कबीर और संसार के रोने में फर्क है
तुम जब भी रोए हो सिर्फ़ अपने स्वार्थ की खातिर रोए हो। तुम्हारा रोना तुम्हारा स्वार्थ है। कबीर का रोना कबीर की करुणा की अभिव्यक्ति है| तुम तो जब भी रोए अपने लिए रोए, तुमने दावा भी भले ये किया हो कि किसी और के लिए रो रहा हूँ पर देखना कि तुम दूसरे के लिए भी जब रोए तो उससे अपने नाते की खातिर रोए। किसी के मरने पर भी जब रोए तो इसलिए नहीं रोए कि उसका क्या हुआ? तुम रोए कि तुम्हारा कुछ छिन गया। तुम्हारी ज़िन्दगी से कुछ कम हो गया। तुम्हारी पहचानों में से एक पहचान मिट गई।हमेशा सुख की चेष्टा में लगे रहना ही अहंकार है
वही अहंकार जो लगातार दुःख पाता है, क्या वही अहंकार नहीं है जो सुख की चेष्टा में लगा रहता है? और सुख की चेष्टा का फल दुःख और आंसुओं के अलावा होगा क्या? हम अपनी मूर्खतावश रोते हैं। हम तो जब रोते भी हैं तो हमारा अहंकार और सघन होता है क्योंकि रो करके हम अपने और अस्तित्व के बीच में जो रेखा है उसको और घना कर देते हैं। हम कहते हैं, ‘’दुनिया ने मुझे दुःख दिया।’’ हमारा ‘मैं’ का भाव और घना होता है। ‘मैं’ कौन? जिसे दुनिया दु:ख दे रही है।रोने से अलग होने का भाव सघन होता जाता है
‘मैं’ और दुनिया दो अलग-अलग सत्ता हैं। दो अलग-अलग इकाईयां हैं। अलग होने का भाव और बढ़ता है रो-रो कर। हम हँसते हैं, उसमें अहंकार; हम रोते हैं, उसमें और बड़ा अहंकार। अपने ही लिए रोते हैं और रोकर के अपने होने के भाव को, ‘मैं’ के भाव को और ज़्यादा प्रगाढ़ करते हैं। एक कबीर का रोना, एक बोधिसत्व का रोना बिल्कुल दूसरा है। वो कहता है, ‘इतना सरल था जान जाना, मुझे दिख गया तुम्हें क्यों नहीं दिखता?’ वो कहता है, ‘जो दूसरा छोर है, जिधर मैं पहुंचा हूँ वो पहले से जुड़ा ही तो हुआ है। इतना समीप है कि दो छोर हैं ही नहीं, एक ही छोर है| मैं सहजता से तर गया, तुम क्यों नहीं तर जाते?’ वो तुम्हारे लिए रोता है, वो अपने लिए नहीं रोता, वो अपने से तो कब का मुक्त हो चुका, अपने लिए अब वो कुछ करता ही नहीं| बाहर-बाहर से दूर-दूर से तुम देखोगे, तो लगेगा कि ये तो अभी भी बहुत कुछ करता है। कोशिशों में लगा रहता है, व्यस्तता रहती है, श्रम कर रहा है, जीवन की गतिविधियों में लगा हुआ है, हँसता है, बोलता है, सारे भाव जो कोई भी आम आदमी दर्शाए, सब दर्शाता है, क्रोध भी करता है, तनाव में भी दिखाई देता है पर यदि देख सकते हो तो देखो कि क्या उसका क्रोध उसके लिए है? क्या उसका तनाव इस खातिर है कि उसका कुछ छिन रहा है? नहीं, अब उसका जो कुछ है वो तुम्हारे लिए है|जो सरल है, वो संसार के लिए इतना जटिल क्यों है?
