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ध्वनि हमारी माता

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – ध्वनि हमारी माता

Aug 26, 2023 / 01:03 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : ध्वनि हमारी माता

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: सात लोकों की सृष्टि में पांचवा लोक है-जन:लोक। इसको गो (विद्युत) लोक भी कहते हैं, पितर लोक भी कहते हैं और परमेष्ठी लोक भी कहते हैं। आगे तप: और सत्यम् लोक हैं। सत्यम् ब्रह्मा का, ऋषि प्राणों का लोक है। चूंकि यहां केवल अग्नि प्राण है, अत: बिना सोम के यहां सृष्टि नहीं होती। तप: लोक में इन प्राणों के द्रवण भाव से परमेष्ठी का ‘अप्’ या ‘आप:’ तत्त्व पैदा होता है। स्वयंभू (अग्नि) आप: के साथ ब्रह्माण्ड का निर्माण करता है। आप: ही स्वयंभू का स्त्री भाग होता है। इस आप: में क्षार और मधुर दो रस उत्पन्न होते हैं।


मधुर रस आप: का स्वरूप धर्म (अपना स्वयं का है) और क्षार रस आश्रित धर्म (दूसरे का सहारा लेने वाला) है। इनमें क्षार तत्त्व अंगिरा रूप और मधुर तत्त्व भृगुरूप हो जाता है। भृगु-अंगिरा प्राण ही आगे चलकर अर्थवाक् (लक्ष्मी) और शब्दवाक् (सरस्वती) रूप सृष्टि का विस्तार करते हैं। सृष्टि में दोनों साथ चलते हैं, एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं, नष्ट नहीं होते। विज्ञान में इन्हीं को मैटर-एनर्जी कहा जाता है। इन्हीं से पंचमहाभूतों का निर्माण होता है, जिसमें सर्वप्रथम आकाश का प्रादुर्भाव होता है। भूतसृष्टि लक्ष्मी (अर्थ) है, आकाश का गुण सरस्वती (नाद) है। आगे के चारों महाभूतों में नाद-शब्द-स्पन्दन प्रतिष्ठित रहते हैं। नाद पिता रूप होता है, भूत (पृथ्वी) माता है।

विज्ञान कहता है कि प्रकाश सीधी रेखा में प्रसारित होता है। जल नीचे की ओर प्रवाहित होता है, अग्नि ऊपर की ओर उठता है, वायु तिर्यक् या तिरछा बहता है। जल में कंकर फैंकें तो तरंगे वृत्ताकार चलती हैं। यही भूत में ऊर्जा का प्रभाव है। ध्वनि के स्पन्दन सदा वर्तुल (गोल) प्रवाहमान होते हैं। चारों महाभूत ध्वनि को ग्रहण कर सकते हैं। अत: ध्वनि की तरंगों को कोई महाभूत रोक नहीं पाता।

ये आकाश में व्याप्त हो जाती हैं, वहींं से निकलती हैं। तब प्रार्थना-मंत्र हो या अपशब्द, उनकी यात्रा को कौन रोक सकता है? देवता सभी अग्नि रूप हैं। अग्नि से ही जल बनता है। आकाश का नाद वायु से शब्द बनता है। शब्द जल में व्याप्त होता जाता है, अग्नि में व्याप्त होता जाता है। शरीर का निर्माण पृथ्वी द्वारा होता है। जल से पृथ्वी (शरीर) बनता है। यह सारा ब्रह्माण्ड एक परिवार ही है। कोई किसी से अलग नहीं है-सभी 84 लाख योनियां मिलकर ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का रूप बनता है।


हम यज्ञ करते हैं। अग्नि प्रज्वलित होती है अरणी-मन्थन से। यह अग्नि शुक्राग्नि है, योनि रूप है। इसमें अभिमंत्रित सोम की आहुति होती है। मंत्रों के स्पन्दन अग्नि में समाहित होकर वांछित देव-तत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं। मंत्र बीज होते हैं, वैसा ही फल प्राप्त हो जाता है। दूसरी ओर मंत्र ध्वनि का जल से भी वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा कि अग्नि से था। ध्वनि जल में समाहित हो जाती है। मंत्रों के साथ आचमन करते हैं, तब यह ध्वनि वैश्वानर अग्नि में आहूत होकर मन का संकल्प बनती है। सूर्य को अघ्र्य अर्पण करते हैं, तब किरणों के द्वारा सूर्य से जुड़ जाती है। किरणों का एक काम पृथ्वी के जल को ऊपर ले जाना भी है। सूर्य किरणों में जो झिलमिल दिखाई पड़ती है, वह जल के कारण है, मरीचि कहलाती है। जल में समाहित ध्वनि-मंत्र देवता को पहुंच जाते हैं। हमारे मन के भाव हमारे आत्मा (सूर्य) से एकाकार हो जाते हैं। कैसा विज्ञान है यह!

