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कामना मुक्ति से आत्म प्रकाश

‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – कामना मुक्ति से आत्म प्रकाश

May 07, 2023 / 08:20 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : कामना मुक्ति से आत्म प्रकाश

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। (3.38)
नवजात को प्रत्येक मां आवरित रखती है। कोमल होने के कारण, हानि से रक्षण के उद्देश्य से। कई बार कर्म के शुरू करते ही व्यक्ति इन आवरणों को प्रत्यक्ष करके निराश हो जाता है। कृष्ण कहते हैं कि आग जलेगी तो पहले धुआं उठेगा। यह प्रकृति का स्वभाव है। उसके गर्भ में सदा ब्रह्म रहता है। ब्रह्म की इच्छा ही तो प्रकृति है, शक्ति है। माया के कर्म परोक्ष भाव में होते हैं। माया नाम अविद्या का है। अविद्या से ही प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होने से सृष्टि का आरंभ होता है। अविद्या ज्ञान (ब्रह्म) का आवरण है।


माया से सृष्टि भी पांच स्तरों पर होती है। इन्हीं में मन-प्राण-वाक् रूप आत्मा ही कारण, सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर रूप में उत्पन्न होता है। मूल में तो कारण शरीर ही सर्वप्रथम पैदा होता है-महद् लोक में। इस प्रज्वलित अग्नि के साथ पिछले जन्मों के कर्मों का धुंआ भी रहता है। अहंकृति-प्रकृति-आकृति भी अस्पष्ट रहती है। सृष्टि के लिए ब्रह्म को आवरित करना आवश्यक है। इसीलिए वासना (अविद्या) के धुएं से ज्ञान ढका रहता है।

उक्त श्लोक में ब्रह्म को आवरित करने के तीन प्रकार दिए गए हैं। कारण शरीर से सूक्ष्म और स्थूल शरीर साथ-साथ बनते जाते हैं। इसी अनुरूप कामना और शरीर पिण्ड निर्मित होते हैं-पुष्ट होते जाते हैं। जब तक अविद्या रहती है, कारण शरीर रहता है। प्रत्येक जन्म में सूक्ष्म शरीर में काम भी सूक्ष्म भाव में रहता है। स्थूल शरीर में पुष्टि के साथ सूक्ष्म शरीर और अविद्या का आवरण (बीज) भी पुष्ट होता जाता है। अत: कामना भी पुष्ट हो जाती है।

आत्मा की प्रथम स्थिति धूमावृत अग्नि के समान होती है। कुछ धुआं, कुछ धुंधलका, किन्तु अग्नि का प्रकाश स्पष्ट रहता है। सूक्ष्म शरीर में जीव अनेक काम-वासनाओं से ढके होने के कारण दर्पण की तरह मलीन जान पड़ता है। धुआं अग्नि से निकला था, दर्पण पर मैल बाहर से आता है। मैले दर्पण में प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं दिखता। उसी प्रकार कामनाग्रस्त सूक्ष्म शरीर में भी आत्मा का स्वरूप अस्पष्ट रहता है।

प्रयत्न-विचार और साधना की सहायता से अशुभ कामना (वासना) हटती है, तब शुद्ध आत्मज्ञान प्रकट होता है। अन्त में स्थूल पिण्ड में कामना-भोग की चेष्टा पूर्णता प्राप्त कर लेती है, आत्मा लुप्तवत् जान पड़ता है। जैसे जरायु मध्य का भ्रूण। अज्ञान अवस्था रहती है। बुद्धि भी भोग एवं संग्रह की चेष्टा के कारण स्थूल हो जाती है कि आत्मज्ञान का प्रकाश ही नहीं रहता।


जिस प्रकार आत्मा के आवृत्त होने की प्रक्रिया के तीन मुख्य बिन्दु बताए गए हैं, उसी प्रकार आवरणों के मोचन के भी तीन साधना मार्ग बताए गए हैं। पहला-जरायु के आवरण के समान जिसमें ज्ञान का कोई बोध नहीं, पूर्ण अंधकार रूप अवस्था है। साधना के प्रति निश्चेष्ट जड़ भाव। काम भोग में जीव व्यस्त रहता है।

इस स्तर को अतिक्रम कर जीव जब प्राकृत साधना मार्ग पर उतरता है, तब ज्ञान ज्योति से अन्तराकाश भर जाता है। प्राण की साधना से जिह्वा ग्रन्थि, हृदय-ग्रन्थि भी क्षीणता को प्राप्त होने लगती है। मण्डलाकार गर्भस्थ उल्ब को भेद करके दिव्य प्रकाश दिखाई पड़ता है। जैसे बादलों के मध्य बिजली क्रीड़ा करती है। साधना के अभ्यास से मन जड़त्व से हटकर सूक्ष्म भाव को अग्रसर होता है। जैसे दर्पण से मैल साफ करने पर स्वच्छ हो जाता है और प्रतिबिम्ब स्पष्ट हो जाता है। सूक्ष्म ब्रह्माण्ड का अलौकिक दृश्य उभर जाता है।