आप पढें कबीर को तो उसमें आपको कबीर की पूर्णता ही नहीं दिखाई देगी, उसमें आपको कबीर की शान्ति और मुक्ति ही नहीं दिखाई देगी, उसमें आपको कबीर की बेचैनी और लाचारगी भी दिखाई देगी और हर संत एक तल पर बेचैनी में और लाचारगी में भी जीया करते हैं। वो स्वास्थ्य के जिस बिंदु पर है, वहाँ से दुनिया उसके लिए बहुत सरल है। वो यह सवाल बार-बार पूछता है कि जो इतना सरल है वो संसार के लिए क्यों इतना जटिल है? वो यह सवाल बार-बार पूछता है कि जब सुख-दुःख इतने अनावश्यक हैं तो दुनिया इसमें क्यों उलझी हुई है? ऐसा नहीं है कि प्रश्न जानता नहीं, पर करुणा का अर्थ ही यही है कि तुम जानते तो हो कि तुम्हारे सामने जो रो रहा है उसका दुःख सिर्फ एक भ्रम है लेकिन फिर भी तुम कहते हो कि वो भ्रम है, ये मैं जान रहा हूँ, जो रो रहा है वो नहीं जान रहा। ये जो रोती हुई इकाई है, इसके लिए तो इस क्षण पर इसका दुःख ही एकमात्र वास्तविकता है और किसी सत्य से ये परिचित ही नहीं हैं, इसी का नाम करुणा है|आपके आंसू भी सच्चे नहीं हैं…
करुणा ये नहीं है कि मन में दया उठ आई, करुणा में आप स्पष्ट जानते हो कि तू आया है मेरे सामने अपनी समस्या लेकर, तू विलाप कर रहा है, आंसू झर रहे हैं और ये सब धोखा है। करुणा का ये अर्थ नहीं है कि उसके भाव देखकर आप भी भावुक हो लिए। करुणा में आपको स्पष्ट पता है कि ये सब धोखा है, तेरे अपने विषय में मान्यता ही धोखा है तो तेरे आंसू सच्चे कैसे हो सकते हैं? क्योंकि हर आंसू तेरी अपनी मान्यता से निकल रहा है, पहचान से निकल रहा है, जैसा तू संसार को देखता है वहाँ से निकल रहा है। करुणा में सब पता होता है लेकिन ये सब पता होने के साथ ये भी पता होता है कि ये जो शरीररूपी मेरे सामने खड़ा है, इसके लिए तो अभी दुःख ही है। हाँ, एक समय ऐसा आएगा, ये पहुंचेगा एक ऐसे बिंदु पर जब ये खुद ही हँसेगा कि, ‘मैं किस बात पर दुःख मनाता था? अब इस बिंदु पर जीवनमुक्त को निर्णय लेना होता है, वो यह निर्णय भी कर सकता है कि जब ये सारे दुःख झूठ हैं तो झूठ से उलझना कैसा? जो बीमारी है ही नहीं उसका उपचार कैसा? वो ये भी कह सकता है, ‘मैं इस सब प्रपंच को छोड़ कर के बाहर ही निकल रहा हूँ।’ वो ये कह सकता है, ‘ये पूरा संसार झूठ, इसकी इच्छाएं झूठ, इसकी हंसी झूठ और इसका रूदन भी झूठ, मुझे इससे कोई संबंध ही नहीं रखना या वो ये कह सकता है कि “नहीं! मैं रुक रहा हूँ| झूठ है, ये मैं जान रहा हूँ पर अभी ये नहीं जान रहे, ये जान जाएँ इस खातिर रुक रहा हूँ|” कबीर उस दूसरी स्थिति में हैं|दुखिया दास कबीर है , जागे और रोए
जो ही जगेगा, वो ही करुणा से भर जाएगा| जागृति कठोरता नहीं देती, जागृति करुणा देती है और यदि आप पाएं कि जागृति से संवेदनशीलता मर रही है, आपमें करुणा का भाव नहीं उदित हो रहा तो स्पष्ट समझ लीजिएगा कि आपकी जागृति सिर्फ़ आपके मन की एक कल्पना है, आप जगे नहीं हैं। जगा हुआ व्यक्ति पूरे संसार के लिए शुभ सन्देश होता है। सूरज की तरह होता है जो पूरी दुनिया का अँधेरा मिटाता है। जगे हुए होने का अर्थ ही यही है कि अब आत्म-केन्द्रित नहीं रहा कि अब मेरा आत्म ब्रह्म हो चुका है। अब आत्म अहंकार के साथ संयुक्त नहीं रहा, अब आत्म वृहद हो चुका है, इतना फ़ैल चुका है कि उसमें सब समा गए हैं। अब मैं ये नहीं दावा कर सकता कि किसी और का घर, अब मैं ये नहीं कह सकता कि, संसार का दुःख। मैं समष्टि के साथ एकाकार हूँ। जहां कहीं भी दुःख है, जहां कहीं भी भ्रम है, जहां कहीं भी अँधेरा है उससे मेरा सरोकार है। मैं ये नहीं कह सकता, ‘अरे! हो रहा होगा किसी और के घर में, किसी और के देश में। किसी जंगल में हो रहा होगा। किसी जानवर के साथ हो रहा होगा, मेरा क्या जाता है?’ ना, मैं अब ये दावा नहीं कर सकता। यहाँ भी जो कुछ है वो मेरा है। मैं हूँ और जब सर्वत्र मैं ही मैं हूँ तो कुछ भी बेगाना कैसे हो सकता है? कुछ भी दूसरे का कैसे हो सकता है? दूसरे का प्रश्न ही नहीं होता।’’ अब संसार का रोना आपका अपना मसला है, जो जगेगा वही रोएगा क्योंकि संसार बड़ी पीड़ा में है और जो जगता है, संसार की पीड़ा अपने ऊपर ले लेता है, नीलकंठ शिव की तरह कि संसार है, उसमें से ज़हर निकल रहा है और वो ज़हर कौन धारण करेगा? वो शिव ही धारण करेगा। ज्यों ही जगेगा उसे ज़हर पीना ही पड़ेगा। हाँ, उस ज़हर से उसका कोई नुकसान नहीं हो जाएगा पर पीना तो उसे पड़ेगा।
कबीर ने बिल्कुल ठीक ही कहा है, ‘सुखी हो एकमः’ तरीके से क्योंकि तुम्हें अभी पता ही नहीं कि तुम ज़हर में डूबे हुए हो, आकंठ डूबे हुए हो। अभी तुम्हें पता ही नहीं, जब तक सो रहे हो ठीक हो।
सुखिया सब संसार है, खावे और सोए
सोये हुए आदमी के पास दिक्कतें हो सकती हैं पर तुम्हारी दिक्कतें वास्तव में उस दिन बढ़ेंगीं जिस दिन जगोगे, अभी तो छुट्टियां चल रहीं हैं। जो जगता है उसको ही दिखाई देता है कि स्थिति क्या है चारों तरफ़, घर में आग लगी हुई है, जब तक जगे नहीं हो तब तक तो सो, लगी होगी आग तुम तो सपनों में हो, झरने में नहा रहे हो। यही कारण है कि गृहस्थों ने कभी नहीं दुनिया को गाली दी क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है दुनिया का, गाली क्यों देंगे? कबीर कहते हैं संसार के बारे में बहुत कुछ और संसार की तारीफ़ में नहीं कहते, सन्यासियों ने खूब आरती उतारी है संसार की, चुनिंदा शब्दों में आरती उतारी है! सोचिए कि ऐसा क्यों है? इसीलिए है क्योंकि आम संसारी को, गृहस्थ को, संसार का कुछ पता ही नहीं है। उसके पास कोई कारण ही नहीं है कि वो कहें कि ये दुनिया कितनी पापिनी है, उसको पता ही नहीं तो वो कहेगा कैसे? ये तो एहसास ही तब होता है जब आँख खोल कर के देखते हो।संसार का वास्तविक स्वरूप तो सिर्फ़ एक जगे…
तो इसीलिए संत लिखता है संसार के बारे में, गृहस्थ नहीं लिखता। गृहस्थ के लिए तो संसार उसके सपनों का बाग़ है, उसमें भी जाना ही नहीं और जितना आँख खोलोगे उतना ज़्यादा दिखाई देगा कि कहाँ फंसे हो। वो दिखाई देने से ही बाहर निकलने की उत्कंठा तीव्र होती है, वो दिखाई देना ही सत्य का खिंचाव है। जितना ज्यादा समझ में आता है कि घर चल रहा है, उतनी विग्रता से बाहर को भागते हो, गिरते-पड़ते आतुरता से, ये भूल करके कि पीछे क्या छोड़ रहे हो, ‘‘रखे होंगे मेरे लाखों करोड़ो, भागो।’’जागने वाले को ही दिखता है
जो जागेगा, उसे ही दिखाई देगा कि क्या है इसीलिए जो जगा है उसी के ऊपर करुणा का दायित्व भी आया है, इसी करुणा के दायित्व को कबीर कह रहे हैं, जागे और रोए।जो अभी जगा ही नहीं, उसके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं| दस लोग सो रहे हैं और घर में आग लग गई, उन दस में से एक जगा हुआ है, तनाव किसे रहेगा? नौ सोए हुए लोगों को या एक जगे हुए आदमी को?
