अशनाया बल के तीन रूप दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक वस्तु रसबल का युगल भाव है। बल, शुद्ध बल नहीं रहता, रसयुक्त बल ही होता है। यही बल अशनाया के कारण अपना अन्न लेने को उठता है। अन्न की खोज में बल बाहर निकला, यह गतिमान स्वरूप ‘अर्क’ कहा जाता है।
जो तत्त्व बाहर से भीतर लाया जाता है, वही अन्न है। बाहर जाना गति, वापस भीतर लौटकर अन्न की कमी पूरी करना आगति तथा अन्न पाकर पुन: अपने स्वरूप में आ जाना ही स्थिति है। इसी को आकर्षण-विकर्षण प्रक्रिया कहते हैं। मन में केन्द्रित रस रूप पुरुष के बलों का द्वन्द्वात्मक संघर्ष ही गतिमान तत्त्व-अक्षर पुरुष है।
अक्षर पुुरुष प्राण और क्रिया प्रधान है। इसकी पांच कलाएं-ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि-सोम हैं। ये पांचों ही ईश्वर कहे गए हैं। परिधि के भीतरी तत्व को बाहर फैंकने वाली शक्ति का नाम इन्द्र है। इसकी पूर्ति के लिए बाहर से तत्व लाने वाली शक्ति का नाम विष्णु (पालक) है।
आदान-प्रदान की क्रिया के चलते वस्तु को स्थिर दिखाने वाली शक्ति ब्रह्मा है। स्थिरता बनाए रखने के कारण ब्रह्मा को सबका उत्पादक कहा जाता है। तीनों प्राण केन्द्र में रहने के कारण हृद् प्राण या नभ्य प्राण कहे जाते हैं। ब्रह्मा द्वारा केन्द्र से फैंके गए रस का बाहर भी एक पृष्ठ बन जाता है।
इस पृष्ठ पर बाहर जाने वाला तथा भीतर आने वाला, दोनों तत्त्व रहते हैं। इनको क्रमश: अग्नि और सोम कहते हैं। इन दोनों को पृष्ठ्य कलाएं कहा जाता है। ये दोनों कलाएं अव्यय पुरुष की प्राण और वाक् कलाओं से विकसित होती हैं। अग्नि और सोम का विकास बाहर फैंकने के कारण ही हुआ। यह कार्य इन्द्र प्राण द्वारा सम्पन्न होता है, अत: अग्नि-सोम-इन्द्र तीनों का एक स्वरूप माना जाता है, जिसे महेश्वर कहा जाता है। यही त्रिनेत्र-सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी कहा जाता है।
सूर्य प्रजापति का आधा भाग अमृत तथा आधा मृत्यु रूप होता है। अर्थात् वह अपने आधे भाग को सुरक्षित रखते हुए शेष आधे भाग से भूतों की (विश्व की) उत्पत्ति करता है। यही क्षर पुरुष कहलाता है। अक्षर की सहायता से क्षर पुुरुष की भी पांच कलाएं हो जाती हैं-प्राण, आप्, वाक्, अन्नाद, अन्न। प्राण (ऋषि) से आप् की उत्पत्ति होती है।
आगे इन कलाओं का आध्यात्मिक, आधिदेविक, आधिभौतिक रूप में विकास हो जाता है। सबके उत्पादक तत्त्व अधिदेव हैं। इनसे ही आध्यात्मिक तथा आधिभौतिक धाराओं का विकास होता है। शरीर का बाह्य-भीतर विकास अध्यात्म कहलाता है। ब्रह्माण्ड में जड़-चेतन समस्त तत्त्वों को उत्पन्न करने वाले पांचों पिण्ड (स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी) आधिभौतिक हैं।
आधिभौतिक रूप में पांचों पिण्डों के संयोग से प्राण शरीर की पांच कलाओं का विकास होता है-बीज-चिति (कारण शरीर), देव चिति (सूक्ष्म शरीर), भूतचिति (स्थूल शरीर), प्रजा (सन्तति) तथा वित्त (सम्पत्ति)। इन कलाओं का मूल क्षर पुरुष की कलाएं ही होती हैं।
