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JK Diary : घाटी के मतदाताओं ने चौंकाया, अब दलों के लिए विधानसभा बड़ी चुनौती

लोकसभा चुनाव में तीन पूर्व मुख्यमंत्री जनता की नब्ज नहीं पकड़ पाए। पढ़ें कश्मिर पर अनिल कैले के खबर

नई दिल्लीJun 06, 2024 / 03:32 pm

Anish Shekhar

चार जून की सुबह जम्मू-कश्मीर की राजनीति के लिए नया संदेश लेकर आई। चुनाव नतीजों में जैसे उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल ने देश को चौंकाया, ठीक वैसे ही जम्मूू-कश्मीर ने भी हैरत में डाला। राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री चुनावी समर में धराशायी हो गए। उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती स्वयं लोकसभा चुनाव हार गए तो गुलाम नबी आजाद अपनी पार्टी को नहीं जिता सके। ऐसे में यदि चार महीने बाद विधानसभा चुनाव होते हैं तो उसकी राजनीतिक तस्वीर का अंदाजा अभी लगाना मुश्किल है।
जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव में मतदाता उत्तरप्रदेश से भले बहुत कम हों, पर यहां के नतीजों की उत्सुकता यूपी से किसी मायने में कम नहीं आंकी जा सकती। जम्मू संभाग में भाजपा को जहां पूरा समर्थन मिला, वहीं घाटी के सियासी दल नतीजों के अपने-अपने मायने निकाल रहे हैं। सूबे के चुनाव नतीजों पर देश की निगाह इसलिए भी थी क्योंकि अनुच्छेद 370 हटने और परिसीमन के बाद पहली बार चुनाव हुए। केन्द्र की योजनाओं और पीएम मोदी के नाम पर वोट मांगकर भाजपा ने जम्मू और उधमपुर सीट पर लगातार तीसरी बार कब्जा कर लिया है।
कश्मीर घाटी में रेकॉर्ड मतदान को भाजपा जहां अनुच्छेद 370 हटाने की सफलता के रूप में आंक रही थी, वहीं घाटी के चुनाव नतीजों को वहां के राजनीतिक दल अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध के लिए मतदान मान रहे हैं। भाजपा हालांकि यहां सीधे चुनाव मैदान में नहीं उतरी। उसने अलताफ बुखारी की अपनी पार्टी और सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रेंस को परोक्ष समर्थन देकर घाटी की राजनीति में उतरने की कोशिश की। घाटी ने दोनों दलों के प्रत्याशियों को नकार कर भाजपा को जरूर हैरत में डाल दिया। अब की बार भी घाटी में श्रीनगर और अनंतनाग की सीट नेशनल कांफ्रेंस के खाते में गई। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बरामुला में हराकर मतदाताओं ने चौंकाया है। इस सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी इंजीनियर राशिद शेख विजयी रहे। पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती ने भी अनुच्छेद 370 को हटाने का वादा करके वोट मांगे थे, पर उन्हें मात खानी पड़ी। गुलाम नबी आजाद ने नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के विकल्प के तौर पर अपनी पार्टी को चुनाव मैदान में उतारा, पर जनता ने नकार किया।
असल में जम्मू और घाटी के बीच वैचारिक और भौगोलिक दूरी इतनी अधिक है कि उसको पाटने में अभी और समय लगेगा। जम्मू की अवाम में कसक है कि केन्द्र ने हमेशा कश्मीर को ही तवज्जो दी और आर्थिक मदद देने में भी उसके साथ भेदभाव किया गया। दूसरी ओर घाटी के लोग अनुच्छेद 370 से आजाद होने के बावजूद बंदिशों में बंधा हुआ मानते हैं। घाटी में रोजगार के अवसर मुहैया करवाकर, पर्यटन के अलावा अन्य उद्योग स्थापित करके वहां बदलाव लाना लाजिमी हो गया है। इसलिए सभी राजनीतिक दल राज्य में विधानसभा चुनाव की घोषणा का इंतजार कर रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के नतीजों को विधानसभा चुनाव परिणाम का पैमाना मान लिया जाए तो कोई भी पार्टी सरकार बनाने का दावा करने की स्थिति में नहीं है। परिसीमन के बाद कई विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं में बदलाव आया है। जम्मू और रियासी इलाके के पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा और दस प्रतिशत आरक्षण देकर भाजपा सियासी लाभ लेने की कोशिश में है। गुलाम नबी आजाद प्रदेश की तीसरी राजनीतिक शक्ति बनने के प्रयास में हैं। पीडीपी के लिए लोकसभा चुनाव की हार से उबरना बड़ी चुनौती है। वहीं नेशनल कांफ्रेंस को भी वोट बैंक को और मजबूत करने के लिए जोर लगाना पड़ेगा। अपनी पार्टी और पीपुल्स कांफ्रेंस भी अपना अलग वजूद बनाने की कोशिश करेंगी। सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के अपने अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। ऐसे उलझे सियासी समीकरणों में विधानसभा चुनाव के परिणाम भी चौंकाने वाले आ सकते हैं।

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