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नारी सौम्या, स्त्री (योषा) आग्नेय है

‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – नारी सौम्या, स्त्री (योषा) आग्नेय है।

Jul 22, 2023 / 08:37 pm

Gulab Kothari

‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’: नारी सौम्या, स्त्री (योषा) आग्नेय है

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: जिस प्रकार वेद में ब्रह्माण्ड का केन्द्र ब्रह्म है-अद्वय है, उसी प्रकार वेद के नेत्र कहे जाने वाले ज्योतिष में भी इस बात पुष्टि होती है कि कुण्डली कालपुरुष की ही बनती है। क्योंकि वहां स्त्री की अवधारणा नहीं है। वेद भी कहते हैं कि सृष्टि विस्तार के लिए ब्रह्म ही स्त्री तत्व को पैदा करता है। सृष्टि पूर्व में सब कुछ ऋत था। अग्नि ऋत भाव में ऊपर उठकर सोम बनता है और सोम ऋत भाव में नीचे गिरता हुआ अग्नि बनता है। मार्ग में दोनों की युति होती है, मातरिश्वा वायु ग्रन्थिबन्धन करता है। सोम अग्नि में समा जाता है, अग्नि (सत्य) शेष रहता है, यही ब्रह्म रूप अग्नि है, सोम इसमें आहूत होता है।


ब्रह्म प्राण है। प्राणों का स्पन्दन ही प्रसार-संकुचन है। प्रसार अग्नि है-संकोच सोम है। यही परात्पर रूप है। अग्नि सत्य है-सोम ऋत है। ऋत का चूंकि कोई स्वरूप नहीं होता, अत: ब्रह्माण्ड में केवल ब्रह्म की ही सत्ता मानी जाती है। यहां ब्रह्माग्नि इन्द्र रूप है। ब्रह्मा केन्द्र में है। विष्णु अन्न लाता है, अग्नि में आहूत होता है। यही ब्रह्म सत्ता का हृदय है।

चूंकि परात्पर सत्य केन्द्र है, अत: हृदय परात्पर का अक्षर केन्द्र है। ब्रह्म के स्वरूप को बनाए रखता है। जब परात्पर का हृदय कार्यरत रहता है, तब वही अव्यय पुरुष कहलाने लगता है। इन्द्र और विष्णु ही केन्द्र और परिधि का निर्माण करते हैं। माया ब्रह्म की यह इच्छा मात्र है कि मैं अपना विस्तार करूं। माया में भी क्रिया भाव नहीं रहता।

सृष्टि का पहला निर्माण ‘अव्यय पुरुष’ रूप में हुआ। स्वयं अग्नि ही सोम बनकर अग्नि में आहूत हुआ। सृष्टि में केवल ब्रह्म ही था। अग्नि में आहूत द्रव्य काम आ जाता है। शेष तो अग्नि ही रहता है। अत: नश्वर शरीर में बसने वाला अमृत तत्व ही अग्नि/प्राण है। जो ब्रह्म या प्रजापति केन्द्र में है, वह अव्यक्त या गुह्य है। वही अग्नि है, वही क: प्रजापति है। अग्नि को देखते ही सोम दौड़ता है।

अग्निर्जागार तमृच: कामयन्ते अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योका ॥

(ऋ. ५.४४.१५)

बाहर जाने वाला अग्नि इन्द्र है। उसको सोम प्रिय है। अग्नि सोम की आहुति से ही प्रज्ज्वलित होता है, शक्तिमान होता है। इसीलिए प्रिय है। सोम न मिले तो अग्नि मन्द पड़ जाता है। अग्नि-सोम ही यज्ञ का आधार है। यज्ञ से ही सृष्टि का निर्माण है। मानव संस्था में पुरुष-अग्नि है, स्त्री सोम है। दोनों अद्र्धनारीश्वर हैं। पुरुष भीतर नारी है, स्त्री भीतर पुरुष है। अग्नि-सोम को समझने की दृष्टि कुछ अधिक होनी चाहिए। जहां आकृतियां ही नहीं होती-जैसे अन्तरिक्ष में-वहां अग्नि-सोम का व्यवहार मूल तो प्रज्ञावान ही समझ सकता है। हमको तो ऋषियों के मत को स्वीकार करना पड़ता है-स्मृति रूप में।

