यज्ञ का आधार सोम है। अन्तरिक्ष में सोम व्याप्त है। औषधि/बीज में सोम व्याप्त है। सोम के कारण ही पृथ्वी में से अंकुर फूटता है। सूर्य के आकर्षण से ही पौधा बढ़ता है। सोम ही सूर्य किरणों की अग्नि का अन्न है। किरणें सोम ग्रहण करके ऊपर का आवरण छोड़ देती है। इससे पौधा बढ़ता है। अत: अन्नादि की उत्पत्ति यज्ञ से होती है। सन्तान भी यज्ञ से ही होती है। हमारी सभी कामनाएं- भोजन/वस्त्रादि यज्ञ से मिलते हैं।
यज्ञ से जड़ पदार्थ भी स्वरूप बदलते रहते हैं। मिट्टी में सोम की मात्रा को अग्नि खाता है। मिट्टी कठोर होते-होते पत्थर बन जाती है। पत्थर आगे लौह तथा अन्य धातुओं में बदलता रहता है। यज्ञ का पहला प्रयोजन है ब्रह्म का विवर्त बढ़ाते जाना। देवताओं के प्रसाद रूप में आगे बढऩा एक प्रयोजन हुआ।
दूसरा प्रयोजन देवताओं को तुष्ट करना ताकि वे हमें तुष्ट करें। अग्निहोत्रादि यज्ञ इन्द्रादि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए ही किए जाते हैं। स्थूल जगत के प्राणियों के यज्ञ का फल सूक्ष्म जगत का प्रसाद होता है। उनके प्रसाद का फल हमें मिलता है। सूक्ष्म जगत अग्नि प्रधान है।
आहूत सोम अग्नि बनकर उनकी तृप्ति करता है। तब हमें अन्नादि फल मिलते हैं। सूर्य की किरणें अंकुरादि से सोम लेकर आग्नेय देवताओं को तुष्ट करती हैं। उन्हीं देवों के कारण अन्न पककर प्राप्त होता है। सूक्ष्म-स्थूल दोनों जगत यज्ञ के द्वारा बंधे रहते हैं।
गीता कहती है (3/11) कि जो जिस देवता की भावना करता है, वही देवता भी उसकी भावना करते हैं। परस्पर भावाविष्ट होकर एक-दूजे का कल्याण करते हैं। सब देवमय हैं, भावनाएं भी देवीशक्ति सम्पन्न हैं। जैसा हम दूसरों के लिए सोचते हैं, वैसा स्वयं का भी होता है। अत: सारे कर्म देवता के उद्देश्य से करें-अच्छे ही होंगे। ब्रह्म में प्राणों का होम करें। प्राण स्थिरता प्राप्त कर लेंगे। यही ब्रह्म का रूप है। इन्द्रियां ही देवता हैं। पुष्ट होंगी, शक्तियां जाग्रत होकर वरदान देगीं।
हमारी जीवन परम्परा में हम इन ईश्वरीय निर्देशों का अक्षरश: पालन करते हैं। पूजा, उपासना, जप, सन्ध्या, विभिन्न पर्व-त्यौंहारों पर देव-पूजन, तीर्थाटन, ग्रन्थ-वाचन आदि कर्म प्राकृत भाव में भाव शुद्धि के निमित्त किए जाते हैं। अनेक कर्म फल विशेष की प्राप्ति के लिए भी किये जाते हैं। इनमें व्यष्टि/समष्टि (वर्षादि के लिए) के लिए होते हैं। इन सब कर्मों का लक्ष्य देवताओं को तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त करना ही है।
देव तत्त्व से जुडऩे के लिए भीतर के सूक्ष्म तत्त्वों को जाग्रत करना आवश्यक है। जीव में यह प्राण श्वास-प्रश्वास रूप है। इन्हीं प्राणों से इन्द्रियां कार्य करती हैं, प्राण से ही शक्ति या तेज का विकास होता है। इसी शक्ति से कर्म होता है। प्राण ही फल पैदा करने के कारण यज्ञ रूप है। फल से आनन्द पैदा होता है। यही रस है।
इसी को ‘कारणवारि’ कहा जाता है। इसी में सारी शक्तियां निहित रहती है जो भावी फल पैदा करती हैं। स्थूल में यही शुक्र है। जैसे विष्णु कारणवारि में शयन करते हैं, शुक्र में भी सभी शक्ति बीजों के साथ जीव रहता है। इसी से पृथ्वी तत्त्व जुड़ा रहता है। रस को (शुक्र) ही वर्षण के कारण पर्जन्य भी कहते हैं। पृथ्वी तत्त्व ही अन्नमय कोश है- मूलाधार है। इस पर विजय पाने पर देह से भिन्न हो जाते हैं।