तीसरा और अन्तिम पड़ाव ‘भूत-शुद्धि’ का होता है। इससे अन्तिम आवरण- कारण शरीर- से मुक्त हो जाता है। इसी में अविद्या का अज्ञान-बीज निहित रहता है। शुद्ध, स्निग्ध प्रकाश, आत्मज्ञान मिल जाता है। बुद्धि अन्तर्मुखी होकर आत्म-स्वरूप में विलीन हो जाती है। अज्ञान कुछ शेष नहीं रह जाता।

काम के द्वारा विवेक आवृत्त रहने से काम सुख का हेतु जान पड़ता है। ज्ञानी साधक परिणाम को दु:खदायक मानकर अपना शत्रु समझता है। क्योंकि काम पूरित होने पर भी पूरित नहीं होता। अत: दुष्पूर है। कामाग्नि अन्त:करण में आवृत्त होता है। तनिक विषय संयोग से जल उठता है। उसी में जब अहंकार जुड़ जाता है, तब काम-भोगाहुति इस अग्नि को प्रचण्ड रूप दे देती है।


न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवामिवद्र्धने।।
ज्ञानी को काम अच्छा भी नहीं लगता और संसारवश छूटता भी नहीं। समय-समय पर आत्म-स्मृति आती है। इस स्मृति को बनाए रखना ही मुख्य साधना होती है। साधक अन्त में सफल होता है। भगवत् प्राप्ति की इच्छा उसकी सारी वासनाओं में भरी रहती है। अत: भगवत् कृपा से कामजयी हो जाते हैं। आचार्य शंकर कहते हैं-

संकल्पानुदये हेतुर्यथा भूतार्थ दर्शनम्।
अनर्थचिन्तनं चाभ्यां नावकाशोऽस्य विद्यते।।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध, उससे अनिष्ट प्राप्ति की चिन्ता- इन दोनों के रहते हुए मन में कामसंकल्प का उदय नहीं हो सकता।

संकल्प-विकल्प से रहित होकर मन के कुछ स्थिर होने पर भी वासना-बीज के प्रभाव से मन पुन: च्युत हो सकता है। कामोत्पत्ति तब हो जाती है जब मन में विषय-दर्शन के द्वारा संकल्प का मन्थन होता है। मन-बुद्धि-इन्द्रियां काम का आधार हैं। मन का स्वभाव रस-ग्रहण का है। यदि भगवत् रस से वंचित होता है, तो विषय-रस में अवश्य डूबेगा। अत: कामना को मूल कहा है, शक्तिरूपा है, जन्म से ही साथ रहती है। यही जीवन का मैल है।

यज्ञ का मूल सोमाहुति है। आहुति का ही धुआं उठता है और आवरण बन जाता है। यही आवरण आत्मा के स्वरूप का आच्छादक बनता है। आवरण कहीं बाहर से नहीं आया, भीतर से उठता है। अव्यक्त मन पर कोई भी आवरण नहीं आता। अव्यय मन में साम ही आवरण बनता है। भीतर यजु: रूप पुरुष आगति-गति करता रहता है। पुरुष का विस्तार क्रम जारी रहता है।

अक्षर सृष्टि में प्राणों की गतिविधियां प्रधान होती हैं। हृदय में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र, इन तीनों की शक्तियां, बाहर अग्नि-सोम-इन्द्र के कार्यकलाप, फिर भी क्रियाशून्य, सृष्टि का कारण भाव। अव्यय में सृष्टि की कामना (काम) थी, अक्षर में अहंकार है। बुद्धि है, प्राणों की, विचारों की उथल-पुथल है। ब्रह्म के बीज का वपन भी मह:लोक में है। ये सब जीव के अहंकार रूप क्रोध के वाचक हैं। यहीं से पराप्रकृति अपरा में बदलती है। त्रिगुण का प्रवेश होता है। आकृति बनती है।

स्थूल देह तो शुद्ध मोह के पाश में बंधा है। जीव पूर्ण रूप से काम-भोगों में लिप्त होने को तैयार है। प्रसव के साथ ही जीव तो – ”या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्ति रूपेण संस्थिता’- जगत के मायाजाल में जकड़ जाता है। स्वयं का जो रूप उसे प्रसव पूर्व-गर्भ में दिखाई पड़ता था, लुप्त हो जाता है। सबकुछ दृष्टि से ओझल हो जाता है। मानो आत्मा मां की गोद में सो गया।


क्रमश:


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