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सृष्टि का स्पन्दन है गतितत्त्व

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-सृष्टि का स्पन्दन है गतितत्त्व

Nov 11, 2023 / 09:58 pm

Anand Mani Tripathi

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शरीर ही ब्रह्माण्ड-सृष्टि का स्पन्दन है गतितत्त्व

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : प्राण का रूप गति है, जीवन भी गति है, हर क्रिया गत्यात्मक है। इसी को ‘लॉ ऑफ मोशन’ कहते हैं। सारा ब्रह्माण्ड गति पर ही आधारित है। गति और स्थिति दो ही तत्त्व हैं। इन्हीं को क्रमश: माया और ब्रह्म कहते हैं। गति के लिए स्थिति का आधार चाहिए। गति का विपरीत लक्षण है आगति। गति-आगति-स्थिति ही गति विज्ञान है। इसको जीवन से जोड़कर कैसे देखें! ब्रह्म मेरे आत्मा (अव्यय पुरुष) का केन्द्र है। शरीर मेरी परिधि है-क्षर रूप में। अव्यय वाक् केन्द्र की परिधि है। अव्यय की पांच कलाओं (आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण-वाक्) में अन्तिम छोर पर वाक् है-यही अव्यय की परिधि है।

वैदिक भाषा सांकेतिक है। अत: एक ही संकेत के विविध अर्थ भी हो सकते हैं और विरुद्ध अर्थ भी। वेद विज्ञान का भी यही अर्थ है। विविधं, विरुद्धं, विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानम्। किसी भी शब्द के अर्थ व्याकरण के सहारे ढूंढते हैं, तब उनको अन्य योनियों पर लागू करना सहज नहीं होता। अग्नि का तापधर्मा अर्थ स्थूल भाव में भले ही सही लगता है, किन्तु हर जगह सही नहीं है। अग्नि और सोम साथ-साथ रहते हैं। न अग्नि अकेला रहता है, न ही सोम। एक स्थिति के आगे अग्नि ही सोम बन जाता है और सोम ही अग्नि। दोनों एक ही तत्त्व के रूप हैं। अग्नि में सोम की आहुति यज्ञ कहलाता है, नया निर्माण होता है। सोम काम आ जाता है, शेष अग्नि रहता है। अत: अग्नि-सोम से निर्मित यह सम्पूर्ण विश्व अग्नि रूप ही है। यह क्षर सृष्टि है। अक्षर सृष्टि के देव प्राण भी आग्नेय हैं। शब्द वाक् भी आग्नेय है। तब अग्नि शब्द को क्या ‘फायर’ लिखकर समझाया जा सकता है? ठीक यही स्थिति अन्य वैदिक शब्दों की भी है।
वेद संकेत की भाषा है। सब इन वैदिक शब्दों के अपने-अपने अर्थ लगाने को स्वतंत्र भी होते हैं। एक शब्द है गाय-गौ। इसका गति अर्थ में प्रयोग होता है। सूर्य किरणों को भी गौ कहते हैं। स्वयं गति अनेकार्थक है। गति केवल जाना ही नहीं है। गति मूलत: मन का अनुसरण करने वाला प्राण है। अत: जहां मन होगा, वहां प्राण होगा, वहां गति होगी। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म की कामना का विस्तार है, ब्रह्म के मन की गति है। सूर्य जगत का पिता है, किरणें गौ हैं, गति हैं। चन्द्रमा सोम पिण्ड है, चांदनी गति है। गौ शब्द विद्युत का वाचक भी है। अत: परमेष्ठी लोक, जहां विद्युत उत्पन्न होती है, गोलोक कहलाता है। गाय के शरीर में सर्वाधिक मात्रा में विद्युत पाई जाती है। गति शब्द को क्या ‘स्पीड’ या व्याकरण से स्पष्ट किया जा सकता है? नहीं!
गति रूप प्राणाग्नि को पिण्ड रूप में परिणत कर देने वाला तत्त्व सोम है। अग्नि सोम संवत्सर के दो अद्र्ध कटाह हैं। दोनों के दाम्पत्य से ही संवत्सर का स्वरूप बनता है। छ: ऋतुओं का समूह संवत्सर है। ऋतु निर्माण में अग्नि व सोम का परस्पर योग होता है, अत: संवत्सर को यज्ञ भी कहते हैं। यह संवत्सर सूर्य के चारों ओर भू पिण्ड के अण्डाकार में घूमने के कारण बनता है। इस अण्डाकार घूमने को ही सर्वत्सर कहा जाता है। यह सर्वत्सर ही संवत्सर होता है-‘स प्रजापति: सर्वत्सरोऽभवत्। सर्वत्सरो ह वै नामैतत्-यत् सम्वत्सर:।’