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कर्पूरचंद कुलिश जयंती विशेष: निष्पक्षता ने बनाई पाठकों में साख

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पर बंधन की स्थिति से मुक्त होने की छटपटाहट ने ही ‘राजस्थान पत्रिका’ को अस्तित्व में ला खड़ा किया।
– संस्कृति और मानवीय मूल्यों की संरक्षा के लिए पत्रिका की अथक साधना में उसका आराध्य समूचा पाठक वर्ग है, समाज और राष्ट्र है।

Mar 20, 2021 / 07:26 am

विकास गुप्ता

कर्पूरचंद कुलिश जयंती विशेष: निष्पक्षता ने बनाई पाठकों में साख

कर्पूरचंद कुलिश जयंती विशेष: निष्पक्षता ने बनाई पाठकों में साख

सुकुमार, वरिष्ठ पत्रकार

अखबार स्वतंत्र हो, उस पर किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति का प्रभाव न रहे लेखनी पर कोई बन्दिश न रहे। निष्पक्षता व निर्भीकता के श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश के इस मंत्र को पत्रिका ने आत्मसात कर रखा है। सही मायने में इसी मकसद को पूरा करने के लिए कुलिश जी ने 7 मार्च 1956 को एक सायंकालीन दैनिक के रूप में राजस्थान पत्रिका का पौधा लगाया था जो आज विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है। आज भी पत्रिका की समूह की रीति-नीति के केन्द्र में पाठक और कर्म को इंगित करता हुआ व्यापक जनहित ही रहता है। इन सिद्धांतों के निर्वाह में कुलिशजी को भी बहुतेरा संघर्ष करना पड़ा था। सरकारों की नाराजगी झेलते हुए संघर्ष करते रहने का दृढ़संकल्प आज कुलिशजी की तीसरी पीढ़ी में भी कायम है।

मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे कुलिशजी की प्रारम्भिक शिक्षा मालपुरा कस्बे में हुई। हाईस्कूल की पढ़ाई जयपुर में की। अद्भुत मेधा के धनी कुलिशजी के लिए एक संवेदनशील कवि, निर्भीक पत्रकार, प्रखर लेखक, विचारक और विद्वान वेदज्ञ के रूप में स्थापित होने में केवल स्कूल तक की पढ़ाई बाधा नहीं रही। स्वाध्याय में गहन रुचि और ज्ञान पिपासु प्रवृत्ति ने उनको ऐसे चिन्तक के तौर पर विकसित किया जिसने प्रत्येक कार्यक्षेत्र में प्रतिमान बनाए। पच्चीस वर्ष की आयु में दैनिक अखबार ‘राष्ट्रदूत’ से जुडऩे से पहले कुलिशजी जयपुर में मंच के लाड़ले कवि के रूप में पहचान बना चुके थे। इसी बीच कुछ नौकरियां भी कीं। लेकिन उनका यायावर मन इनमें कहीं रमा नहीं। हाई स्कूल के बाद ‘साहित्य सदावर्त’ में शिक्षक के तौर पर जुड़कर अहिन्दी भाषी समुदायों में हिन्दी के उन्नयन का कार्य किया। लय-छन्द में गुंथे उनके गीतों में पे्रम की पीड़ा, विरह की व्यथा, मिलन की प्रतीक्षा के साथ ही अनहद नाद के स्वर अद्भुत आनन्द बरसाते। कण्ठ भी मन्त्रमुग्ध करता। कवि सम्मेलनों से ख्याति और थोड़ी आय भी मिलने लगी। किन्तु कुलिशजी की तृषा कुछ और ही थी जो गीत में अभिव्यक्त हुई ‘कब बुझेगी अचिर की चिर प्यास मेरी।’ उनकी यह जिजीविषा कालान्तर में उनके प्रत्येक कर्म में लक्षित भी होती रही। कर्मयोगी कुलिशजी ने जिस पथ पर भी पग बढ़ाए, उनका प्रयाण अमृत की आकांक्षा में रहता। परिणाम भी सामने आते रहे।

कुलिशजी ने जब राजस्थान पत्रिका के रूप में समाचार पत्र की नींव रखी तब प्रदेश में अखबार तो और भी थे। पर स्वतंत्र कोई नहीं था। वे किसी न किसी राजनीतिक दल के सहारे खड़े थे। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रहती है। वह पत्रकारों को प्राप्त नहीं थी। अपने आत्मकथ्य ‘धाराप्रवाह’ में कुलिशजी ने इस बात का उल्लेख भी किया था कि ऐसा लगा जैसे अखबार की नौकरी करते हुए उन पर नजर रखी जा रही है कि वे क्या लिखते हैं? अभिव्यक्ति की आजादी पर बंधन की स्थिति से मुक्त होने की छटपटाहट ने ही ‘राजस्थान पत्रिका’ को अस्तित्व में ला खड़ा किया।

कुलिशजी ने पत्रिका को हिन्दी पत्रकारिता जगत् में शिखर पर प्रतिष्ठित किया। मित्रों से मिले पांच सौ रुपए के ऋण से प्रारम्भ हुआ ‘सायंकालीन पेपर’ अपने तेवर और साख की बदौलत पौधे से वटवृक्ष के रूप में विकसित हुआ। सुबह का अखबार पाठकों के विस्तृत ‘पत्रिका परिवार’ में उजाला फैलाने लगा। आज नौ राज्यों में 38 संस्करणों के साथ पत्रिका समूह कुलिशजी के घोष ‘य ऐषु सुप्तेषु जागर्ति’ यानी ‘सोए हुओं में जागने वाला’ को नित्य फलीभूत कर रहा है। तमाम उतार-चढ़ावों से लोहा लेते हुए कुलिशजी ने अपनी कलम का प्रभाव जनमानस पर अंकित किया। पत्रिका राजस्थान की पहचान बन गया। प्रांजल भाषा में उनके अग्रलेख पाठकों के मन में उतरते। आपातकाल में राजस्थान का दौरा कर उन्होंने जनजीवन को शब्द चित्रों में उकेरा। साथ ही जनमानस को टटोला भी। पत्रिका से निवृत्ति से सालभर पूर्व कुलिशजी वेदविज्ञान की ओर प्रवृत्त हुए। लेखों की अनवरत शृंखला के माध्यम से पाठकों को वेद में निहित गूढ़ सूत्रों को समझने का अवसर पत्रिका में मिलने लगा। कलम की इस विरासत को उनके ज्येष्ठ पुत्र गुलाब कोठारी ने बखूबी संभाला ही नहीं, बल्कि क्षितिज तक विस्तारित किया है।

राजस्थान पत्रिका का सामाजिक सरोकारों के लिए अपना अलग मुकाम है। संस्कृति और मानवीय मूल्यों की संरक्षा के लिए पत्रिका की अथक साधना में उसका आराध्य समूचा पाठक वर्ग है, समाज और राष्ट्र है। पत्रिका का प्रत्येक लेखन पाठक को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत होता है। यही कारण है कि पाठक भी अपने अन्तस से जुड़ जाता है। अनुसरण सदैव नेतृत्व के गुणों का होता है। सामाजिक अभियान या आपदा के समय पत्रिका के आह्वान पर किशोर-युवा, वृद्ध नर-नारी कन्धे से कन्धा मिला कर भागीदारी के लिए आ जुटते हैं। समाज से लेने की भावना ही न रहे, समाज के लिए कुछ देने की जो दृष्टि पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चन्द्र कुलिश ने दी, वह इस संस्थान का योग-सूत्र है।

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