जो सो रहे हैं, वो कहाँ हैं? वो तो झरने में नहा रहें हैं। संसार जल रहा है, जिस संसार में वो अपने आप को मानते हैं, उनकी नज़र में तो वो जीव ही हैं न? उनकी नज़र में तो वो जीव हैं। कोई यही न सोचे कि जगने से, आनंद का, मुक्ति का कोई स्वर्ग खुल जाता है तुम्हारे लिए। हाँ, वो स्वर्ग खुलते हैं, जहां पर तुम्हारे अंतर्जगत की बात है| उसमें प्रेम का झरना फूटता है, मुक्ति का आकाश खुलता है, आनंद का अमृत मिलता है| ठीक, अंतर्जगत में ये सब होता है पर जगने का दायित्व भी बहुत बड़ा है। जगे हुए व्यक्ति को ये न मान लेना कि वो यूँ ही मुस्कुराता हुआ घूम रहा होगा चारों तरफ। उसकी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है क्योंकि उसे दिख रहा है, उसे तुम्हारा सारा दुख और कारण दिख रहा है, उसे दिखा रहा है कि किन दुखों से मुक्ति सहज संभव है, उसे ये भी दिख रहा है कि वो मुक्ति मिल नहीं रही। तो यूँ ही किसी मीठी कल्पना में मत रहना कि मोक्ष माने तो हर्निश मधु बरसेगा और हम मौज में रहेंगे। रहोगे, मौज में रहोगे, पर साथ ही साथ पाओगे कि अब तुम सत्य के पैगम्बर हो। सत्य सिर्फ़ मौज ही नहीं देता, सत्य ये आज्ञा भी देता है कि, ‘’मेरा पैगाम फैलाओ।’’ जो मौज तुम्हें मिल रही है, वो सबको भी मिले क्योंकि उसका स्वभाव है विस्तीर्ण होना।
सत्य सीमित नहीं रहना चाहता और सत्य का पैगम्बर होना आसान नहीं। हमें पता है कि हमने अपने पैगम्बरों के साथ क्या किया है। हाड़ जले ज्यों लाकड़ी, केश जले ज्यों घास।
सब जल जलता देख के, भये कबीर उदास।। नहीं, कबीर नहीं कह रहे हैं कि, ”कबीर को जलता देख के कबीर उदास हुए हैं|’’ सब जल जलता देख के, भये कबीर उदास।।
तुम वो हो, अमृत जिसका स्वभाव है और अब फिर भी जल रहे हो। ये बात जितनी हास्यास्पद है, उतनी ही ज़्यादा करुणाजनक भी तो है। एक छोर पर तो उपहास किया जा सकता है, मज़ाक की बात है कि जो मर नहीं सकता, वो मर भी रहा है और जल भी रहा है। एक छोर पर तो ये सिर्फ़ एक मज़ाक है, ये दुनिया चुटकुले की तरह है। दूसरे छोर पर ये बात बड़ी त्रासदीपूर्ण भी है कि डूबे हुए हैं हम, नाक तक, दुःख में ही डूबे हुए हैं। वही तो भवसागर कहलाता है।
आचार्य प्रशांत वेदांत मर्मज्ञ और लेखक हैं। वह पूर्व सिविल सेवा अधिकारी रह चुके हैं और प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।