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अक्ल बड़ी कि भैंस या अक्ल बड़ी कि वयस्!

कुछ उक्तियां, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझा में नहीं आता, यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है।

जयपुरMay 06, 2024 / 05:41 pm

Chand Sheikh

कुछ उक्तियां, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझा में नहीं आता, यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है।

देवर्षि कलानाथ शास्त्री

पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सर्जनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ‘देहरी भई बिदेस’ की चर्चा चली तो मेरे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियां, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझा में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है।

‘देहरी भई बिदेस’

‘देहरी भई बिदेस’ भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिए जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझो जाने के खतरे से शायद ही बच पाए।
पुरानी पीढ़ी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गए हैं- ‘चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया छूटो जाय’ आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है- ‘देहरी तो परबत भई, अंगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस’। जैसे परबत उलांघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलांघी जाएगी, बाबुल का आंगन बिदेस बन जाएगा।

बिदेस होना आंगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं

बिदेस होना आंगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलांघी जाती है, परबत उलांघा नहीं जा सकता, अत: उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूं गा गए ‘अंगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस’ और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सहगल साहब तो ‘चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं’ भी गा गए जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाए जाते हैं, सजाती तो सखियां हैं। यह ठुमरी उन्होंने फिल्म स्ट्रीट सिंगर के लिए गाई थी (1937)।

‘ये चांद नहीं, तेरी आरसी है।’या आरती है?

नई पीढ़ी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था- ‘ये चांद नहीं, तेरी आरसी है।’ उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुंह से निकल गया ‘ये चांद नहीं तेरी आरती है।’ बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में ‘आरसी’ शब्द है या ‘आरती’।

जो बुद्धिमान है वह महान है

एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – ‘अक्ल बड़ी कि भैंस’? इसका अर्थ दशकों से हमारे समझा में नहीं आता था, भला अक्ल और भैंस की तुलना क्यों की जा रही है? कुछ ने कहा भैंस जैसी मोटी अक्ल की दृष्टि से यह कहा गया होगा। कुछ समझादारों ने यह तरीका निकाला कि यह मूलत: ‘अक्ल बड़ी कि बहस’? रहा होगा। जिन्होंने यह समझााया कि हमारे यहां प्राचीनकाल से यह अवधारणा चली आ रही है कि केवल उम्रदराज होने से ही आदमी बड़ा नहीं हो जाता, जो बुद्धिमान है वही बड़ा होता है – ‘अक्ल बड़ी कि वयस् (उम्र)’? वह बात हमारे गले उतरी। मनुस्मृति से लेकर आज तक संस्कृत की उक्ति प्रसिद्ध है कि जो बुद्धिमान है वह महान है, केवल वयोवृद्ध नहीं, हमें ज्ञानवृद्ध होना चाहिए आदि।

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