यह स्थिति वैराग्यबुद्धियोग की है। ज्ञान, कर्म और भक्ति योग क्रमश: बुद्धि, शरीर तथा मन के परिप्रेक्ष्य में हैं। ये तीनों ही त्रिगुण से आवृत संस्थाएं हैं। इनसे बाहर निकलकर कर्म करने की आवश्यकता कही गई है।
अक्षर को कारण कहा है, जो कि प्राणों का क्षेत्र है, यहां तैंतीस देव प्राण तथा निन्यानवे असुर प्राण होते हैं। ये सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करते हैं। ये ही हृदय के कार्यों को, अर्थ और शब्द वाक् को प्रभावित करते हैं। अक्षर की सोम-अग्नि कला ही अन्न और अन्नाद बनती हैं। स्थूल विश्व का संचालन करती है। इन कर्मों के फल से प्रारब्ध का निर्माण होता है। प्रारब्ध ही नए जन्म का कारक बनता है।
वेद प्रजापति (षोडशी) कामना द्वारा अपने वेद के वाक् भाग से सर्वप्रथम आप: उत्पन्न करता है। इस आप: तत्व मेें महामाया बल कोश से पांच बल- जाया, धारा, आप:, जीवन, ऋत पैदा हुए। आप: उत्पन्न कर षोडशी प्रजापति इस आपोमण्डल के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है, मकड़ी की तरह। प्रजापति की कामना (एकोऽहं बहुस्याम्) से इस आप: में धृति बल (धाराबल) पैदा हो जाता है। कामना से आप: में प्रजनन शक्ति आ जाती है। उत्पत्ति का कारण- शुक्र तत्व- पानी से ही रूपान्तरित होता है।
शरीर पूर्व के सारे धातु (पृथ्वी) पानी से बनते हैं। पानी ही औषधि बनता है- शुक्र बनता है। प्रजा सृष्टि के कारण इस बल को जाया बल कहा जाता है। जाया रूप आप: मातरिश्वा की प्रेरणा से प्रजनन धर्मा है। स्त्री स्वयं जाया है। सौम्या है। अग्नि पुरुष है। वही इस जायाभाव से वेष्टित गर्भगत शोणित है। स्त्री के गर्भाशय का शोणित साक्षात अग्नि है। यह जायाभाव से सदा वेष्टित है।
पुरुष शुक्र सोममय जाया है। शुक्र में रहने वाली गर्मी पुरुष है। आत्मा सर्वप्रथम पुरुष शरीर में शुक्र वेष्टित इसी जाया में गर्भ धारण करता है। जीव का यह प्रथम जन्म है। पुरुष के सर्वांग शरीर का शुक्र-पुरुषाकार सहित- शोणित में आहूत होता है।
शरीर के जिस प्रदेश का शुक्र आहूत नहीं होता, उसकी कमी उत्पन्न प्रजा (सन्तान) में रह जाती है। शुक्र द्वारा जीव का माता के गर्भ में प्रविष्ट होना इसका दूसरा जन्म है। दस मास बाद स्थूल शरीर का प्रसव तीसरा जन्म है। संस्कारों द्वारा पवित्र होना चौथा जन्म है।
संतानोत्पत्ति शुक्र की आहुति से होती है। भृगु तत्व की अप्-वायु-सोम तीन अवस्थाएँ होती हैं। शुक्र में जो घनता है वह अप् का भाग है, शर्करा भाग सोम है, गति भाव वायु है। शर्करा प्रधान शुक्र को कवि कहा है।
सोम ही अग्नि की ओर जाता है। कन्योत्पादक (स्त्रीभू्रण) शोणित भ्रूण का सम्यक् ज्ञाता शुक्रभू्रण ही है। स्त्रीरूप देने वाला स्त्रीभ्रूण आग्नेय शोणित में तथा पुरुष रूप देने वाला पुंभ्रूण सौम्यशुक्र में रहता है। पुुरुष पिता का पुत्र श्ुाक्र है- जो कि पुंभ्रूण का उत्पादक बनता है। शुक्राहुति देने वाला पिता, माता के गर्भ से स्वयं जन्म लेता है।
”जायते पिता स्वयं अस्यां”। एक ओर वह पुंभ्रूण है, दूसरी ओर पिता है। बीच में पुंभ्रूण का अधिष्ठाता शुक्र है। यदि वह पुत्र न होता तो पुंभ्रूण कभी सन्तान रूप में नहीं आ पाता। रेतोधा पिता जाया रूप में जन्म नहीं ले सकता। उसको पिता का भी पिता कहा गया है।