ऋग्वेद का नवां मण्डल सोम की चर्चा करता है। सोम को कैसे कूटा-पीसा-खींचा जाता है। क्या प्रशस्ति गान किया जाता है। सारे जगत का निर्माता है, सर्वदाता कहलाता है। यह वर्णन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि स्वयंभू लोक से भू-लोक तक के निर्माण में एक यही यज्ञ चलता है। सोम का अधिष्ठाता विष्णु प्राण होने से जनक है-पोषक है-यज्ञ है।

उपनिषदों में जीव की इस यात्रा को पंचाग्नि का सिद्धान्त कहा गया है। यह सिद्धान्त भी इस बात का प्रमाण है कि सोम ही सृष्टि का एकमात्र बीज है, ब्रह्म अग्नि प्राण है। चूंकि ब्रह्म अकेला है, उसके साथ कोई स्त्री निर्माण-यज्ञ के लिए नहीं है, अत: जहां भी ब्रह्म सृष्टि को आगे बढ़ाने को प्रेरित होता है, उसी लोक के अनुरूप उसे एक स्त्री पैदा करनी पड़ती है।

प्रश्न उठ सकता है कि जब सोम उपस्थित है और अग्नि में आहूत हो रहा है, तब क्या वह स्त्री नहीं है? नहीं! वह स्त्री नहीं है। सोम और स्त्री एक नहीं हैं, विरोधी तत्व हैं। प्रजनन में सोम आहूत होता है। स्त्री सोम को ग्रहण करती है, अग्नि है। अर्थात्-नारी बाहर सौम्या है, भीतर नर (अग्नि) है। सौम्या की आहुति पुरुष में हो गई। अप् शुक्र की आहुति रज में होनी है। अरणीमन्थन से गर्भाशय के शोणित में जो यज्ञाग्नि उत्पन्न होती है, वह रजोग्नि भी कही जाती है। यही अग्नि स्त्री तत्त्व है।

इसी में शुक्र (सोम) की आहुति होती है। सभी 84 लाख योनियों में यही सिद्धान्त लागू होता है। अमूर्त अथवा अदृश्य सृष्टि में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। इसका एक अर्थ यह भी है कि सृष्टि में स्त्री सत्ता उपलब्ध ही नहीं है। हर योनि में ब्रह्म तो वही है। ब्रह्म ही मादा में अपनी स्त्री पैदा करता है। गर्भाधान के आगे का कार्य मादा के गर्भाशय में होता है। इसका एक प्रमाण यह भी मिलता है कि ज्योतिष में भी कालपुरुष की कुण्डली बनती है। उसका सातवां स्थान मादा का माना जाता है।

विद्या-कर्मात्मक अव्यय पुरुष का विकास गति-स्थिति रूप यजु: तत्व में होता है। यही प्राणाग्नि है-पुरुष है। इसके वाक् भाग से तो अप् तत्व उत्पन्न हुआ है। अव्यय पुरुष की पांच कलाएं होती हैं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्। कहा है-‘सोऽपोऽसजृत वाच एव लोकात्, वागेव सासृज्यत्’ (शतपथ ६.१.१.९)। वाक् से उत्पन्न तत्व योषा है, स्त्री है। जहां रस का आगमन होता है, वह स्त्री है। रस प्रदाता पुरुष है। रसाहुति को संहत करने वाला तत्व स्त्री है। अग्नि पानी में मिल जाता है, किन्तु पानी कभी अग्नि में नहीं मिलता।

अप् तत्व भृगु (स्नेह) तथा अंगिरा (तेज) की समष्टि है। ‘तत् सृष्टवा तदेवानु प्राविशत्।’ सिद्धान्त के अनुसार अव्यक्तात्मा (ऋक्-यजु: साम रूप) वाक् भाग से अप् तत्व को उत्पन्न कर उसके गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है। यही अप्-विज्ञान है-

