दादाजी चार-पांच साल के पोते के साथ बाग में टहल रहे थे। बच्चे को कुछ सिखाने की गरज से उन्होंने पूछा- ‘पिंटू बेटा, आपके हाथ की 10 अंगुलियों में से चार अगर कौवा ले जाए तो बताओ कितनी बचेंगी? सवाल सुनना था कि पिंटू ने दहाड़े मारकर रोना शुरू कर दिया- ‘कौवा मेरी फिंगर्स ले जाएगा, आप कौवे को भगाइए। अपने देश में गणित के सवाल पर ज्यादातर बच्चों को इसी तरह रोना आ जाता है। बच्चे क्या, बड़े भी शिकायत करते रहते हैं- ‘उम्रभर की गणित ने बड़ी बेवफाई/ हम रटते रहे ये समझ में न आई। गणित रटने से नहीं आती। यह अभ्यास मांगती है- ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। जितना ज्यादा अभ्यास होगा, गणित उतनी ही आसान होती जाएगी। शकुंतला देवी ने बचपन से निरंतर अभ्यास के जरिए गणित को साधा और ऐसा साधा कि इस विषय में कम्प्यूटर से भी तेज चलने वाले उनके दिमाग का लोहा सारी दुनिया को मानना पड़ा। भारत के पहले गणितज्ञ आर्यभट्ट ने अगर पांचवीं सदी में दुनिया को यह सिद्धांत दिया कि धरती गोल है और 365 दिन में सूरज की एक परिक्रमा पूरी करती है तो शकुंतला देवी ने साबित कर दिखाया कि भारतीय महिला दुनियाभर के कम्प्यूटरों की रफ्तार से भी तेज सोच सकती है। शकुंतला देवी तो अब दुनिया में नहीं हैं, उन पर बनी फिल्म ‘शकुंतला देवी’ के जरिए विद्या बालन उनके रूप में दर्शकों के बीच पहुंची हैं।
शुक्रवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज की गई ‘शकुंतला देवी’ ( Shakuntala Devi Movie ) एकदम अलग तरह की फिल्म है। फिल्मों में खालिस मनोरंजन तलाशने वालों को इस फिल्म से थोड़ी मायूसी हो सकती है, क्योंकि यह शुरू से आखिर तक अपनी थीम पर कायम रहती है। इसमें आम फिल्मों वाले ‘जब-जब जो-जो होना है/ तब-तब वो-वो होता है’ मार्का मसाले नहीं हैं। यह गणित के प्रति शकुंतला देवी की उस धुन को सलीके से पर्दे पर उतारती है, जो प्रतिकूल हालात में भी कमजोर नहीं पड़ती। विद्या बालन के मुकुट में यह फिल्म एक और मोरपंख साबित होगी। ‘शकुंतला देवी’ के किरदार को उन्होंने बड़ी जिंदादिली से अदा किया है। पता नहीं, शकुंतला देवी हमेशा इसी तरह खिलखिलाती रहती थीं या नहीं, विद्या बालन पूरी फिल्म में हंसी-ठहाकों की फुलझडिय़ां छोड़ती रहती हैं या मुस्कुराती रहती हैं। जब उनकी मुस्कुराहट गायब रहती है, तब भी उनके चेहरे को देखकर लगता है कि उनके अंदर मुस्कुराहट मार्च पास्ट कर रही है।
शकुंतला देवी के बेटी (सान्या मल्होत्रा) और पति (जिशु सेनगुप्ता) के साथ रिश्तों के उतार-चढ़ाव को भी कहानी में गूंथा गया है। मां-बेटी के प्रसंग कुछ ज्यादा ही नाटकीय हो गए हैं, लेकिन अनु मेनन के सधे हुए निर्देशन वाली इस फिल्म का बाकी नक्शा इतना सहज है कि थोड़ी-बहुत नाटकीयता को बर्दाश्त किया जा सकता है। किसी बड़ी हस्ती पर बायोपिक बनाना अपने आप में जटिल काम है। अगर वह हस्ती ‘मानव कम्प्यूटर’ के तौर पर मशहूर गणितज्ञ शकुंतला देवी हों तो मामला और जटिल हो जाता है। शुक्र है, अनु मेनन ने इस बायोपिक में डॉक्यूमेंट्री वाली रंगत नहीं आने दी। उन्होंने कुछ छूट भी ली है। यानी कुछ ऐसे प्रसंग भी फिल्म में हैं, जो शायद शकुंतला देवी की जिंदगी में जस के तस न घटे हों। कहानी को दिलचस्प बनाने के लिए ऐसे छोटे-मोटे प्रसंगों का सहारा लेने में कोई हर्ज नहीं है।
तकनीकी तौर पर ‘शकुंतला देवी’ चुस्त-दुरुस्त फिल्म है। बेंगलूरु और लंदन के सीन बड़ी खूबसूरती से फिल्माए गए हैं। हालांकि फिल्म पूरी तरह विद्या बालन के कंधों पर टिकी है (जो अब काफी मजबूत हो चुके हैं), सान्या मल्होत्रा ( Sanya Malhotra ), जिशु सेनगुप्ता ( Jisshu Sengupta ), अमित साध ( Amit Sadh ) , शीबा चड्ढा ( Sheeba Chaddha ) वगैरह का काम भी अच्छा है। महिलाओं को यह फिल्म ज्यादा पसंद आएगी, क्योंकि यह एक भारतीय महिला की धुन, कामयाबी और उपलब्धियों को गहराई से रेखांकित करती है।