गीता में वेद-उपनिषद्-ब्राह्मण ग्रन्थों का सार मिश्रित है। यह युद्धक्षेत्र का प्रेरणा ग्रन्थ मात्र नहीं है। इसमें सम्पूर्ण जीवन को ही युद्धक्षेत्र- देवासुर संग्राम स्वीकार किया गया है। गीता में कृष्ण के त्रिविध रूप हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। कौन सा वक्तव्य, कौन से शरीर से निकला, वहीं लागू होगा। शरीर स्वयं ब्रह्माण्ड है, कृष्ण स्वयं को अव्यय पुरुष कह रहे हैं। ब्रह्माण्ड में एक ही पुरुष है तथा यह ब्रह्माण्ड इसकी प्रकृति है। आत्मा के दो धातु-ईश्वर और जीव, अर्थात् ब्रह्म और कर्म हैं। गीता, ब्रह्म की कर्मरूप यात्रा का विज्ञान है, जो देश-काल के अनुरूप बदलता नहीं है। इसमें कृष्ण अव्यय पुरुष है, ईश्वर अक्षर पुरुष है, जीवात्मा क्षर पुरुष है। ईश्वर, कृष्ण/अव्यय से भिन्न संस्था है।
कृष्ण ने स्थान-स्थान पर संकेत भी किए हैं, जिनको दर्शन से हटकर विज्ञान भाव में समझना चाहिए। कृष्ण कहते हैं-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
गीता 15.7
शरीर में यह जीवात्मा मेरा ही अंश है। प्रकृति के कारण वही मन तथा पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।
आत्मा षोडश कलायुक्त है। आत्मा सूक्ष्म शरीर है तथा इसके मूल में अव्यय पुरुष का मन है। कृष्ण उत्तम पुरुष (मैं) के आधार पर गीता सुना रहे हैं और स्वयं को अव्यय पुरुष कह रहे हैं। अव्यय पुरुष सृष्टि का आलम्बन है, जहां कोई भाव नहीं है। सृष्टि की प्रथम कृति-सत्यरूप-अव्यय मन ही है। स्वयंभू ब्रह्मा ही प्रथम अव्यय है। अव्यय मन के अतिरिक्त कोई अन्य मन सृष्टि में नहीं है। एक ही पुरुष, एक ही मन, शेष सब माया। हर प्राणी का मन इसी मन का प्रतिबिम्ब अथवा अंश है। अव्यय-अक्षर-क्षर की पांच-पांच कलाओं से परात्पर की युति से ही षोडशी पुरुष (आत्मा) का निर्माण होता है। कृष्ण और भी स्पष्ट करते हैं-
मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। गीता 14.3
अर्थात्-सभी भूत मुझसे ही पैदा होते हैं। मैं ही सृष्टि का बीज हूं। (9.16, 10.39)। महद् लोक जो कि सूर्य और परमेष्ठिलोक के मध्य का अन्तरिक्ष है, वही मेरी योनि है, जहां मैं गर्भाधान करता हूं। इसका अर्थ भी तो यही है कि सम्पूर्ण सृष्टि मेरा ही अंश है, मेरी ही प्रजा है अर्थात् स्वयं मैं ही हूं । प्रत्येक जीव भी ब्रह्म है। पिता वै जायते पुत्रो। यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे।
आगे एक श्लोक में कृष्ण कहते हैं-
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
गीता 18.61
अर्थात्-हे अर्जुन ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीररूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को (उनके स्वभाव के अनुसार) भ्रमण कराता
रहता है।
यहां ईश्वर की चर्चा हो रही है। आम तौर पर कृष्ण को ही ईश्वर मान लिया जाता है। यहां ऐसा नहीं है। कृष्ण अपनी ही बात करते तो ”अहं” कहते, जैसा कि सब जगह कहते हैं। यहां ईश्वर एक अधिकारी/विभागाध्यक्ष की भूमिका में दिखाई दे रहा है। ईश्वर में कुछ नया निर्माण करने की क्षमता नहीं है। निर्माण अव्यय पुरुष करता है। ईश्वर उस अदृश्य निर्माण का प्रादुर्भाव करता है। प्राण रूप में आगे बढ़ाता है। एक ब्रह्माण्ड में तीन प्रधान ईश्वर ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र होते हैं। ईश्वरात्मा और जीवात्मा मिलकर ही हमारा आत्मा कहलाते हैं। अव्यय पुरुष में जो आनन्द भाव है, वह जीव में नहीं रहता।
ईश्वर शब्द का अर्थ है-समस्त चराचर का ईशन/नियमन करने वाला। ईश्वर संसार का केवल निमित्त कारण है। संसार के स्वरूप में भी है-”तत्सृष्टवा तदेवानुप्राविशत्” तथा समस्त पदार्थों के हृदय में रहकर सबका संचालन करता है। चलना एक क्रिया है, जिसके लिए कर्ता चाहिए। ईश्वर कर्ता है। अधिष्ठान करना निमित्त कारण का ही काम होता है। कृष्ण आधिकारिक जीव कहे गए क्योंकि उनमें ईश्वरत्व और जीवत्व दोनों लक्षण विद्यमान थे। जीव रूप में रहते हुए कृष्ण समय-समय पर अपना ईश्वर रूप भी प्रकट करते थे।
