प्रतिभा और लंबे अभ्यास से निखरती है यह कला
असीम सरकार ने कहा कि कविगान ऐसी विधा नहीं है, जिसे हर कोई आजामा सके, क्योंकि इसके लिए प्रतिभा के साथ-साथ घंटों अभ्यास की भी जरूरत होती है। तभी जाकर इस कला में कलाकार माहिर होता है। इस कारण इसमें नए कलाकार नहीं आ रहे हैं। सुब्रत कुमार सेन अपनी प्रतिभा के सम्मान से संतुष्ट हैं लेकिन, वे कविगान कला के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि सरकार इस सदियों पुरानी लोक कला को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नहीं कर रही है। नतीजा मुझे सबसे अधिक चिंता कविगान कला के भविष्य को लेकर हैं। बांकुड़ा क्षेत्र इस लोक कला के साथ ही सांस्कृतिक और कलात्मक प्रवृत्तियों का केंद्र है, जो अब विलुप्त होने की कगार पर है।
क्या है लोकगान लोक कला
कविगान बांकुड़ा की परम्परागत लोक कला है। यह काव्य गायकों के दो समूहों की ओर से प्रस्तुत प्रतिस्पर्धी लोक गीतों की एक शैली है। प्रत्येक समूह के मुखिया को कवियाल या सरकार और साथ देने वाले गायकों को दोहर कहा जाता है। इसके कलाकार मौके पर दिए गए विषय पर कविता लिखते हैं और उसे वाद्ययंत्र की धुन पर गाते हैं। इसके विषय मुख्य तौर से सामाजिक और धार्मिक ग्रंथों के पौराणिक प्रसंग पर आधारित होते हैं। पश्चिम बंगाल में कविगान के समकक्ष को टारजा कहा जाता था। दोनों के बीच सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि टारजा मुख्य रूप से अजीब तथ्यों और पहेलियों से प्रतिद्वंद्वी को मात देने पर आधारित है, जबकि कविगान की नींव ज्ञान में है, जो समाज के लिए प्रासंगिक है।
18वीं सदी में हुई थी उत्पत्ति
कविगान का विकास अठारहवीं सदी में पद्मा नदी के किनारे हुआ और फला फूला लेकिन, उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में यह नए मध्यम वर्ग के कोलकाता साहित्यकारों के लिए एक लोकप्रिय मनोरंजन बन गया। अठारहवीं सदी की शुरुआत में पैदा हुए गोंजला गिनी को पहला कवियाल कहा जाता है। उन्नीसवीं सदी में कोलकाता के प्रसिद्ध कवियाल थे हरु ठाकुर (1749-1824), निताई वैरागी (1751-1821), राम बसु (1786-1828), भोला मायरा, एंथोनी फरंगी और उन्नीसवीं सदी के अंत में कविगन ने अपना महत्व खोना शुरू कर दिया।