हम देव बनकर ही देवता की पूजा कर सकते हैं। यज्ञ में भी यजमान को पहले देवरूप में स्थापित किया जाता है। चूंकि सारा निर्माण यज्ञ से होता है और जीव को स्थूल रूप धारण करने के लिए पांच बार यज्ञ से गुजरना पड़ता है। अत: आवश्यक है कि प्रत्येक स्तर पर यज्ञ के आरम्भ में देवता को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाए। वे हम पर प्रसन्न हों और इच्छित फल प्रदान करे।
सूर्य जगत का पिता है, सृष्टि का संचालक है। अत: नित्य प्रात: उसकी पूजा-आराधना से दिन का आरंभ होता है। विश्व कल्याण की कामना के साथ। दूसरा स्तर पर्जन्य का है। इन्द्र के कारण वर्षा होती है। वर्षाऋतु के प्रारम्भ से ही वृष्टि यज्ञ शुरू हो जाते हैं। इन्द्रदेव का आह्वान करते है। समय पर और उचित अनुपात में वृष्टि हो जाए। अथर्ववेद में पर्जन्य को पिता (वृषा) ही कहा है-
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:।
पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु।। (12.1.12)
पर्जन्य के सामथ्र्य का स्तवन कर प्रार्थना करते हैं कि चारों ओर सही मात्रा में जल वृष्टि हो, हमारे लिए और पशुओं के लिए पीने का पानी विपुल मात्रा में उपलब्ध हो।
पृथ्वी पर भी इस जल के स्वागत की तैयारी की जाती है। पृथ्वी को आहुति के लिए तैयार किया जाता है। किसान हल की, बैलों की व पृथ्वी की पूजा करता है। इन्द्रदेव से भी जमीन के इस भाग पर बरसने की प्रार्थना करता है। कृषक हल से जमीन की मिट्टी को हटाकर अग्नि क्षेत्र को आहुति के लिए प्रकट करता है। बीज सोम होता है।
पर्जन्य में निहित जीव अन्न के माध्यम से शरीर में जाते हैं। असंख्य ही शुक्राणु रूप में शुक्र में उपलब्ध रहते हैं। शुक्र में हमारे सात पीढ़ी के आत्माओं के अंश भी रहते हैं। हमारे स्वयं के अंश भी पर्जन्य द्वारा पृथ्वी मण्डल पर फैले होते हैं। उन्हें प्राप्त करने या तो हम उन क्षेत्रों में जाते हैं अथवा अन्न/फलादि हमारे लिए आते हैं।
अन्न की आहुति वैश्वानर में होती है। उसी के साथ जीव भी शरीर में प्रवेश करता है। भोजन पूर्व प्रार्थना की परम्परा है। भोजन भले ही शरीर करता है किन्तु भोक्ता ईश्वर ही होता है। ‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रिता:’ (गीता 15/14)। अन्न में यात्रा परमेश्वर कर रहा है। हम माध्यम मात्र हैं। जिस भावना से अन्न आहूत हुआ है, वैसा ही जीव भाव शुक्र तक पहुंचेगा।
पांचवी और अन्तिम आहुति दम्पत्ति भाव में होती है। शुद्ध आत्मा के आह्वान के लिए प्रार्थना की जाती है। प्रक्रिया के प्रारंभ में दम्पत्ति शुद्ध आत्मा के आह्वान के लिए प्रार्थना करते हैं। गर्भाधान संस्कार के मंत्रों में मन्तव्य स्पष्ट है। पुत्र प्राप्ति और वंशवृद्धि की कामना भी प्रार्थना में निहित है। देवता प्रसन्न होंगे, तो सन्तान रूप में वे ही प्रकट होंगे।
यज्ञ से ही सन्तान पैदा होती है। पांचवें धरातल पर स्थूल शरीर पैदा होता है। प्रत्येक धरातल पर देवता के साथ जुड़े रहना, प्रार्थना करते रहना जीव के उच्च स्वरूप को परिवार में आकर्षित करता है। प्रथम स्तर से ही जीव का सम्पर्क अदृश्य स्तर पर हो जाता है। उच्च कोटि का जीवात्मा ही हमारी उन्नति का प्रमाण है।
क्रमश:
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