scriptमन की गति प्राण से | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand 18 November 2023 | Patrika News
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मन की गति प्राण से

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-मन की गति प्राण से

Nov 18, 2023 / 11:59 pm

Anand Mani Tripathi

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Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : प्रकृति का यह स्वाभाविक नियम है कि आत्मा सृष्टि काल में मन-प्राण से युक्त वाक् रूप शरीर को अपना अंग मानता है। इन तीनों में निहित होकर अधिष्ठित रहता है। एक के बिना अन्य की स्थिति कभी नहीं होती, इनकी सम्मिलित अवस्था का नाम ही संसार है। मन-प्राण-वाक् तीनों की समष्टि को कर्मात्मा कहा जाता है।
मन-प्राण-वाक् ही ऋक्-यजु:-साम हैं। इस तादात्म्य-सम्बन्ध के कारण त्रयीविद्या के सभी त्रिक मन-प्राण-वाक् से जुड़े हैं। उदाहरणत: वाक् यदि अग्नि से जुड़ी है तो प्राण वायु से जुड़े हैं-अयं वै प्राणो योऽयं पवते (शतपथ ब्राह्मण 5.2.4.10) तथा मन सविता से जुड़ा है-मन एव सविता (गोपथ ब्राह्मण 1.1.13)। गीता के अव्यय, अक्षर और क्षर क्रमश: मन, प्राण, वाक् हैं। जब मन की कामना गति उत्पन्न करती है तो ऊर्जा का गतिक रूप प्राप्त होता है। ऊर्जा का यह गति रूप ही सृष्टि का निर्माण करता है। इस प्राण के ही विविध रूप विविध देव हैं। प्राण के माध्यम से ही पदार्थ मन में तथा मन पदार्थ में परिणत होता है, अत: कहा जाता है कि प्राण से यज्ञ निष्पन्न होता है-प्राणै: यज्ञस्तायते (जैमिनीय ब्राह्मण 2.431)। प्राणेन यज्ञ: सन्तत: (मैत्रायणी संहिता 4.6.2)।
सृष्टि सर्जना के क्रम में परस्पर सम्मिलित मन, प्राण और वाक् पुन: अपने नवीन रूप धारण करते हैं। ये अध्यात्म, अधिदेव तथा अधिभूत कहलाते हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्य किया करते हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि सारे भूतों में निवास करने वाले जो अधिभूत हैं, सारे देवताओं में निवास करने वाले जो अधिदेव हैं और सारे संसार को यज्ञ रूप में चलाने वाला जो अधियज्ञ है, वही मैं हूं-
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। (गीता 8.4)
‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ के सिद्धान्तानुसार अधिभूत, अधिदेव और अध्यात्म में परस्पर संबंध हैं। जो अधिदेव में वायु है, वह अध्यात्म में प्राण है। अधिदेव के आदित्य ही अध्यात्म में चक्षु हैं। जो अधिदेव में दिशा है, वह अध्यात्म में श्रोत्र है। जो अधिदेव में पृथ्वी है, वह अध्यात्म में वाक् है। अधिभूत कहे जाने वाले सृष्टि के पांच पर्व स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी ही अध्यात्म में क्रमश: अव्यक्त-महान-बुद्धि-मन-शरीर कहलाते हैं।
मौलिक ब्रह्म से ये पांच यज्ञात्मा उत्पन्न होते हैं। ये पांचों आत्मा ‘क्षर’ हैं। मरणधर्मा हैं। इन पांचों का सम्बन्ध अध्यात्म जगत् में भी होता है। जो कुछ वहां है, वह सब कुछ यहां है। अविद्या, अस्मिता, रागद्वेषादि हममें अधिक हैं। उन पांचों के जो प्राण हममंे आते हैं-उनसे क्रमश: अव्यक्तात्मा, महानात्मा, विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा और भूतात्मा-इन पांच आत्माओं का स्वरूप बनता है। भूतात्मा शरीर है। प्रज्ञानात्मा सर्वेन्द्रिय नाम का इन्द्रियों का अधिष्ठाता मन है। भूतात्मा पृथ्वी है। प्रज्ञानात्मा चन्द्रमा है। विज्ञानात्मा सूर्य है। महानात्मा परमेष्ठी है। अव्यक्तात्मा स्वयंभू है।
