सिनेमा हॉल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने की परम्परा पुरानी रही है। धीरे-धीरे ये परम्परा बंद हो गई। पिछले साल से सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही ये परम्परा फिर शुरू की गई। तब से लेकर ये मामला विवाद में अटका हुआ है। देश में एक तबका सवाल उठा रहा है कि देशभक्ति साबित करने के लिए राष्ट्रगान के समय सिनेमा हॉल में खड़ा रहना अनिवार्य क्यों हो? जिसकी इच्छा हो खड़ा हो। नहीं खड़े होने वाले को किसी भी तरह से प्रताडि़त नहीं किया जा सकता। देश के राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे पर अलग-अलग राय जाहिर की हैं।
सरकार को चाहिए कि ऐसे मुद्दों पर कोई भी फैसला लेने से पहले सबकी राय जानें। फैसला होने के बाद उस पर विवाद होना ठीक नहीं। राष्ट्रगान ऐसा मुद्दा नहीं जिस पर देश बंटा हुआ नजर आए। ये कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है जिस पर बेवजह की राजनीति की जाए। न ही ये मुद्दा ऐसा है जिसे सरकार अपनी प्रतिष्ठा के साथ जोड़े। देश पर जब भी संकट आया है, पूरा राष्ट्र उठ खड़ा हुआ है।
ऐसे मामले में सरकार राजनीतिक दलों की राय भी ले सकती है। फ्लैग कोड और राष्ट्रगान सम्बन्धी नियमों में कोई भी बदलाव सबकी सहमति के साथ ही हो तो बेहतर रास्ता निकल सकता है। आम जनता की बात तो दूर लेकिन अनेक मौकों पर राजनेता ही राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज के प्रति सम्मान दिखाने में कोताही बरतते नजर आए हैं। कितने नेता ऐसे होंगे जिन्हें शायद पूरा राष्ट्रगान भी याद ना हो? ऐसे में जनता पर कोई भी नियम जबरन थोपने से बचना चाहिए।