ईश्वर हृदय स्थल में रहता है। हृदय स्वयं तीन अक्षर प्राणों का समूह है-ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र। यही ईश्वर का स्वरूप है। बिना हृदय के किसी वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता। हृदय केन्द्र को कहते हैं। हर आकृति का आधार अहंकृति और प्रकृति होती है। अक्षर प्राण परा प्रकृति है तथा क्षर अपरा सृष्टि है। प्रकृति निर्माण करती है, माया आकर्षित करती है। प्रकृति आत्मा से जुड़ी होने से आत्मा नित्य कर्म करता रहता है।
ईश्वर का निर्माण कैसे होता है? इसका आधार वैश्वानर अग्नि है। जैसे हमारे शरीर में मन तथा शुक्रादि धातुओं का निर्माण वैश्वानर अग्नि से होता है, वैसे ही पृथ्वी और सूर्य के मध्य वसु-रुद्र-आदित्य तीन अग्नियों के योग से वैश्वानर अग्नि बनता है। इन्हीं को अग्नि-वायु-आदित्य कहा जाता है। अग्नि में वायु तथा आदित्य की आहुति से विराट, वायु में अग्नि तथा आदित्य की आहुति से हिरण्यगर्भ तथा आदित्य में अग्नि-वायु की आहुति से सर्वज्ञ उत्पन्न होते हैं। ये विराट-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ तीनों अग्निरूप हैं, देव सत्य कहलाते हैं। इनको ही ईश्वर कहते हैं। इन्हीं का प्रवग्र्य (छिटका हुआ अंश) वैश्वानर, तैजस तथा प्राज्ञ हैं। इन्हीं को जीव कहा जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’।
कृष्ण अपना एक अन्य स्वरूप और बता रहे हैं-
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजय:। गीता 10.37
अर्थात्-वृष्णियों (यादवों) में मैं वासुदेव हूं, पाण्डवों में मैं अर्जुन हूं। यह तो समझ में आ रहा है कि कृष्ण वसुदेव के पुत्र वासुदेव हैं। यह तो साधारण मनुष्य की भाषा है। किन्तु यह कोई कैसे समझे कि वे ही अर्जुन भी हैं? यह मनुष्य की भाषा है, ईश्वर की भाषा है अथवा अव्यय पुरुष की अभिव्यक्ति है? विश्व का आत्मा तीन प्रकार से भासित होता है। सारे शरीरों को उपाधि रूप में समझने की अवस्था में सारे जीवों में साधारणतया एक अव्यय रूप विराजमान हैं। विश्व शरीर की उपाधि रूप अवस्था में विचार करने पर ईश्वर में अव्ययरूपता भासित होती है। कोई भी उपाधि न रहे इस विचार परम्परा में विशुद्ध अव्यय रूप अवस्था होती है। कृष्ण यही बात अर्जुन को कैसे समझा रहे हैं-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। गीता 4.5
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। गीता 4.6
अर्थात्-‘अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत जन्म बीत चुके हैं। मैं अजन्मा हूं। मेरे आत्मा में कभी विकार नहीं आता। मैं अव्यय हूं। सारे भूतों का नियंत्रण करने वाला ईश्वर हूं। अपनी प्रकृति को वश में रखते हुए अपनी ही माया शक्ति के द्वारा मैं उत्पन्न हुआ करता हूं।’
ईश्वर के बहुत से जन्म कैसे हो सकते हैं! इस तरह जन्म-मरण धर्मी जीवात्मा (ईश्वर भाव से अतिरिक्त) है, उसका व्यवहार किया गया है। अत: कहा गया है कि जीव और ईश्वर दोनों जिसमें मिले हुए हैं, ऐसा आत्मा भी नहीं। क्योंï? ईश्वर का जो आत्मा है, वह एक है, सर्वज्ञ है। यह जो साधारण धर्म है उसके द्वारा जिसकी उपपत्ति हो रही है, उसके कारण ईश्वर महाशक्तिमान है। जीव अल्पशक्तिमान है। अत: जीव-ईश्वर आत्मा से भी इनका ग्रहण नहीं किया जा सकता।
यहां अहं शब्द से उपदेश करने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं माना जा सकता। देवताओं से पूर्व किसी की उत्पति ही नहीं हुई। यहां प्रथमजा कहा गया यानी, पहले पैदा होने वाला कहा गया। आप: है योनि जिसकी, उससे उत्पन्न होने वाला ही प्रथमजा कहा जाएगा। सूर्य का सत्य अह: है, अध्यात्म का सत्य अहं है। यही अहम् अप् योनि में सबसे पहले पैदा हुआ। यही ”अहं प्रथमजा ऋतस्य” कहलाया। जो अहं आत्मा कहला रहा है, वही कृष्ण है। पेड़ों के भीतर जिस प्रकार अग्नि दिखाई नहीं देता, इसी प्रकार सृष्टि में व्याप्त अव्यय तत्व भी प्रकट नहीं होता। अत: कृष्ण है। यही भीतर छुपा सबका आधार रूप कृष्ण तत्व है। यही गीता शास्त्र का उपदेशक योगेश्वर कृष्ण है।
क्रमश:
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