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हृदय और मन

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-हृदय और मन

Nov 06, 2023 / 11:03 am

Anand Mani Tripathi

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शरीर ही ब्रह्माण्ड- हृदय और मन

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : मन की अपनी मर्जी होती है और बुद्धि का अहंकार होता है। दोनों ही तामसिक दशाएं हैं। सात्विक दशा में मन निर्मल तथा बुद्धि प्रज्ञा के रूप में जान पड़ते हैं। दोनों मिलकर विवेकशील हो जाते हैं। बुद्धि का सहज गुण धृति (स्थिरता) है। बुद्धि ब्रह्माण्ड में सूर्य संस्था से जुड़ी होती है अत: इसमें इन्द्र प्राण की प्रधानता रहती है। व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन रूप में कृष्ण इसी स्थिर बुद्धि का ज्ञान दे रहे हैं। मन का सम्बन्ध चन्द्रमा से हैं-चन्द्रमा मनसो जात:। मनश्चन्द्रेण लीयते। सोमात्मक मन जब सौरी बुद्धि से जुड़ता है तो यह असंग (आसक्तिरहित) हो जाता है। मुक्ति की दिशा में प्रवृत्त होता है। इसके विपरीत अवस्था में यह संसग होकर सृष्टि कार्य में लग जाता है। मन-प्राण-वाक् मिलकर आत्मा कहलाते हैं। शरीर को वाक् कहते हैं, प्राण जीवन का गतिमान तत्त्व है और मन अस्तित्व से जुड़ा है। तीनों जीने के साधन कहलाते हैं, जिनका उपयोग आत्मा करता है। मन आत्मा से जुड़ा है। प्राणों के माध्यम से शरीर से जुड़ा है।

वेद विज्ञान के अनुसार शरीर तीन होते हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इनके मन भी तीन होते हैं क्रमश: इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन, महन्मन। श्वास-प्रश्वास के माध्यम से प्राणों की भी तीन ही गति हो सकती है। स्थूल-पेट फूलाने वाला, सूक्ष्म कपाल की ओर, कारण सुषुम्ना में। आत्मा का मन अव्यय-श्वोवसीयस मन है, प्राण अनाहत नाद है। अव्यय पुरुष का मन ही सम्पूर्ण सृष्टि का मन बनता है। अत: सृष्टि पुरुष प्रधान है। शेष सब माया है। सृष्टि में स्त्री रूप की व्यवस्था अलग से नहीं है। माया रूप कामना को ही ‘योषा’ माना है और पुरुष को वृषा (वर्षण कारक)। अव्यय मन कामना के द्वारा, प्राणों की गति के माध्यम से वाक्-सृष्टि की ओर बढ़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि इस गति के सिद्धान्त पर ही आधारित है। आत्मा मन रूप है-स्वयं में निष्क्रिय है। वाक् में भी गति नहीं है। प्राण ही दोनों ओर गति प्रदान करता है। मन जीवन का केन्द्र है, शरीर को परिधि मान लें। कामना का शरीर की ओर जाना गति है, शरीर से मन की ओर आना आगति है। मन में ठहर जाना ही स्थिति है। हमारा सम्पूर्ण जीवन गति-आगति-स्थिति के सिद्धान्त पर ही चलता है। विज्ञान भी आज ‘लॉ ऑफ मोशन’ को महत्त्वपूर्ण मानती है। हमारे यहां कामना ही गति का कारण है। अत: परिणाम योनियों को भी गति ही कहा जाता है। कामना से उत्पन्न परिणाम ही भिन्न-भिन्न गतियों का मार्ग प्रशस्त करते हैं। एक ही जन्म में आधि-व्याधि-समाधि भी गतियां ही हैं।

चार प्रकार के मन, चार प्रकार की कामनाएं, चार स्तर की ही गतियां। हर शरीर के अपने-अपने कर्म। क्या कामना ही कर्म का कारक है? कामना के लिए विषय का ज्ञान चाहिए। परिणाम का लक्ष्य चाहिए। यह लक्ष्य कौन तय करता है? महन्मन की कामना प्रकृति से जुड़ी है। इन्द्रिय मन की कामना बाहरी विषयों के प्रति राग-द्वेष से जुड़ती है। प्रकृति पूर्व कर्मों के फल पाने या भोगने के लिए कामना पैदा करती है। इन्द्रिय मन नए कर्म करने के लिए कामनाग्रस्त होता है। कामना का कोई अर्थ नहीं होता। क्योंकि कामना में गति नहीं होती। सागर में लहरों की तरह बनती जाती है, मिटती जाती है।

शरीर जड़ है। जड़ पदार्थों की गति अत्यन्त धीमी होती है। जैसे लोहे में जंग तो लगता है। मन की अपनी गति है- बुद्धि की अपनी गति है और आत्मा की 84 लाख गतियां (योनियां) होती है। चेतन जीव के कृमि-कीट-पक्षी-पशु चार विवर्त होते हैं। इसी प्रकार जड़ पदार्थ पृथ्वी तत्त्व प्रधान होते हैं। मनोजीवी चान्द्र तत्त्व प्रधान होते हैं। बुद्धिजीवी सूर्य तत्त्व से प्रभावित रहते हैं। मानव आत्मनिष्ठ है, जो अव्यक्त (अव्यय) के कारण आत्मभाव वाले कहे जाते हैं। लोक में मानव को भी जीवात्मा ही कहा जाता है-”जीवभूतां महाबाहो! ययेदं धार्यते जगत्'(गीता)। आत्मा का क्षर-अक्षर के आगे अव्यय से ही सम्बन्ध है। अव्यय सामान्य विभूति सम्बन्ध से भूतों का आधार बनता हुआ भी स्व-स्वरूप से पूर्णतया मानव में ही अभिव्यक्त होता है। अन्य प्राणी जहां प्रकृति तंत्र से संचालित हैं, वहीं मानव स्व-पुरुषार्थ से सर्वतंत्र स्वतंत्र है। पशु आदि में जीव है, किन्तु आत्मा का विभूति रूप मात्र है। यहां आत्मा को अव्यय मन का पर्याय समझना चाहिए।

