Children of UP’s primary school will also read books in Bhojpuri and Awadhi
जबलपुर। जबलपुर आर्ट, कल्चर एंड म्यूजिक फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में गुरुवार को वरिष्ठ साहित्यकार और चित्रकार लीलाधर मंडलोई ने साहित्य और समाज में आ रहे बदलावों पर ‘पत्रिकाÓ से बात की। उन्होंने कहा कि कोई भी सत्ता नहीं चाहती कि हिन्दी केंद्रीय भाषा बने। जब तक राजनीति में इस तरह के लड़ाई-झगड़े होते रहेंगे, तब तक हिन्दी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं की भी दुर्दशा होती रहेगी। उनका कहना था कि ‘कला कोई भी हो, प्रत्यक्ष मैसेज नहीं देती। कला आपको जीवन के पास ले जाती है। चित्र देखकर स्मृतियां, अनुभव याद आते हैं। कला के भीतर जाकर उसे समझना होता है। ध्यान से देखिए चित्र खुद बोलते हैं। दुनिया में जो चीजें हैं, वही निकलकर यहां आती हैं। यही कला है।Ó
युवा पीढ़ी के हिन्दी साहित्य से दूर होने के सवाल पर मंडलोई ने कहा कि हिन्दी हमें रोजी-रोटी नहीं दिला रही है। 1990 के बाद दुनिया में बड़ा बदलाव आया है, जिसे ग्लोबल चेंज कहते हैं। उनका कहना था कि नब्बे के दौर में सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था का पराभव और पंूजीवादी व्यवस्था का उदय हुआ। इससे सभी चीजों के लिए दुनिया के दरवाजे खुल गए। इसमें इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का भी रोल है। अब कुछ भी किसी देश विशेष का नहीं है। साहित्य, संस्कृति और कला पर भी इसका प्रभाव पड़ा। स्थानीय बाजारों की जगह सुपर बाजार, मॉल आ गए। 21वीं सदी में हुए परिवर्तन का असर साहित्य पर पड़ा है। सोशल मीडिया सूचनाओं का माध्यम बन गया है। साहित्य के लिए भी यह प्लेटफॉर्म की तरह कार्य कर रहा है। प्रतिनिधि साहित्य का एक अलग स्थान है।
सिलेबस से गायब हो
गया भारतीय साहित्य
मंडलोई ने कहा कि शिक्षा के बाजारीकरण में भारतीय साहित्य सिलेबस से बाहर हो गए हैं। निजी क्षेत्र की यूनिवर्सिटी में ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि भारतीय साहित्य और उनकी विशेषताएं क्या हैं। उन्हें सभी कुछ विश्वस्तरीय लग रहा है। भारतीय की जगह बाहर के लोग आ गए। जब किसी चीज का व्यवसायीकरण होता है, तो शिक्षा में उन चीजों को रखा जाता है, जिससे नौकरी मिले।