हजार साल पुरानी है मझौली स्थित कलचुरिकालीन विष्णु वाराह की प्रतिमा
भगवान विष्णु वाराह की प्रतिमा पर आकर्षक ढंग से उकेरे गए हैं देवता, ऋषि व मुनि, यक्ष और गंधर्व
ये भी खास : मंदिर परिसर में कदम्ब का वृक्ष लगा है। इसके फल को छूने पर मुंह में मीठा स्वाद आ जाता है। मान्यता के अनुसार जिस शंकरगढ़ नरीला तालाव में मूर्ति लघु आकार में मिली थी, उसमें सहस्त्र दल कमल या ब्रह्म कमल खिलता है।
यह कलचुरिकालीन प्रतिमा ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित है। इसके संपूर्ण शरीर पर कलात्मक तरीके से 33 कोटि देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत एवं यक्ष-गंधर्व उकेरे गए हैं, जो स्पर्श से महसूस होते हैं। इस मंदिर में वर्ष भर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। माघ पूर्णिमा पर यहां दर्शन और पूजन के लिए विष्णु उपासकों का तांता लगेगा।
6 फीट ऊंची है प्रतिमा
खड़ी हुई मुद्रा में भगवान वाराह की प्रतिमा छह फीट ऊंची है। प्रतिमा के नीचे अमृत कलश लिए शेषनाग और पीछे माता लक्ष्मी की मूर्ति विराजित है। शेषनाग के ऊपर तथा वाराह के मुख के नीचे शेष शैया पर भगवान विष्णु विराजमान हैं।
वृद्धि रोकने ठोकी सोने की कील
स्थानीय प्रचलित जनश्रुतियों और मान्यताओं के अनुसार विष्णु वाराह मंदिर में स्थापित वाराह की प्रतिमा मझौली के समीप स्थित नरीला तालाब से एक मछुआरे को मछली पकड़ते समय मिली थी। यह बहुत छोटे आकार में थी, जो धीरे-धीरे वृहद आकार लेने लगी। विद्वानों की सलाह पर प्रतिमा के सिर पर सोने की कील ठोकी गई, तब से यह प्रतिमा आकार में और बड़ी नहीं हो पाई।
कीर्ति स्तम्भ पर दस अवतार
मुख्य दरवाजे के सामने कीर्ति स्तम्भ पर भगवान विष्णु के दस अवतार के चित्र बनाए गए हैं। इतिहासकारों का मानना है कि यह स्तम्भ गुप्त और चंदेल शासकों के समय बनाया गया था। मंदिर परिसर में अष्टभुजाधरी मां दुर्गा, श्री राधा कृष्ण, शिवलिंग व शिवजी, रामदरबार (राम, सीता और लक्ष्मण) मंदिर सहित अन्य छोटे मंदिर भी मौजूद हैं।
संरक्षित स्मारक है
मंदिर को मध्यप्रदेश प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्वीय स्थल तथा अवशेष अधिनियम 1964 के अंतर्गत राजकीय महत्त्व का स्मारक घोषित किया गया है। संरक्षित सीमा से 100 मीटर तक और इसके आगे 200 मीटर तक के समीप एवं निकट का क्षेत्र खनन व निर्माण कार्य के लिए प्रतिबंधित और विनियोजित क्षेत्र घोषित किया गया है।
250 वर्ष पहले हुआ पुनर्निर्माण
इतिहासकार डॉ आनंद सिंह राणा बताते हैं कि कलचुरी राजाओं ने 11वीं शताव्दी में इस मंदिर का निर्माण कराया था। कालांतर में ध्वस्त हुए मंदिर का पुनर्निर्माण लगभग 250 वर्ष पूर्व 17-18वीं शताब्दी में किया गया। इसका शिखर मूलरूप में नहीं है। ब्रिटिश इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1873-1874 ई के दौरान इस मंदिर का दौरा किया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इस मंदिर के बारे में बताया। मंदिर पूर्वाभिमुख है। इसकी बाह्य भित्तियां और परकोटे में प्राचीन मूर्तियां जुडी हुई हैं। मंदिर के द्वार शाखाओं में गंगा, यमुना का चित्रण हैं। बीचों बीच योग नारायण पद्मासन में बैठे हुए हैं। इनके दोनों और नवग्रह प्रदर्शित हैं। मंदिर के काष्ठ कपाटों पर भी देव अलंकरण है।
मुगलों ने तोड़ी कई मूर्तियां
मंदिर समिति से जुड़े लोगों ने बताया कि गर्भगृह के अंदर की दीवारों पर इंद्रदेव की ऐरावत पर बैठी हुई प्रतिमा स्थापित है। यहां अन्य प्राचीन मूर्तियां भी स्थापित हैं। मुख्य मंदिर के बाहरी दीवारों पर सामने की ओर भगवान गणेश, हनुमान की प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं। गर्भगृह में लगे दरवाजे पर भगवान विष्णु, भगवान का वामन अवतार, भगवान गणेश और शेषनाग की छवि अंकित है। मंदिर के चारों ओर माता सरस्वती व अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इनमें से कुछ मूर्तियों को मुगलों द्वारा तोड़ा गया था।