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खाद्य अपशिष्ट बढ़ा रहा जलवायु परिवर्तन संकट

बुनियादी ढांचे के विकास, तकनीकी नवाचार, नीति सृजन के साथ जलवायु परिवर्तन की समस्या को प्राथमिकता देकर भारत खाद्य पदार्थों की बर्बादी को न्यूनतम करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति की जा सकती है। सरकार, व्यवसाय और नागरिक समाज प्रतिबद्धता के साथ एक ऐसे भविष्य के सृजन में एकजुटता से कार्य कर सकते हैं जिसमें अन्न और भोजन की सुरक्षा के साथ हमारी निरंतर बढ़ती आबादी को पोषित किया जा सकता है।

जयपुरSep 27, 2024 / 09:40 pm

Gyan Chand Patni


डॉ. वीर सिंह
प्रोफेसर एमेरिटस, पर्यावरण विज्ञान, गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, पंतनगर
हिंसा, आतंकवाद और युद्धों में अनवरत उलझी दुनिया में कहीं न कहीं से भुखमरी और कुपोषण की घटनाओं के समाचार आते रहते हैं। वर्तमान में विश्व की आठ अरब 20 करोड़ आबादी के लिए पर्याप्त खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं। फिर भी, विडम्बना देखिए कि भूख और कुपोषण की समस्या बनी हुई है। इस विडंबनात्मक स्थिति का प्रमुख कारण राजनीतिक तो है ही, खाद्य पदार्थों की हानि और बर्बादी भी आग में घी का काम कर रही है। इनके अलावा जलवायु परिवर्तन भी एक कारण है। भोजन की हानि और बर्बादी एक गंभीर वैश्विक चुनौती है। हर वर्ष 29 सितंबर को मनाया जाने वाला खाद्य अपशिष्ट जागरूकता दिवस इसी वैश्विक चुनौती पर प्रकाश डालता है। इस वर्ष ‘खाद्य हानि और अपशिष्ट कटौती के लिए जलवायु वित्त’ विषय पर केंद्रित यह जागरूकता दिवस जलवायु लक्ष्यों और सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए खाद्य अपशिष्ट को कम करने के लिए लक्षित निवेश और वित्तीय रणनीतियों की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं को रेखांकित करता है। विश्व स्तर पर, मानव उपभोग के लिए उत्पादित खाद्य पदार्थों का लगभग 1.3 अरब टन हर वर्ष नष्ट हो कर रह जाता है। यह चौंकाने वाला आंकड़ा न केवल जल, भूमि और श्रम सहित संसाधनों की चिंताजनक हानि का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि जलवायु परिवर्तन को भी पंख लगाता है। जी हां, खाद्य अपशिष्ट और जलवायु परिवर्तन में सीधा सम्बन्ध है। सूक्ष्मजीवों द्वारा खाद्य पदार्थों के जैविक अपघटन से कार्बन डाइऑक्साइड सहित, उससे भी कई गुना अधिक प्रभावशाली ग्रीनहाउस गैस (मीथेन) का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन प्रक्रियाओं को तीव्र कर देती है। खेतों और पशु उत्पादन इकाइयों से घर तक आते अन्न, सब्जी-फल और पशु उत्पाद नष्ट होते हैं। खाने के बाद बचे भोज्य पदार्थ अधिकतर देशों में खुले में सड़ते हैं और विकसित देशों में उन्हें लैंडफिल में ले जाया जाता है।
खाद्य अपशिष्ट के जैविक अपघटन से लैंडफिल और खुले या सार्वजनिक स्थानों में उत्पन्न ग्रीनहाउस गैस वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन का लगभग 8-10 प्रतिशत हिस्सा है। अपनी विशाल जनसंख्या और विविध कृषि परिदृश्य के साथ भारत खाद्य पदार्थों की बर्बादी की बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, भारत में उत्पादित खाद्य पदार्थों का लगभग 40 प्रतिशत बर्बाद हो जाता हैै। यह अपशिष्ट उत्पादन और भंडारण से लेकर परिवहन और उपभोग तक आपूर्ति शृंखला के विभिन्न चरणों में होता है। अनुचित प्रबंधन के कारण कटाई के बाद लगभग 30 प्रतिशत फल और सब्जियां नष्ट हो जाती हैं। कोल्ड स्टोरेज की सुविधाओं के अभाव में शीघ्र सड़ जाने वाले खाद्य पदार्थों की लगभग 25 प्रतिशत हानि होती है। भारत के शहरों में रहने वाले लोग प्रतिवर्ष लगभग 6 करोड़ 20 लाख टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं, जिसमें खाद्य अपशिष्ट का एक बड़ा हिस्सा होता है। भारत में भोजन के नष्ट हो जाने का पर्यावरणीय प्रभाव गहरा है। यदि नष्ट हुए खाद्य को एक अलग इकाई के रूप में माना जाए, तो यह देश में ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक होगा। इसके अतिरिक्त, विनष्ट हुए खाद्य पदार्थों के उत्पादन में लगभग 1900 अरब घन मीटर पानी का उपयोग किया जाता है। देश में पेयजल का एक बड़ा हिस्सा (72त्न से भी अधिक) खाद्य पदार्थों के उत्पादन के उपयोग में लाया जाता है। इसका भी एक बड़ा भाग नष्ट हुए खाद्य पदार्थों में चला जाए तो देश के जल संकट को बढ़ाने में इसका कितना योगदान है, सोचा जा सकता है। भोजन की बर्बादी का कितना विकट आर्थिक प्रभाव होगा, अनुमान लगाया जा सकता है। एफएओ का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर भोजन की बर्बादी की आर्थिक लागत प्रति वर्ष 940 अरब डॉलर है। भारत में भोजन की बर्बादी से लगभग 12 बिलियन डॉलर की आर्थिक हानि होने का अनुमान है। यह हानि किसानों, व्यवसायों और उपभोक्ताओं तक फैली है, जिससे खाद्य असुरक्षा और आर्थिक असमानता बढ़ गई है।
भोजन की बर्बादी से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए नवीन वित्तीय तंत्र की व्यवस्था परमावश्यक है। कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं, कुशल परिवहन प्रणालियों और प्रसंस्करण इकाइयों में निवेश करने से बड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थों को खराब होने से बचाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, तापमान-नियंत्रित गोदामों की स्थापना से खराब होने वाले पदार्थों की ताजगी बनाए रखने में मदद मिल सकती है, जिससे पारगमन की अवधि में होने वाली खाद्य हानि को न्यूनतम किया जा सकता है। हमारी दुनिया में नित नए नवाचारों का उदय होता रहता है। डेटा एनालिसिस और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर आपूर्ति शृंखला प्रबंधन को अनुकूलित किया जा सकता है। ऐसे ऐप भी उपलब्ध हैं जो अधिशेष भोजन को जरूरतमंद लोगों से जोड़ते हैं। सरकारों को सहायक नीतियों और विनियमों के माध्यम से भोजन की बर्बादी को न्यूनतम करने में सक्षम वातावरण बनाना चाहिए। इसमें व्यवसायों को अधिशेष भोजन दान करने के लिए प्रोत्साहित करना और जैविक अपशिष्ट डंपिंग को हतोत्साहित करने के लिए सख्त नियम लागू करना सम्मिलित है। कई ऐसी सर्वोत्तम वैश्विक प्रथाएं हैं जिन्हें अपनाकर खाद्य की हानि और भोजन की बर्बादी को रोकने हेतु रणनीतियां तैयार की जा सकती हैं। कई देशों ने ऐसे नियम कानून बनाएं हैं, जिनकी मदद से खाद्य पदार्थों की बर्बादी रुकी है। भारत ऐसे देशों से सीख सकता है। कई भारतीय परंपराओं में भी खाद्य पदार्थाे की बर्बादी रोकने के मंत्र छिपे हुए हैं। खाद्य हानि और बर्बादी को न्यूनतम करना सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) तक पहुंचने का एक अभिन्न अंग है।
बुनियादी ढांचे के विकास, तकनीकी नवाचार, नीति सृजन के साथ जलवायु परिवर्तन की समस्या को प्राथमिकता देकर भारत खाद्य पदार्थों की बर्बादी को न्यूनतम करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति की जा सकती है। सरकार, व्यवसाय और नागरिक समाज प्रतिबद्धता के साथ एक ऐसे भविष्य के सृजन में एकजुटता से कार्य कर सकते हैं जिसमें अन्न और भोजन की सुरक्षा के साथ हमारी निरंतर बढ़ती आबादी को पोषित किया जा सकता है। लक्षित वित्तपोषण और नवीन रणनीतियों के माध्यम से हम सतत विकास के 2030 एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से भी पार पा सकते हैं।

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