भी रोकना है, रोजगार भी देना है। स्थानीय संसाधनों का भरपूर उपयोग भी होना चाहिए। होना यह भी चाहिए कि हम समय के साथ भी चलें और हमारा ज्ञान, परम्परा व विरासत भी अक्षुण्ण रहे।
जिलेवार बने योजनाएं
भारत विविधताओं से भरा देश है। हर प्रदेश की जलवायु, जरूरतें, उपज और विशेषताएं भिन्न-भिन्न हैं। इनके लिए योजनाएं भी क्षेत्रवार होनी चाहिए। लेकिन विदेशी अंदाज में बनने वाली योजनाओं में इसका ध्यान नहीं रखा जाता। एक आवश्यकता यह भी है कि विकास राज्य के सभी हिस्सों में होना चाहिए। हर जिला आत्मनिर्भर बनना चाहिए ताकि स्थानीय रोजगार व्यापक हो। लोगों को काम की तलाश में बाहर नहीं जाना पड़े। हमारे यहां तो स्थानीय कच्चे माल का उपयोग आज भी नहीं हो पाता। प्रयास ऐसे होने चाहिए जिनसे आधुनिकीकरण के साथ उद्योग-धंधे अन्य प्रदेशों के बजाए स्थानीय स्तर पर बढ़ सकें। उदाहरण के लिए टाइल्स गुजरात के मोरबी में नहीं राज्य में ही बने, इसबगोल की प्रोसेसिंग स्थानीय स्तर पर हों। राज्य के खनिज भी तैयार होने के लिए बाहर नहीं जाएं। वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल समिट को ऐसे आयोजनों की सफलता के मॉडल के रूप में देखा जा सकता है। इस समिट के माध्यम से गुजरात ने दुनिया के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया कि कैसे प्रभावी निर्णय लेने की प्रक्रिया और विकास केन्द्रित दृष्टिकोण बदलाव ला सकता है। शुरू में इसे ब्रांडिंग इवेंट कहा गया था। लेकिन अब यह साबित हो गया कि यह सिर्फ ब्रांडिंग इवेंट नहीं बल्कि ‘बॉन्डिंग’ का एक मंच है। वाइब्रेंट गुजरात समिट में वर्ष 2003 में सिर्फ कुछ सौ प्रतिभागी थे, लेकिन अब 40,000 से ज्यादा प्रतिभागी इस आयोजन से जुड़ते हैं। अब 135 से ज्यादा देश इस समिट में हिस्सा ले रहे हैं। आज गुजरात भारत का सबसे बड़ा निर्यातक है, जिसका वर्तमान लेन-देन 2 बिलियन अमरीकी डॉलर है। पिछले दो दशक में गुजरात ने ऑटोमोबाइल मैन्युफै क्चरिंग, कैमिकल, रंग, खाद्य प्रसंस्करण, चिकित्सा उपकरण मैन्युफैक्चरिंग, प्रोसेस्ड हीरे, चीनी मिट्टी सहित कई क्षेत्रों में प्रगति की है। इतना ही नहीं देश के शीर्ष दस निर्यातक जिलों में से पांच गुजरात के हैं।
दक्षिण के प्रदेश कर्नाटक को ही लें। वर्ष 2010 में इन्वेस्टर मीट की सफलता दर केवल 28 प्रतिशत थी। अब कर्नाटक भारत की सिलिकॉन वैली है। यहां ग्लोबल रिसर्च एंड डवलपमेंट सेंटर वाली 400 से अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं। भारत में निर्मित मशीन टूल्स के कुल मूल्य का 60 प्रतिशत उत्पादन अकेले बैंगलूरु में है। भारी विद्युत मशीनरी का देश में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य कर्नाटक है। इतना ही नहीं यह प्रदेश निर्यात में सभी राज्यों में प्रथम है। कर्नाटक देश का एकमात्र राज्य है, जिसके पास 2 औद्योगिक गलियारे सीबीआईसी (चेन्नई-बेंगलूरु) और बीएमईसी (बेंगलूरु-मुंबई) हैं।
उत्तरप्रदेश ग्लोबल इंवेस्टर मीट के तहत यूपी में वर्ष 2023 में 32.92 लाख करोड़ रुपए (400 बिलियन डॉलर) के निवेश का वादा करते हुए 18,000 समझौते हुए। इनमें से एक साल में लगभग 10 लाख करोड़ रुपए के अनुमानित निवेश और 33.50 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने वाली 14000 से ज्यादा परियोजनाओं को लागू किया जा चुका है। उत्तरप्रदेश देश में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला राज्य है। देश की जीडीपी का 8 प्रतिशत हिस्सा यूपी पर निर्भर है।
देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई कही जाती है। महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र ग्लोबल इनवेस्टमेंट समिट के नाम पर वर्ष 2023 में 1.37 लाख करोड़ रुपए के एमओयू किए, जिनके माध्यम से एक लाख लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया। ये एमओयू हाई-टेक इंफ्रस्ट्रक्चर, नवीनीकरण ऊर्जा, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स, व कृषि खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्रों को लेकर हुए। वहीं आंध्रप्रदेश इनवेस्टमेंट समिट में वर्ष 2023 में 13 लाख करोड़ रुपए के एमओयू हुए, जिनमें ऊर्जा, आईटी, पर्यटन, फार्मा अािद क्षेत्रों में निवेश व रोजगार से संबंधित प्रस्ताव आए। राजस्थान की तरह मध्यप्रदेश में नए साल की शुरुआत में इंवेस्टमेंट समिट होने वाली है। इसके लिए 23 हजार करोड़ रुपए के निवेश प्रस्ताव सितम्बर तक मिल चुके, जिनसे 28 हजार लोगों को रोजगार मिलेगा।
राजस्थान में इस तरह के इन्वेस्टमेंट समिट पिछली सरकारों ने भी किए हैं। इस बार राइजिंग राजस्थान ग्लोबल इन्वेस्टमेंट समिट में अभी तक 25 लाख करोड़ रुपए के एमओयू हुए हैं, जबकि वर्ष 2011 में एक लाख करोड़, वर्ष 2015 में 3 लाख करोड़ और वर्ष 2022 में 12.58 करोड़ रुपए के एमओयू किए गए। लेकिन इन एमओयू के धरातल पर उतरने की बात करें तो यह 12 से 16 फीसदी तक ही रही है। वर्ष 2022 में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रित्वकाल के दौरान इन्वेस्टमेंट राजस्थान समिट में 12.58 लाख करोड़ के निवेश प्रोजेक्ट को लेकर एमओयू-एलओआई हुए थे लेकिन धरातल पर उतरने का प्रतिशत 15.58 प्रतिशत ही रहा। वर्ष 2015 में भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार के दौर में रिसर्जेंट राजस्थान समिट में 3 लाख करोड़ के निवेश प्रोजेक्ट के एमओयू-एलओआई हुए लेकिन 15 फीसदी ही धरातल पर उतर पाए।
इन निवेश प्रस्तावों को देखकर लगता है कि निवेश के लिए एमओयू खूब हो रहे हैं। जहां नेतृत्व की सजगता है वहां इन्हें धरातल पर उतारने की कोशिश भी होती है। राइजिंग राजस्थान समिट निवेश की दिशा में बेहतर प्रयास है। लेकिन हमें ऐसे भारतीय उद्योगपतियों की सूची भी तैयार करनी चाहिए जो एमओयू तो कर जाते हैं, बाद में मुकर जाते हैं। कुछ ऐसे नाम भी मिलेंगे जो हर प्रदेश में ‘समिट’ में भाग लेते हैं और अन्त में दिखाई ही नहीं देते। हमारा राजस्थान फाउंडेशन का प्रयोग भी काम नहीं आया। आज चर्चा से ही बाहर हो गया। ऐसे उद्योगपतियों को पुराने रिकार्ड के आधार पर ही बुलाना चाहिए। एक बड़ी होशियारी अधिकारी यह भी करते हैं कि पुरानी सरकार के एमओयू रद्द करवाकर नई तारीखें डलवा देते हैं। ऐसी आवाजें भी आने लग गईं।
इस बार जिलेवार योजनाएं बननी चाहिए। जिलेवार ही अधिकारियों को प्रभारी बनाकर विकास के लक्ष्य और समय सीमा तय होनी चाहिए। कम से कम इस सरकार के कार्यकाल तक तो अधिकारी वहीं रहकर परिणाम दे सकें। भ्रष्टचार का एक बड़ा कारण स्थानान्तरण भी है। कुछ का न होना और कुछ का जल्दी-जल्दी होना।
उद्योगों के विकास के लिए पानी-विद्युत-परिवहन एक बड़ी अनिवार्यता है। इनका स्तर आज तो विश्वसनीय नहीं है। सरकार इनको भी प्राथमिकता दें। तकनीकी शिक्षा दूसरी कमजोर कड़ी है। शिक्षा विभाग को वित्त विभाग पर निर्भर नहीं होना चाहिए। कागजों में दी गई स्वतंत्रता वास्तविक परतंत्रता ही है। समग्र विकास राज्य की आवश्यकता है। कृषि के साथ पशुधन का परम्परागत ढंग एवं भूगोल को ध्यान में रखकर विकास होना चाहिए। विदेशी ढंग हमारी जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं है। न ही रसायनों का प्रयोग। नई नीतियों में पुराने अनुभवों का समावेश होना चाहिए। उद्योगों के परिणाम एक पीढ़ी बाद दिखाई देते हैं। तब राज्य कैसा हो जाना है, इसी दृष्टि से उद्योगों की श्रेणियां, उत्पादन, रोजगार आदि को लक्ष्य बनाकर, एक निश्चित गारंटी के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है।
नए उद्योगों की स्थापना अपने आप में साहसी कदम है। इसके साथ ही कच्चा माल-परिवहन, भण्डारण, मण्डियों की समुचित व्यवस्था पर भी ध्यान देना है। जो दशा धान के भण्डारण की है, वैसी दशा उद्योग क्षेत्र में तो नहीं रहनी चाहिए। वैसे नुकसान के साथ दण्ड की व्यवस्था भी हो तो गलतियां ठहर जाएंगी।