भारत के पड़ोस में कहीं एक और इस्लामिक राष्ट्र का ना हो जाए उदय
डॉ. एन.के. सोमानीअंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय पर हो रही हिंसक घटनाओं के बीच मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने देश को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए है। बांग्लादेश अपने इस कुत्सित प्रयास में सफल होता है, तो पाकिस्तान के बाद भारत के पड़ोस में एक और […]
डॉ. एन.के. सोमानी
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय पर हो रही हिंसक घटनाओं के बीच मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने देश को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए है। बांग्लादेश अपने इस कुत्सित प्रयास में सफल होता है, तो पाकिस्तान के बाद भारत के पड़ोस में एक और इस्लामिक राष्ट्र का उदय हो जाएगा। अंतरिम सरकार का यह कदम भारत के लिए तो परेशानी का सबब है ही, अप्लसंख्यक हिंदुओं के मन में भी खौफ पैदा कर रहा है। दरअसल, बांग्लादेश का उच्च न्यायालय पिछले कुछ दिनों से एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका में वर्ष 2011 में शेख हसीना सरकार द्वारा संविधान में किए गए 15वें संशोधन को चुनौती दी गई है। इस संशोधन के जरिए संविधान के भीतर ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द को शामिल किए जाने के अलावा अन्य प्रावधान किए गए थे।
याचिका पर सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल मोहम्मद असदुज्जमां ने देश की 90 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का हवाला देते हुए कहा कि संविधान में वर्णित ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द बांग्लादेश की सही तस्वीर पेश नहीं करता हैं। हालांकि याचिका में केवल धर्मनिरपेक्ष शब्द को लेकर ही आपत्ति नहीं की गई है, बल्कि ‘समाजवाद’, ‘बंगाली राष्ट्रवाद’, बंगबंधु शेख मुर्जीरबर रहमान को राष्ट्रपिता दर्जा देने व कार्यवाहक सरकार प्रणाली को समाप्त करने जैसे प्रावधानों को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं। उच्च न्यायालय जिस गंभीरता के साथ याचिका पर सुनवाई कर रहा है, उसे देखते हुए बांग्लादेश के भीतर और बाहर यह सवाल आम हो गया है कि क्या शेख मुर्जीबुर रहमान का धर्मनिरपेक्ष देश अब पाकिस्तान की राह पर आगे बढ़ेगा। अत्यंत आश्चर्यजनक बात यह है कि राजनीतिक अस्थिरता तथा सांस्कृतिक और धार्मिक टकराव के मौजूदा दौर में नोबेल विजेता बांग्लादेश के खैरखाह मोहम्मद यूनुस को संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सेक्युलर शब्द अचानक से क्यों चुभने लगा है। सच तो यह है कि बांग्लादेश में संविधान और उसमें होने वाले संशोधनों को लेकर हमेशा से ही टकराव की स्थिति रही है। साल 1972 में जब संविधान लागू किया गया था उस वक्त भी प्रस्तावना में शामिल धर्मनिरपेक्ष शब्द को लेकर देश दो वैचारिक धड़ों में बंटा हुआ था।
जहां एक ओर वामपंथी तथा प्रगतिशील समूह ने पलक-पावड़े बिछाकर इसका स्वागत किया, वही दूसरी ओर इस्लाम समर्थक तबका खासा नाराज हुआ। नाराज तबके का कहना था कि शेख मुजीब और उनकी पार्टी अवामी लीग ने अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय खासकर हिंदू समुदाय के वोट बैंक को लुभाने के लिए संविधान को धर्मनिरपेक्ष रूप दिया है। हालांकि, संविधान में किया गया धर्मनिरपेक्षता का यह प्रावधान ज्यादा दिन रहा है। 1975 में बंगबंधु की निर्मम हत्या के बाद सत्ता में आए सैन्य शासक राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बजाए सर्वशक्तिमान अल्लाह का भरोसा और आस्था को संविधान का हिस्सा बना दिया। उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में बिस्मिल्लाह-अर-रहमान-अर-रहीम (अल्लाह के नाम पर जो सबसे दयालु है) जैसे शब्द जोड़ दिए। इस संशोधन का परिणाम यह हुआ कि संविधान की कोख में पल रहा धर्मनिरपेक्षता का भू्रण कट्टरपंथियों की भेंट चढ़ गया।
सच तो यह है कि राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए संवैधानिक संशोधनों के इस्तेमाल में बांग्लादेश की कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। इस्लामी मूल्यों और कानूनों के अनुरूप नीतियों को आगे बढ़ाने का प्रयास कमोबेश हर पार्टी का रहा है। धार्मिक भावनाओं के सहारे अवाम का समर्थन हासिल करना पार्टियों का अघोषित कार्यक्रम है। आज बांग्लादेश खराब शासन के जिस दौर से गुजर रहा है, उसे वहां तक लाने में इन पार्टियों की बराबर की भूमिका रही है।
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