आपो भृग्वङ्गिरोरूपमापो भृग्वङ्गिरोमयम्।
अन्तरैते त्रयो वेदा भृगूनङ्गिरसोऽनुगा:॥
(गो पू. १.३९)।

अंगिरा का धर्म विशकलन (खण्डन) करना है। वह उत्तरोत्तर केन्द्र से परिधि की ओर सूक्ष्म रूप में परिणत होता हुआ जाता है। स्नेह रूप भृगु स्थिति रूप होता हुआ उत्तरोत्तर प्राधि (परिधि) से केन्द्र की ओर जाता हुआ संकुचित होता जाता है। अत: यह अप् तत्व गति-स्थिति रूप यजु: ही है। परात्पर को यहां कालपुरुष कहा है।

भू-पिण्ड पर नर-मादा सत्यअग्नि-सत्यसोम रूप होते हैं। इनसे सृष्टि नहीं होती। सृष्टि होती है ऋताग्नि-सोम से। इन दोनों के संयोग से ‘ऋतु’ पैदा होती है। बोलचाल में वर्षभर में छह ऋतुएं मानी जाती हैं। यज्ञ विज्ञान में ‘पांक्तो वै यज्ञ:’ के अनुसार पांच ऋतुएं ही मानी गई हैं। हेमंत-शिशिर को एक मान लिया गया है। ऋतुओं की परिभाषा का आधार अग्नि है, सोम नहीं है।

‘यस्मिन् काले अग्निकणा: पदार्थेषु वसन्तो-निवसन्तो भवन्ति, स काल: वसन्त:’।
(संदर्भ-सां.व्या. पंचक-पं. मो. ला. शास्त्री)।

सोम रूप शीतलता अपने चरम पर पहुंचकर अग्नि में बदलने लगती है। अग्निकण शीतल सोम पर बरसने लगते हैं। यही बसन्त ऋतु है। आगे अग्नि का बल बढ़ता है। ‘यस्मिन् काले अग्निकणा: पदार्थान् गृह्णन्ति, स काल: ग्रीष्म:।’ अग्नि और प्रवृत्त, प्रवृद्ध हुआ। जलन का अनुभव होने लगा-‘नितरां दहत्यग्नि: पदार्थान्।’ बन गया। इस चरम अवस्था से अग्नि का विकास अब संकुचित होने लगता है। इसी को ‘वर्षा’ ऋतु कहा है।

पानी बरसने से शीत का प्रभाव ‘वर्षा’ ऋतु से जुड़ जाता है। इस ऋतु में सब ऋतुओं का भोग कहा है। अत: वर्षा को सम्वत्सर कहा गया है। वर्षा से ही अन्न पैदा होता है। जीवन का आधार ‘वर्षा’ ही है। अत: सम्वत्सर को ‘वर्ष’ भी कहते हैं।

वर्षा के बाद अग्निकण मन्द पडऩे लगते हैं। ‘यस्मिन् काले-अग्निकणा: शीर्णाभवन्ति, स काल:’ ही शरत्। अग्नि और हीन बना-सर्दी बढ़ी। ‘यस्मिन् काले अग्निकणा: हीनतां गता भवन्ति, स काल:’ ही हेमन्त। जब अग्निकण सर्वथा हीन हो गए, सोम का वर्चस्व हो गया, यही काल ‘पुन: पुनरतिशयेन शीर्णा:-अग्निकणा: स काल:’ शिशिर।

सिद्धान्त रूप में तो अग्नि की चरम विकास अवस्था ही सोम में बदलती है, सोम की चरम संकोच अवस्था ही अग्नि में बदलती है। किन्तु ऋतुओं का आधार अग्नि का चढ़ाव-उतार ही माना गया है। सोम का अग्नि में समा जाना ही अद्र्धनारीश्वर भाव है।

क्रमश:

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