सभी कामनाएं पूरी करने लायक नहीं होती। कुछ को आगे पीछे भी किया जाता है। कुछ दूसरों के माध्यम से पूरी की जाती हैं। कामना पूर्ति का निर्णय जीवन का मूल द्वन्द्व है। बुद्धि कुछ कहती है, मन और कहता है, भाग्य कुछ और ही कहता है।
अव्यय पुरुष का मन सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है। बिना केन्द्र के कोई आकृति नहीं बनती। इस केन्द्र के सिद्धान्त को तराजू के केन्द्र से समझा जा सकता है। केन्द्र ही संतुलन का आधार बनता है। अव्यय पुरुष का केन्द्र भी हृदय ही कहलाता है। इसका अर्थ है कि वह भी गति-आगति-स्थिति के सिद्धान्त पर ही कार्य करता है। मन जहां सबके अलग-अलग हैं, वहीं हृदय सबका केन्द्र रूप ही है। वेद में प्रत्येक निर्माण के केन्द्र को मन कहते हैं। कई बार हृदय और मन को पर्याय मान लिया जाता है। दोनों एक नहीं हैं। हृदय मन का आश्रय बनता है। मन आता-जाता रहता है। मन की इस गति से ही हृदय स्थित (केन्द्रगत) ब्रह्मा की स्थिति का खण्डन (विचलन) होता है। इन्द्र, मन और प्राण की गति के अनुरूप ब्रह्मा का उच्छिष्ट (अलग हुआ) बाहर ले जाता है। ब्रह्मा के इस खण्डन की पूर्ति विष्णु सोम के द्वारा करता है। यह इच्छा पूर्ति की स्थिति है। इसमें ब्रह्मा का स्वरूप पुन: प्रतिष्ठित हो जाता है।

मन, इच्छा के साथ पैदा होता है। इच्छापूर्ति के साथ मर जाता है। हृदय अक्षर है, स्थायी है। ब्रह्मा इसकी प्रतिष्ठा है। विष्णु पालक-पोषक प्राण है तथा इन्द्र विक्षेपण करता है। विसर्जन करने वाला प्राण है। हृदय ही आत्मा अथवा श्वोवसीयस मन (अव्यय मन) का स्थान है। हृदय का स्थिति-गति-आगति स्वरूप ही उक्थ-अर्क व अशिति भी कहा जाता है। उक्थ-केन्द्र, अर्क-रश्मियां तथा अशिति बाहर से लाया जाने वाला अन्न है। यह त्रिक् वेद विज्ञान में अशनाया बल कहलाता है।

मन स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर के मध्य विचरण करता है। यह भी उसकी चंचलता का एक कारण है। गीता में चंचलता को रोकने के दो मुख्य मार्ग बताए हैं-अभ्यास और वैराग्य (16/35)। बाहरी विषयों में जहां अभ्यास की निरन्तरता चाहिए, वहीं भीतरी विषयों (आनन्द और विज्ञान) के लिए वैराग्य भी अनिवार्य हो जाता है। भीतर जाने का अर्थ है-हृदय की ओर गतिमान होना। हृदय ही प्रत्येक जड़-चेतन के जीवन का नियन्ता है और सबके केन्द्र में एक ही भाव में कार्य करता है। यह हृदय हमारे शरीर के अवयव हृदय (Heart) से भिन्न है-सूक्ष्म और प्राण रूप है। अव्यय मन का केन्द्र होते हुए, उसका अंगीभूत बना रहता है। हृदय ही अग्नि-सोम के संयोग से सृष्टि निर्माण को गति देता है। हृदय की शक्ति ही दुर्गा कहलाती है जो तीनों प्राण रूप देवों की शक्तियों (महासरस्वती-महालक्ष्मी-महाकाली) का ही संयुक्त रूप है।

भक्ति में ज्ञान है, श्रद्धा है, समर्पण है, वैराग्य है। मन में पैदा होती है और भीतर हृदय की ओर बढ़ती है। भक्ति कर्म भी है, ज्ञान भी है। ईश्वर का हृदय भी उन्हीं तीन अक्षर प्राणों से बना है, भक्त का हृदय भी ठीक वैसा ही है। किन्तु पहचान नहीं होती। यहां गुरु की भूमिका स्पष्ट होती है। उसके हृदय में भी वही तीनों अक्षर प्राण हैं। पहले गुरु अपने हृदय को शिष्य के हृदय से जोड़ता है। अभ्यास और वैराग्य भाव ही माध्यम होते हैं। गुरु के प्रति भक्ति, श्रद्धा और समर्पण का अभ्यास बढ़ता जाता है। गुरु ही ईश्वर और भक्त के हृदय-स्थलों को मिलाते हैं। भीतर में तीनों के हृदय समान ही हैं। अभ्यास के माध्यम से गुरु मन का निग्रह करना- कामना से मुक्त होना सिखा देता है। मन हृदय का अंग बन जाता है। तीनों के हृदय एक साथ स्पन्दित जान पड़ते हैं। आनन्द की यही उच्च अवस्था है। अमन हो जाना! अ-मन!

क्रमश:

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