हमारे अध्यात्म के चारों अंगों शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा में से महान् और अव्यक्त, इन दोनों का संबंध आत्मा से है। भूतात्मा पार्थिव प्राण है। इसका शरीर से संबंध है। प्रज्ञानात्मा चान्द्र प्राण का संबंध मन से है। विज्ञानात्मा सौर प्राण है। इन तीनों में पार्थिव और सौरप्राण दोनों आग्नेय हैं एवं चान्द्रप्राण सौम्य है। पार्थिव प्राण यद्यपि सूर्य से ही आते हंै फिर भी अन्तर्याम संबंध से पृथ्वी में रहने के कारण यह पृथ्वी के ही कहलाने लगते हैं। पार्थिव आग्नेय प्राण चारों ओर निकलता रहता है। पृथ्वी से निकलने वाले इसी अग्नि को ‘अंगिराग्नि’ कहते हैं। सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाला सौर अग्नि ‘सावित्राग्नि’ कहलाता है। इन दोनों प्राणों से अध्यात्म का निर्माण होता है। तीसरा है-आन्तरिक्ष्य चान्द्ररस। वह अन्न में प्रविष्ट होकर रस-मल विभाग के द्वारा शुक्ररूप में परिणत होता है। अन्न में पार्थिव आग्नेय प्राण भी है और चान्द्र सोम प्राण भी है। इसी अन्न से वीर्य बनता है। वीर्य ही अध्यात्म का उपादान है। इस वीर्य से जिस क्षर-आत्मा का स्वरूप बनता है, उसे ही ‘प्रज्ञानात्मा’ कहते हैं। यह प्रज्ञानात्मा नखाग्रभाग और केशलोमों को छोड़कर सर्वाङ्गशरीर में व्याप्त रहता है। चान्द्रसोम की प्रधानता के कारण इस प्रज्ञानात्मा में केन्द्रभाव नहीं रहता। इसी प्रज्ञान पर विज्ञान का प्रतिबिम्ब पड़ता है। विज्ञान सूर्य से आता है। सूर्य केन्द्रभाव के कारण सत्य है। अत: केन्द्र में ही यह प्रतिबिम्बित होता है।
बिना प्रज्ञानमन की सहायता के किसी भी इन्द्रिय का विषय से संबंध नहीं हो सकता। यदि चक्षुरिन्द्रिय के साथ प्रज्ञान नहीं है, तो सामने रखी हुई वस्तु भी नहीं दिखती। सम्पूर्ण इन्द्रियों में निहित रहने के कारण ‘सर्वेन्द्रियÓ कहलाता है एवं सभी विषयों के अनुभव के कारण ‘निरिन्द्रियÓ कहलाता है। क्योंकि जिसका विषय नियत होता है, वही इन्द्रिय कहलाती है। चक्षु केवल रूप का ही प्रत्यक्ष करता है। श्रोत्र शब्दमात्र का ही अनुभव करते हैं। रसना से स्वाद ही का ज्ञान होता है। परन्तु प्रज्ञान का सबके साथ संबंध है। इस अनियत भाव के कारण ही इसे ‘निरिन्द्रिय’ कहा जाता है।
प्रज्ञान (मन) की गति प्राणों पर निर्भर है। क्योंकि जब तक मन प्राणों से नहीं जुड़ता तब तक मन में होने वाली इच्छा की परिणति संभव नहीं होती। यह प्राण ही सब इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर सभी इन्द्रियों के रूप में प्रतिष्ठित हैं अर्थात् व्यावहारिक आत्मा प्राण ही है। यथार्थ में प्राण वह शक्ति है जिससे सारे अंग-प्रत्यंग और नस-नाडिय़ां निरन्तर अपना-अपना काम करते हैं। इन्द्रियां, मन तथा बुद्धि भी प्राण के आधार पर स्थित हैं। यद्यपि इन्द्रियां, मन और बुद्धि सुषुप्ति में निष्क्रिय हो जाते हैं, पर प्राण तब भी अपना कार्य करते रहते हैं। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं भी प्राण पर ही आश्रित हैं। प्राण-प्रवाह सदा बहिर्मुख रहता है।
प्राण मन की आज्ञा से ही अपना काम करता है अर्थात् ‘मन का आज्ञाकारी’ है। यही मन जब काम करते-करते थक जाता है तब विश्राम चाहता है। किन्तु प्राण कभी नहीं थकता और न कभी विश्राम चाहता है। मन का काम प्राण को प्रेरित करना है। किन्तु थका हुआ मन प्रेरित नहीं कर सकता।
प्राण चार प्रकार का माना जाता है-1. परोरजा-त्रिलोकी सृष्टि के सब पदार्थ जिसके विधारण से स्थान-स्थान पर नियत रूप से रहते हैं वह परोरजा प्राण है। 2. आग्नेय-जो प्राण खण्डित करने का स्वभाव रखता है। 3. सौम्य-जो घन करने का स्वभाव रखता है।
4. आप्य-जो प्राण रूपान्तर का स्वभाव रखता है, जैसे घास का दूध के रूप में रूपान्तरित होना।
रथ चक्र की नाभि में जैसे पहिये के अरे संयुक्त रहते हैं-उसके पर आधारित भी रहते हैं-वैसे ही इस प्राण तत्त्व में अखिल विश्व आधारित है। प्राण ही कर्म (बल) है। प्राण ही कर्ता है। प्राण ही साधन है। प्राण ही क्रिया भाव है। प्रत्यक्ष जगत् में भी प्राण ही माता है, प्राण ही पिता तथा अन्य सारे बान्धव भी तो प्राण रूप ही हैं। प्राण ही क्षर, अक्षर, अव्यय पुरुष रूप है। संसार में वास्तव में प्राण ही सत्य है, प्राण से अतिरिक्त सत्य नहीं है।
प्राण द्वारा अन्न आत्मा में धारण किया जाता है यही प्राण का प्राणत्व है। अन्न का आत्मा में धारण किया जाना ही हमारे जीवित रहने का कारण है। प्राण ही अक्षय अथवा अमृत है। प्राण ही एक देवता है। प्राण से केवल मनुष्य और पशु ही नहीं, देवता भी जीवित रहते हैं-प्राणं देवा अनु प्राणन्ति मनुष्या: पशवश्च ये। (तैत्तिरीयारण्यक 8.3.1)। प्राण में शरीर प्रतिष्ठित है। शरीर में प्राण प्रतिष्ठित है।

 

क्रमश:

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