दूसरी ओर ”त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।’ (गीता 2.45) कहकर निस्त्रैगुण्य होने का उपदेश भी दिया। तब इनको ज्ञान का अन्त मान लिया। तब यह बात ध्यान में रखने की है कि कर्म के तो पांच हेतु हैं, किन्तु कर्म के कर्ता रूप में स्थूल के साथ सूक्ष्म और कारण शरीर पर भी विचार करना पड़ेगा।
शरीर तो कर्ता हो नहीं सकता। मन के संकल्प से इन्द्रियों में पंच प्राण द्वारा गति या क्रिया होती है। इस क्रिया में गति का आधार भी शरीर (आगति) ही बनता है। यही अधिष्ठान है, चेष्टा का कारण। जिसके लिए कर्म किया जाए वही कर्ता, जीव या चिदाभास है।
यही आत्मा के साथ चित् होने से जीव भी चेतन कहलाता है। यही अहंकार का स्वरूप है। यही कर्मों का कर्ता है। फलदाता ईश्वर या संचित कर्मों (धर्म/अधर्म) के संस्कार होते हैं। वैसा ही अहंकार हो जाता है। पूर्व संस्कार ही ग्रन्थि रूप ”मैं’ बनता है। जड़ एवं चित् ही ग्रन्थि है। अहंकार के ही चित्-अचित् दो रूप हैं।
करण रूप में इन्द्रियां, कार्य रूप में चेष्टाएं तथा दैव रूप में इन्द्रियों के सहचारी देवता-सूर्यादि हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियों-श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिव्हा और घ्राण के देवता क्रमश: दिग्-वायु-अर्क-वरुण और अश्विनी कुमार हैं।
पांच कर्मेन्द्रियों वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ के देवता क्रमश अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, यम और प्रजापति हैं। पंच प्राणों-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान के देवता क्रमश: – सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान हैं। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के देवता क्रमश: चन्द्रमा, ब्रह्मा, शंकर और विष्णु हैं।
जब बहुत प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होता, तो व्यक्ति निराश हो जाता है। शास्त्र कहते हैं कि इसका कारण देवता की प्रतिकूलता या पूर्व संचित संस्कारों का प्रभाव ही मानना चाहिए। फल की इच्छा छोड़कर पुन: कर्म में जुट जाना चाहिए। कर्म की अभिव्यक्ति मन-वचन-काया से ही होती है। आपके कर्म में किसी अन्य का भी हाथ हो सकता है। अत: आत्मा को कर्ता मानना ठीक नहीं है।
आत्मा की शक्ति से ही ये पांचों हेतु काम करते हैं। आत्मा स्वयं मुक्त है, कर्म उसको स्पर्श नहीं कर सकता। वह कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता। कठोपनिषद् में कहा है-
आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति।
आत्मा स्थिर होकर भी गमन करता है, हर्षयुक्त और हर्षहीन है। इस स्वप्रकाश आत्मदेव को मेरे बिना दूसरा कौन जान सकता है। आत्मा का ज्ञाता आत्मा या आत्मपुरुष ही है। मन की विषय ग्रहण की प्रवृत्ति रुकने पर ही योगी उस आत्मा को देख सकता है।
कर्म सम्पादन के लिए जो पांच कारण हैं, वे ज्ञातव्य हैं। जिस आत्मा के कर्तापन के अभिमान के कारण संसार लीला चलती है, वह कर्तापन का अभिमान जब तक निवृत्त नहीं होता, तब तक इस संसार की निवृत्ति नहीं होती। यह आत्म वस्तु ही सत्य है, एक और अद्वितीय है।
