राजनीतिक विश्लेषकों की उत्सुकता दूसरी भी है। उत्सुकता इस बात की कि नतीजों में क्षेत्रीय दलों की झोली में क्या आता है? उत्तर भारत के तीन राज्यों में पिछले दो साल में हुए विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को निराशा के अलावा कुछ नहीं मिला था। ढाई साल पहले पंजाब विधानसभा चुनाव में पांच बार सरकार बनाने वाले अकाली दल का लगभग सफाया हो गया था। उसे 117 में से सिर्फ तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा था। पिछले महीने आए हरियाणा चुनाव के नतीजों में यही हाल इंडियन नेशनल लोकदल का हुआ। राज्य में पांच-छह बार सरकार बनाने वाले इंडियन नेशनल लोकदल को मुंह की खानी पड़ी थी। 2019 के चुनाव में 10 सीटें जीतने वाले जननायक जनता दल इस वर्ष हुए चुनाव में खाता खोलने को भी तरस गया था। इंडियन नेशनल लोकदल को तोड़कर बने इस दल के नेता दुष्यंत चौटाला को स्वयं करारी हार का सामना करना पड़ा था। अक्टूबर में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को सिर्फ तीन सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था।
पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजे क्षेत्रीय दलों की घटती लोकप्रियता को नए सिरे से परिभाषित करेंगे। महाराष्ट्र में भाजपा-कांग्रेस के अलावा शिवसेना और एनसीपी के दो-दो धड़े सत्ता की दौड़ में शामिल हैं। राज्य में पिछले पांच साल से क्षेत्रीय दलों का ही मुख्यमंत्री है। पहले ढाई साल शिवसेना के उद्धव ठाकरे और फिर उद्धव की शिवसेना से अलग हुए अपनी शिवसेना बनाने वाले एकनाथ शिंदे। झारखंड में भी पिछले पांच साल से क्षेत्रीय दल झामुमो का ही मुख्यमंत्री है। ऐसे में शनिवार को आने वाले नतीजे इस बात की गारंटी भी देंगे कि क्या क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व को बचाने में कामयाब रहे? खासकर शिवसेना(उद्धव) के लिए नतीजे जीवन-मरण का सवाल हैं।
बसपा भले ही राष्ट्रीय दल हो लेकिन इसकी राजनीतिक ताकत लगातार घटी है। तीन बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की सरकार चला चुकी बसपा पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट जीतकर क्षेत्रीय दल की तरह रह गई है। इस साल लोकसभा चुनाव के साथ हुए आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव में वाइएसआर कांग्रेस का हश्र भी देश देख चुका है। पांच साल पहले 151 सीटें जीतकर सरकार बनाने वाले जगनमोहन रेड्डी की पार्टी को मतदाताओं ने 11 सीटों पर समेट दिया था। महाराष्ट्र-झारखंड में क्या होगा, कोई नहीं जानता? लेकिन एक्जिट पोल पर भरोसा किया जाए तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना को झटका लग सकता है। लेकिन यहां उत्सुकता इस बात की भी है कि आखिर क्षेत्रीय दल अपना वजूद खो क्यों रहे हैं? क्या वे चुनावी गठजोड़ की राजनीति का शिकार हो रहे हैं? या फिर सत्ता पाने के बाद वे जनता से किए वादे पूरे नहीं करते? क्षेत्रीय दलों के कमजोर होने के कारण अनेक हो सकते हैं लेकिन इतना तो स्वीकार करना पड़ेगा कि राज्यों में ही नहीं केंद्र की सरकार बनाने में भी अनेक बार क्षेत्रीय दलों की अहम भूमिका रही है।
—अनंत मिश्रा
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक