मोटिवेशनल स्टोरीज में हम आपके लिए आज लेकर आए है मशहूर संगीतकार नौशाद की कहानी, जो बचपन से ही संगीत के दीवाने थे। यहां तक कि वो अपने घरवालों से भी लड़ पड़ते थे। एक बार उनके पिता ने गुस्से में उन्हें कह दिया कि घर या संगीत दोनों में से किसी एक को चुनो तो उन्होंने तत्काल ही संगीत को चुन लिया और अपने शौक को अपना कॅरियर बनाने के लिए घर से निकल पड़े।
नौशाद के बचपन का एक वाकया बड़ा दिलचस्प है । लखनऊ में वाद्ययंत्रों की एक को नौशाद हसरत भरी निगाहों से देखा करते थे। एक बार दुकान के मालिक ने उनसे पूछ ही लिया कि वह दुकान के पास क्यों खड़े रहते हैं । नौशाद ने दिल की बात कह दी कि वह उसकी दुकान में काम करना चाहते हैं। नौशाद जानते थे कि वह इसी बहाने वाद्ययंत्रों पर रियाज कर सकेंगे। एक दिन वाद्य यंत्रों पर रियाज करने के दौरान मालिक की निगाह नौशाद पर पड़ गई और उसने उन्हें डांट लगाई कि उन्होंने उसके वाद्य यंत्रों को गंदा कर दिया है। लेकिन बाद में उसे लगा कि नौशाद ने बहुत मधुर धुन तैयार की है और उसने उन्हें न सिर्फ वाद्ययंत्र उपहार में दे दिए बल्कि उनके लिए संगीत सीखने की व्यवस्था भी करा दी।
बस यही से उनके जीवन ने करवट ली। नौशाद अपने एक दोस्त से 25 रूपये उधार लेकर संगीतकार बनने का सपना लिये मुंबई आ गए। मुंबई पहुंचने पर नौशाद को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें कई दिन तक फुटपाथ पर ही रात गुजारनी पड़ी। इस दौरान नौशाद की मुलाकात निर्माता कारदार से हुई जिनकी सिफारिश पर उन्हें संगीतकार हुसैन खान के यहां चालीस रूपये प्रति माह पर पियानो बजाने का काम मिला। बतौर संगीतकार नौशाद को वर्ष 1940 में प्रदर्शित फिल्म “प्रेमनगर” में 100 रूपये मासिक तनख्वाह पर काम करने का मौका मिला। ठीक चार वर्षों तक स्ट्रगल के बाद 1944 में उनकी फिल्म “रतन” में “अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना” गीत से सफलता मिली और वो 25000 रूपए पारिश्रमिक के तौर पर लेने लगे। इस फिल्म के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
लेकिन नौशाद की कहानी यहीं तक नहीं है वरन उन्होंने अपने जैसी ही कई अन्य प्रतिभाओं को भी प्रोत्साहन दिया और लता मंगेशकर , सुरैया, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे शख्सियतों को बॉलीवुड में स्थापित किया। यह अपने शौक के प्रति उनकी लगन ही थी कि वो इतनी कठिन परिस्थितियों में भी जूझते रहे और आखिर में सफल हुए।