पहली बार 1910 में गोथेप लेमबाग और हैनरिक लेवी ने GPR तकनीक का पेटेंंट हासिल किया था। 1929 में पहली बार इसका प्रयोग ग्लेशियर का पता लगाने में किया गया जबकि 1975 में इसे बाजार में व्यावसायिक प्रयोग के लिए उतार दिया गया। साल 2017 में वाराणसी में जब विकास कार्यो की रुपरेखा बनाई जा रही थी तब इसका प्रयोग किया गया था। काशी में अंडर ग्राउंड मेट्रो को लेकर इसका प्रयोग किया गया है और अब दूसरी बार ज्ञानवापी के इतिहास को लेकर प्रयोग किया जा रहा है।
कैसे काम करता है जीपीआर
इस तकनीक में रेडियो तरंगों को धरती या दीवार के अंदर भेजा जाता है। जो टकराकर वापस लौटती हैं, जिनकी भूकंपीय उर्जा अलग-अलग होती है। हर चीज का इलेक्ट्रॉनिक फिल्ड अलग होता है और यह तरंगे उसी आधार पर विश्लेषण की जाती है। यह धरती या दीवार को बिना किसी नुकसान के उसके अंदर मौजूद कंक्रीट, धातु, पाईप, केबल आदि की सटीक जानकारी देती है। इससे थ्रीडी या टूडी होलोग्राम नक्सा भी तैयार किया जा सकता है।
इस तकनीक में रेडियो तरंगों को धरती या दीवार के अंदर भेजा जाता है। जो टकराकर वापस लौटती हैं, जिनकी भूकंपीय उर्जा अलग-अलग होती है। हर चीज का इलेक्ट्रॉनिक फिल्ड अलग होता है और यह तरंगे उसी आधार पर विश्लेषण की जाती है। यह धरती या दीवार को बिना किसी नुकसान के उसके अंदर मौजूद कंक्रीट, धातु, पाईप, केबल आदि की सटीक जानकारी देती है। इससे थ्रीडी या टूडी होलोग्राम नक्सा भी तैयार किया जा सकता है।
कहां प्रयोग किया जाता है
GPR तकनीक का इस्तेमाल ज्यादातर सेना के कार्याे ग्लेशियर, सेना के आवागमन के रुट, खनिज पदार्थ खोजने, सोना चांदी, पेट्रोलियम आदि का पता लगाने में भी किया जाता है। GPR तकनीक से चंद्रमा के सतह से करीब डेढ़ किलोमीटर अंदर तक का पता लगाया जा चुका है। यह एक प्रकार का अल्ट्रा साउंड मशीन है जो जमीन के अंदर छिपे रहस्य को बाहर ला देता है।
GPR तकनीक का इस्तेमाल ज्यादातर सेना के कार्याे ग्लेशियर, सेना के आवागमन के रुट, खनिज पदार्थ खोजने, सोना चांदी, पेट्रोलियम आदि का पता लगाने में भी किया जाता है। GPR तकनीक से चंद्रमा के सतह से करीब डेढ़ किलोमीटर अंदर तक का पता लगाया जा चुका है। यह एक प्रकार का अल्ट्रा साउंड मशीन है जो जमीन के अंदर छिपे रहस्य को बाहर ला देता है।
तीन चरणों में होती है प्रक्रिया
कार्बन डेटिंग से किसी वस्तु की उम्र का पता चलता है तो राडार या GPR तकनीक से उस वस्तु की आंतरिक स्थिति की सही जानकारी हासिल होती है। इसके माध्यम से धरती के भीतर तरंगे भेजी जाती हैं, इसके बाद यह तरंगे वापस कम्प्यूटर डिवाइस में आकर कैद हो जाती है। इसके बाद विशेषज्ञ इन तरंगों को प्रोसेस करते हैं और वैज्ञानिक आधार पर सटीक जानकारी हासिल हो जाती है।
कार्बन डेटिंग से किसी वस्तु की उम्र का पता चलता है तो राडार या GPR तकनीक से उस वस्तु की आंतरिक स्थिति की सही जानकारी हासिल होती है। इसके माध्यम से धरती के भीतर तरंगे भेजी जाती हैं, इसके बाद यह तरंगे वापस कम्प्यूटर डिवाइस में आकर कैद हो जाती है। इसके बाद विशेषज्ञ इन तरंगों को प्रोसेस करते हैं और वैज्ञानिक आधार पर सटीक जानकारी हासिल हो जाती है।