अनात्म वस्तु में आत्मबोध और मिथ्यावस्तु में सत्यबोध होना अविद्या का कार्य है। अविद्या की अनन्त तरंगों के आघात से स्थिर आत्मा उपलब्ध नहीं होता। अविद्या का खेल रुकने पर ही कर्म की गति ठहर पाती है। तब संसार में जन्म-मरण का खेल समाप्त होता है।
तंत्र शास्त्र कहता है कि जब तक इड़ा-पिंगला में श्वास बहता है, तब तक अविद्या है। तभी तक कर्म और कर्म फल भी हैं। यही मिथ्या ज्ञान है। इस मिथ्या ज्ञान के भी ये पांचों ही कारण हैं। इन कारणों को जान लेने पर आत्मा अज्ञान द्वारा बन्धन में नहीं आ सकता। अनात्मज्ञान इन्हीं कारणों पर टिका है। उनको सम्यक् रूप से जान लेने पर आत्मविस्मृति नहीं रह सकती।
‘सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते’ (गीता 4.33)
ब्रह्म के संकल्प- एकोऽहं बहुस्याम् को सृष्टि रूप लेने के लिए संकल्प रूप कारण चाहिए। यही प्रथम अदृष्ट सृष्टि है ब्रह्म की। ईश्वर का यह संकल्प ही नियति है। इसको कोई शक्ति नहीं बदल सकती। नियति ही धर्म-अधर्म-संस्कार रूप में प्राण के द्वारा स्पन्दित होकर जीव के मन में अपने को प्रकट करती है। प्राण की स्पन्दन क्रिया देह क्षेत्र में ही सम्पादित होती है। प्राण द्वारा ही पूर्व जन्म के कर्म-शरीर, इन्द्रिय और मन में दैव रूप बीज से युक्त होकर फलरूप प्रकट होते हैं।
पुरुषार्थ के द्वारा देह कर्षित (कृषि योग्य) होने पर दैव रूप बीज का उसमें वपन (बोना) होता है। इससे जीव कर्मानुसार फल प्राप्त करता है। फल ईश्वर नियत करता है, अत: प्रत्येक जीव को भोगना ही पड़ता है। जीवों का सामूहिक अदृष्ट रूप ही ईश्वर-इच्छा/संकल्प है।
फिर भी ईश्वर का अपना कोई प्रयोजन नहीं होता। योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी के अनुसार- पुरुषार्थ के बिना दैव सिद्ध नहीं होता। पुरुषार्थ क्षेत्र है, दैव बीज स्वरूप है। क्षेत्र के बिना बीज की शक्तियां प्रकट कहां होगी!
आत्मा हमारे कर्मों का साक्षी भाव है, कारण नहीं है। माया ही सृष्टि का कारण है। चिर-स्थिर आत्मा ही चंचल मन का आश्रय है। चंचलता नहीं, तो मन भी नहीं। मन का मन परमात्मा (अव्यय) कहा है। मन जब नहीं रहता- सृष्टि भी नहीं रहती। जीव स्वयं चिदंश है, कर्म नहीं करता। प्रकृति कर्म करती है।
अहंकार को कर्ता कहते हैं। ब्रह्म के चैतन्य से अहंकार भी चेतन प्रतीत होता है। जैसे जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब चैतन्य लगता है। इसी प्रकार माया में प्रतिबिम्बित अहंकार ही जीव है। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर जीव भाव भी नष्ट हो जाता है। माया के आश्रय में ब्रह्म ही ईश्वर कहलाता है। माया से अविद्या और अविद्या से चैतन्य ही जीव भाव में आता है। बन्धन युक्त हो जाता है।
दृष्टि जड़त्व से हटकर चैतन्य की ओर जाने लगती है, तब जीव बन्धन मुक्त होने लगता है। साधक मुक्त होना भी ‘चाहता’ है, मोक्ष भी ‘चाहता’ है। तब वह फल का त्याग कैसे कर सकता है? संन्यास ऐसा आश्रम है जिसमें दूसरा कोई कर्म नहीं रहता। श्रवण-मनन द्वारा साधक वैराग्य भाव को पुष्ट करता है।
संन्यासी मोक्ष पाना चाहता है, त्यागी को कोई कामना नहीं रहती। यहां मन का पूर्ण निरोध होता है। पूर्व कर्मानुसार प्राण का स्पन्दन रहता है। इसी दृष्टि से कृष्ण ने गीता में कृतान्त का संकेत किया है।
क्रमश:
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