अक्षर पुुरुष की कलाओं से क्षर पुरुष का विकास होने के लिए मध्य में एक नया तत्त्व भी आवश्यक है, जो कि शुक्र होता है। पुरुष-प्रकृति के योग से शुक्र उत्पन्न होता है। सम्पूर्ण विश्व प्रपंच की उत्पत्ति शुक्र से ही होती है। पुरुष तीन रूप में कार्यरत है-अव्यय, अक्षर तथा क्षर। तीनों की अपनी-अपनी शक्तियां है, अपने-अपने शुक्र भी हैं। विशेषता यह है कि अव्यय से अक्षर, अक्षर से क्षर शरीर पैदा होता है।
प्रकृति में सारे शरीर एक ही परिभाषा में आते हैं। सभी आत्माओं के केन्द्र में ब्रह्म ही है। माया ब्रह्म की शक्ति है। अत: ब्रह्म तो माया में ही रेत का आधान करता है, जो सृष्टि के केन्द्र- मह:लोक में ही उपलब्ध है। अत: पुरुषों (तीनों) के शुक्र में ब्रह्म के ही अंश कार्य करते हैं।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। (गीता 14.3)
आत्मा मन-प्राण-वाङ्मय है। तीनों अग्नि-सोम से पैदा होने वाले हैं। इनके भीतर हृदय है। इन पांचों के तारतम्य में फेरबदल होता रहता है। वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ अग्नियों के उदय से असंज्ञ, ससंज्ञ और अन्त:संज्ञ तीन प्रकार के शरीर बनते हैं।
क्षर पुुरुष की पांच कलाओं में तीन अग्नियों के (हृदय) कारण तीन ही शुक्र की आहुतियां होती हैं-तीन ही यज्ञ प्रजापति बनते हैं। एक ब्रह्म ही अक्षर-प्रकृति-ब्रह्म-शुक्र आदि भेदों से भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण किया जा रहा है। इनमें ब्रह्म के तीन प्रकार के भाव बनते हैं-अमृत, ब्रह्म और शुक्र।
अमृत चार प्रकार का होता है-परात्पर, पर, परम और प्रकृति। परात्पर का शरीर नहीं होता। पर, परम तथा प्रकृति क्रमश: अव्यय, अक्षर और क्षर हैं। अक्षर पुरुष की पांच कलाओं में हृदय रूप तीन-ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र के साथ अग्नि-सोम पृष्ठ प्राण हैं।
ब्रह्मा तत्त्व के आधार पर विष्णु की स्थिति है और दोनों का आधार अग्नि-सोम है। विष्णु के बाद, ब्रह्मा के ही आधार पर इन्द्राग्नि प्राण सबका आधार बनता है। यह आत्मा के निकट है। ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र अव्यय के आनन्द-विज्ञान-मन के ही अंग रहते हैं। अग्नि-सोम की सहायता से, पृष्ठ प्राणों में, शरीर नामक तत्त्व पैदा करते हैं।
ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र तो सृष्टि में मन-प्राण-वाक् ही हैं। अव्यय कलाएं होने से तीनों ही शुक्र का कार्य करते हैं। मन दोनों ओर कार्य करता है। विष्णु आंगिरस अग्नि प्राण है। वाक् इसका शुक्र है, प्राण इसकी प्रकृति है। इन्द्र में अग्नि शुक्र है और वाक् प्रकृति है। इन्द्र ही महेश्वर है। मन में इच्छा, प्राण में इच्छा और तप तथा वाक् में इच्छा, तप और श्रम तीनों हैं। प्रकृति, विकृति, पुर और परिग्रह, इन सबके तारतम्य से सारे शरीर का आत्मा भिन्न हो जाता है-जीव और ईश्वर का भी।
पांच अक्षर पुरुषों की समान नाम वाली क्षर आत्मा में ब्रह्मा प्राण रूप में सबकी प्रतिष्ठा बनता है। विष्णु आप: हैं, जो यज्ञ रूप है। इन्द्र वाक् बनता है। सोम पशु (अन्न) है, ऋत रूप है। अग्नि गतिमान अन्नाद है।
इसी प्राण, आप:, वाक्, अन्न और अन्नाद रूप में ब्रह्म के पंाच मुंह कहे गए हैं। ये पांचों ही मन-प्राण-वाङ्मय हैं। इनका अधिपति सारी सृष्टि को अपने भीतर करने के लिए शुक्र का परिग्रह करता है तथा सम्पूर्ण सृष्टि करता है।
क्रमश:
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