उत्पत्ति कर्म में रेत-रेतोधा-योनि तीन भावों का समावेश है। रेत-योनि स्थिर है, रेतोधा गतिशील है। अधिदेव में मातरिश्वा है, अध्यात्म में ”एवयामरुत” कहलाता है। योषा प्राण प्रधान स्त्री का अग्निमय शोणित योनि है। वृषा प्राण प्रधान पुरुष का सोम शुक्र रेत है।
यही सुब्रह्म है, अप्तत्व है। योनि अग्नि है, आहुति स्थान है। ब्रह्म है। ब्रह्म में सुब्रह्म की आहुति होती है। आहुति देने वाला वायु मातरिश्वा है। वायु शुक्र के चारों ओर वेष्टित होकर ही शुक्र की आहुति देता है। सोम प्रधान शुक्र स्त्री रूप बनता हुआ ‘माता’ है।
वायु शुक्र के चारों ओर वेष्टित होकर ही शुक्र की आहुति देता है। मातरि शुक्रे श्वयति व्याप्तो भवति इस व्युत्पत्ति से शुक्र आधान करने वाला इस रेतोधा वायु को मातरिश्वा कहते हैं। रेत अपने आप योनि में सिक्त नहीं होता, वायु द्वारा होता है। मिथुन भाव से अग्नि प्रबल होता है। इससे वायु वाहिनी नाडिय़ों में भरा हुआ वायु स्थान च्युत होकर अग्नि से सन्तप्त शुक्र को, अपने स्थान से च्युत कर देता है। वायु के आघात से गतिमान होकर शुक्र शोणित में आहूत होता है।
गर्भाशय स्थित रुधिर अग्नि है, यही वेद है। माता वेदी है, वेद की प्रतिष्ठा है। शुक्र को वेष्टित करने वाला भार्गव वायु मातरिश्वा है। ये ही क्रमश: योनि, रेत, रेतोधा हैं। ब्रह्म रूप योनि में, आप: रूप रेत की, वायु रूप रेतोधा आहुति देता है। इसी से प्रजा उत्पन्न होती है।
यद्यपि यजु: ब्रह्म अग्नि रूप में पुरुष है, परन्तु विश्व प्रजा का योनि स्थानीय होने से स्त्री कहा जा सकता है। सोम रूप होने से सुब्रह्म यद्यपि स्त्री है, परन्तु शुक्र स्थानीय होने से उसे पुरुष कहा है। ब्रह्म से आप: उत्पन्न हुआ। वह त्रयीविद्या के साथ आप: में प्रविष्ट हो गया।
यह पहला मिथुन है। ब्रह्माग्नि रूप पुरुष सुब्रह्म रूप सोम-स्त्री पर आक्रमण कर रहा है। मातरिश्वा द्वारा वह शुक्र ब्रह्म (योनि) के साथ संयुक्त होगा। यह शुक्र-शोणित का दूसरा मिथुन है। आगे अप् तत्वगत पुंभ्रूण एवं ब्रह्म गर्भित सुब्रह्म (स्त्रीभू्रण) का मिथुन होता है। यह तीसरा मिथुन है। मिथुन भाव सम्पन्न होकर तत्काल विराट् पुरुष गर्भ में आ जाता है।
ब्रह्म-सुब्रह्म शुक्र है। प्रजनन प्रक्रिया में प्रयुक्त होने से दोनों को ही शुक्र कहते हैं। दोनों की रेत संज्ञा है। वही क्षर बनकर अधिभूत बनता है। अन्तर्तम प्रकोष्ठ में रहता है। वही अपनी सृष्टि विस्तार में हमको साधन बनाता है। योनियों के मध्य से गुजरता हुआ आगे बढ़ता है।
प्रकृति इसमें कारण/सहायक बनती है। यदि व्यक्ति को माया का, मोह का, आत्मा का बोध हो जाए, तब व्यक्ति अपने स्वरूप को ध्यान के माध्यम से जानने का प्रयास करता है। उसका बहिर्गमन ठहर जाता है। यही शुक्र-ब्रह्म ऊध्र्व गति करने लगता है। शुक्र का विखण्डन ही आत्मा की ओर लौटना है। शुक्र का सूक्ष्म अंश सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। सूत्रात्मा के माध्यम से विराट् से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
इसी विराट् का तदन्तर विखण्डन यज्जू (यत्-जू) ही होगा, जहां से सृष्टि बनना शुरू हुआ था। शुक्र का विकास मार्ग अवरुद्ध होकर मुक्ति साक्षी भाव, आनन्द-विज्ञान-मन ही यह लीला करता है।
क्रमश:
‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में प्रकाशित अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –