मां की इच्छा पूरी की कई बार किसी व्यक्ति की सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि भी उसे इस पेशे की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित करती है। अपना अनुभव बताते हुए प्रोफेसर राकेश कपूर कहते हैं – ‘ उस जमाने में मेरे घर में कोई डाक्टर नहीं था। मेरी मां की बड़ी इच्छा होती थी कि मैं डॉक्टर बनूं। ईश्वर की कृपा रही। मेरी माँ गृहणी थीं। पिताजी असेम्ब्ली में चीफ रिपोर्टर के पद से रिटायर हुए थे। मुझे आज बड़ी ख़ुशी होती है कि मैं अपने माता-पिता की इच्छाएं पूरी कर सका। पढाई के दौरान मैं डाक्टरों को लोगों का इलाज करते, उनकी सेवा करते देखता था तो इच्छा होती थी कि मैं भी डाक्टर बनूं। ‘
डॉक्टर और मरीज में समझ बढ़ाने की जरूरत कई बार डॉक्टरों और मरीजों में विवाद की स्थिति बन जाती है। ऐसे मामलों को लेकर प्रोफेसर कपूर अपनी राय जाहिर करते हुए कहते हैं – ‘ ऐसे विवादों के पीछे दो कारण हैं। एक तो मरीज चीजों को समझ नहीं पाता। दूसरा शायद डॉक्टर ठीक से समझा नहीं पाते। मेरे साथ भी एक बार ऐसा किस्सा हुआ। एक बुजुर्गवार मरीज थे, जिन्हे पेशाब की थैली का कैंसर था जो शरीर के कई हिस्सों में फ़ैल चुका था। मैंने उनके परिवार के लोगों को कहा कि अब इनकी सेवा करो, इन्हें कष्ट देने का कोई फायदा नहीं। संयोग से उसी दिन उनकी मृत्यु हो गई। उनके परिवार के लोग गुस्से में थे। वे जब शाम को मुझे मिले तो उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी इच्छा पूरी हो गई। तीन महीने बाद उस परिवार के लोग दुबारा एक मरीज को लेकर मेरे पास आये। उन्होंने मेरे पैर छुए। माफ़ी मांगी। बोले कि डाक्टर साहब आप सही कह रहे थे। हम गलत थे।’
डॉक्टर भी हारता है डॉक्टर को धरती का भगवान कहा जाता है लेकिन खुद प्रोफेसर कपूर इस बारे में अलग राय रखते हैं। वे कहते हैं – ‘ डाक्टर भगवान नहीं होता है। जिंदगी में हर इंसान को एक बार हार माननी पड़ती है। यह समझना बहुत जरुरी है कि कई बार बीमारी इस स्थिति में पहुंच जाती है कि उसे ठीक नहीं किया जा सकता बल्कि हम उसके कष्ट ही बढ़ाते हैं। मरीज के अटेन्डेन्ट समझते हैं कि उनके मरीज पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इन बातों को अटेन्डेन्ट को ठीक ढंग से समझाया जाये तो विवाद की स्थिति पैदा नहीं होगी। ‘