-(शतपथ ब्राह्मण 11.1.6.12)। अण्डाकार घूमने का परिणाम यह है कि पृथ्वी कभी सूर्य के निकट आ जाती है, कभी सूर्य से दूर हो जाती है। इसलिए पृथ्वी पर कभी गर्मी की मात्रा अधिक होती है, कभी ठण्ड की मात्रा अधिक होती है। यदि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमे, तो सदा एक-सा ही तापमान रहे और वनस्पतियां कभी फलें-फूलें ही नहीं। एक तापमान विशेष में बीज में अंकुर आता है, दूसरे तापमान पर वह अंकुर बढ़ता है, तीसरे तापमान पर उसमें फूल आता है, पौधे पर फल पकता है। यह प्रक्रिया तापमान या ऋतु के परिवर्तन या चक्र के कारण होती है। यह ऋतु-चक्र संवत्सर-यज्ञ है जिससे प्रजा उत्पन्न होती है। इसलिए सम्वत्सर को प्रजापति भी कह दिया जाता है-‘संवत्सरो वै यज्ञ: प्रजापति:’-(शतपथ ब्राह्मण 11.1.1)। इसी दृष्टि से ऋतुओं को पितर भी कह दिया जाता है-‘पितरो वा ऋतव:’-(मैत्रायणीसंहिता 1-10-17)। ऋतुओं में अग्नि और सोम का यही क्रम है कि ये चक्रवत् एक दूसरे में परिवर्तित भी होते रहते हैं।
अग्नि-सोमात्मक संवत्सर की समस्त प्रक्रियाएं वैसी ही मानव जीवन में अभिव्यक्त हो रही हैं, अत: भूत जगत् अग्नि-सोमात्मक है। अग्नि की प्रधानता से पुरुष आग्नेय है और स्त्री सोमप्राण प्रधान सौम्या है। पुरुष के शुक्रसोम के स्त्री के शोणित अग्नि में यजन से प्रजोत्पत्ति होती है।
प्राण या देवता की शक्ति से भूतपिण्ड का निर्माण होता है। केन्द्र, व्यास, परिधि ही क्रमश: ऋक्-यजु:-साम हैं। ऋक्-यजु:-साम ही मौलिक वेद-तत्त्व हैं। इनसे सृष्टि का निर्माण होता है। यह अपौरुषेय है। ऋक् और साम-केन्द्र और परिधि मिलकर आयतन या छन्द बन जाते हैं। इसी सीमा में गतितत्त्व गति-आगति करता है। इसी प्राणन-अपानन को ”एति च प्रेति च’ कहते हैं। यही गायत्री-सावित्री का द्वन्द्व है। इस आयतन में प्राण या देवता की शक्ति से जो भूतभाग पकड़ में आता है, वही उस पिण्ड का रसतत्त्व है। उसे ही यजु: कहते हैं।
किसी भी अमूर्त रूप वस्तु को मूर्त रूप देने के लिए हृदय (अक्षर) अथवा वेदत्रयी (ऋक्-यजु:-साम) का संस्थान आवश्यक है। इसके स्पन्दन या प्राणन से ही सारे पिण्डों का निर्माण होता है। यह स्पन्दन क्रिया ही विकास का मूल है। इसी को अक्षर-त्रयीविद्या कहा है। अत: इस हृदय संस्थान को ‘हार्ट’ अर्थात् शरीर के अवयव के रूप में नहीं समझ पाते। सृष्टि पूर्व शक्ति की जो साम्य अवस्था थी, उसके किसी केन्द्र में जब कभी सृष्टि की कल्पना हुई, तब इसी प्रकार गति-आगति रूप स्पन्दन ने जन्म लिया।
विश्व का मूल कारण अग्नि या गति तत्त्व है। जिसमें अशनाया/मुमुक्षा धर्म जन्म ले लेता है, उस अग्नि को रुद्र भी कहते हैं। एक-एक बीजांकुर में यह प्राणाग्नि (केन्द्रस्थ) अशनाया द्वारा बाहर से अपने लिए अन्न लाती है। रुद्राग्नि शान्त हो जाती है। प्रक्रिया बार-बार होने से सब प्राणात्मक पिण्ड अभिवृद्धि प्राप्त करते हैं। यही अग्नि चयन है-फिर भूख-फिर अन्न। अग्नि पर अग्नि की चिति चित्या कहलाती है। अग्नि में सोम की आहुति सुत्या कहलाती है। प्रत्येक देह में दोनों प्रक्रियाएं अनिवार्य हैं। शरीर में यही प्राणाग्नि वैश्वानर है। यह तापधर्मा अग्नि ही जीवन है। अग्नि-वायु-आदित्य के समन्वय से जो प्राणशक्ति स्पन्दित होती है, वही वैश्वानर है। यह स्पन्दन/संघर्ष ही यजन कहा जाता है। वैश्वानर ही प्राण है। यह तापमयी शक्ति ही ऊष्मा है। किसी महान ऊष्मा से जन्म लेकर व्यक्तरूप में आती है। अग्नि को ही मनु कहते हैं। सृष्टि का मूल ऋषि प्राण है। ‘प्राणो वै समंचनप्रसारणम्’-(श.ब्रा. 8.1.4.10)। यही प्राण/शक्ति/गति की वैज्ञानिक परिभाषा है।
फैलना और सिमटना ही सृष्टि का मूल प्राजापत्य रूप है। शरीर में स्थित वैश्वानर अग्नि प्राण और अपान का एक संयुक्त स्पन्दन ही है। वैश्वानर के लिए (स्पन्दन के लिए) पृथ्वी और द्युलोक का द्वन्द्व अनिवार्य है। इनकी संधि अन्तरिक्ष है। पृथ्वी-द्यौ-अन्तरिक्ष तीनों प्रत्येक भौतिक पिण्ड में अवश्य रहते हैं। तीनों की अधिष्ठात्री शक्तियां इनके देवता हैं। इन्हीं को अग्नि-वायु-आदित्य कहते हैं। अग्नि ही कार्यवश तीन रूपों में प्रकट होता है। एक ही गति के गति-आगति-स्थिति तीन भेद हो जाते हैं।

 

क्रमश:

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