यह सिद्धान्त स्पष्ट है कि ध्वनि तरंगों को कोई बाधा रोक नहीं पाती। ध्वनि चारों महाभूतों को प्रभावित करती है। ध्वनि का आधार प्राण-स्पन्दन है, मन के भाव हैं। यहीं से कामना-भावना-वासना का रूप तय होता है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा गया है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो:।’

हमारे मन का संचालन एक ओर प्रकृति करती है, जो इसे संसार से जोड़कर रखती है, दूसरी ओर आत्मारूपी श्वोवसीयस मन (अव्यय पुरुष का मन) उसे मोक्ष की ओर आकर्षित करता रहता है। प्रारब्ध, प्रयास, उत्कंठा निर्णायक होते हैं। प्राणों की दिशा बदलना केवल मन के हाथ में है, क्योंकि प्राण केवल मन का ही अनुसरण करते हैं। मन चंचल है, भटकता है-अटकता है। प्राण क्या करे! कृष्ण कहते हैं अभ्यास और वैराग्य से मन को साधा जाता है। पटु बनाया जाता है। यहां प्राणायाम की सहायता भी मन को शान्त करने में सहायक हो सकती है। उससे भी पहले मन का संकल्प आवश्यक है।

प्राणायाम का अभ्यास न हो तो शब्द-ब्रह्म का सहारा ले सकते हैं। इसका रास्ता है-जप-किसी भी मंत्र का, ú का या अपने इष्ट का। ध्वनि का उच्चारण भी नाभि से, वायु के धक्के से उठता है। पहले बोलकर (वाचिक), फिर धीरे-धीरे कण्ठ में गुनगुनाकर (उपांशु) और अन्त में नाभि स्थल पर (मानस) जप होता है। निर्णायक मोड़ मानस जप ही है। मन शान्त, एकाग्र एवं ऊध्र्वगामी होने को तैयार होता है।

जो कुछ ध्वनि मेरे मुख से निकलेगी, वह आसपास के वातावरण, जड़, प्राणी, प्रत्येक शरीर से गुजरेगी। उन सब शरीरों के अग्नि, जल, वायु आदि को प्रभावित करेगी। वही ध्वनि सबसे पहले मेरे शरीर की धातुओं को प्रभावित करेगी, बाद में बाहर के पदार्थों को करेगी। मंत्र-जाप एक पवित्र ध्वनि है, मेरे रक्त-मांस-श्वास आदि को पवित्र-परिष्कृत करेगी। उन्हें निरोग करेगी। निर्मल करेगी। वैसे दैनिक जीवन में जितनी ध्वनियां हमारे शरीर में उठती हैं, उनमें अधिकांश ध्वनियां तामसिक होती हैं।

हल्की भाषा, मनोरंजन, सिनेमा, फूहड़ संगीत, गाली-गलौच, लड़ाई-झगड़ा तक सम्मिलित रहते हैं। ये मेरे शरीर की अग्नि में आहूत होकर मेरी धातुओं को रोगग्रस्त करते हैं। मेरे विचारों की ध्वनि तरंगें अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के रसायन बदलती हैं, रक्त में सारा रसायन भाग ही मेरे सप्त धातुओं के स्वरूप को बदलने का कार्य करता है। यदि मैं सो रहा हूं और ऐसी ध्वनियां आसपास हो रही हैं, तो वे भी मेरे शरीर से गुजरती हैं। मुझे रोगग्रस्त करने का कारण बनती हैं। क्योंकि ध्वनि के लिए कोई अवरोध नहीं होता।

शब्द-मंत्र-ध्वनि ही संगीत चिकित्सा का मूल आधार हैं। हमारा शरीर ध्वनि से बना है। पृथ्वी के सभी तत्त्व, पृथ्वी भी ध्वनि सहित पंच महाभूतों से बनती है। इसीलिए शब्द को ब्रह्म कहा जाता है। शब्द मन से, इच्छा से, भावना से निकलता है। मन चन्द्रमा से, अन्न से, जलादि से जुड़ा है। अत: मन का निर्माण ही शब्द के स्वरूप का नियन्ता है। जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। अन्न को भी ब्रह्म ही कहा है।

यह है भारतीय दृष्टिकोण का मूल-वसुधैव कुटुम्बकम्। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के तत्त्व एक-दूसरे के अंग भी हैं और पूरक भी हैं। क्योंकि सभी के निर्माण का आधार शब्द-ध्वनि-स्पन्दन ही है। इसीलिए एक-दूजे के शरीर को भी हमारा आत्मा स्वीकार कर लेता है। आत्मा तो सभी में परमात्मा का अंश है-‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। (गीता 15.7)। हम कह सकते हैं कि शब्द ही ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में ब्रह्माण्ड को पिरोये हुए है। शब्द से बाहर कुछ भी नहीं है।

पृथ्वी और सूर्य के मध्य 33 देवता होते हैं। अग्नि-सोम के अनुपात, भिन्न-भिन्न प्राणों के सम्मिश्रण से ही देवताओं का स्वरूप बनता है। यही 33 देवता मिलकर अग्नि कहलाते हैं। हमारे शरीरों का संचालन करते हैं। शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। जठराग्नि रूप में अन्न का पाचन करते हैं। एक-दूसरे को पुष्ट करते हैं। शब्दब्रह्म ही इस प्रक्रिया का उपादान कारण बनता है। वही निर्माण करता है, पालन भी करता है। शरीर अर्थब्रह्म है, जो शब्दब्रह्म पर ही टिका हुआ है। मानस जप का ही अगला पड़ाव शब्द की लीनता बन जाती है। शब्द आत्मा में लीन हो जाता है, आत्मा रह जाता है।

क्रमश:

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