scriptचुनाव के तौर-तरीके बदले, लेकिन नुक्कड़ सभाओं का क्रेज आज भी, डिजिटल के दौर में नुक्कड़ सभाएं मतदाताओं तक पहुंच का आसान व सस्ता तरीका | The methods of elections have changed, but the craze for street meetings is still there; in the digital era, street meetings are an easy and cheap way to reach voters | Patrika News
हुबली

चुनाव के तौर-तरीके बदले, लेकिन नुक्कड़ सभाओं का क्रेज आज भी, डिजिटल के दौर में नुक्कड़ सभाएं मतदाताओं तक पहुंच का आसान व सस्ता तरीका

चुनाव के तौर-तरीके बदलते रहे हैं लेकिन नुक्कड़़ सभाओं का क्रेज आज भी कायम है। डिजिटल के इस दौर में संभवत नुक्कड़़ सभाएं मतदाताओं तक पहुंच बनाने का आसान व सस्ता तरीका भी है। राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों को लगता है कि नुक्कड़़ सभाओं के जरिए प्रचार को मजबूती मिलती है।

हुबलीApr 27, 2024 / 11:06 pm

ASHOK SINGH RAJPUROHIT

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kishore patel

बदले दौर में भी नुक्कड़़ सभाओं का जलवा अब भी बना हुआ है। चाहे चुनाव लोकसभा के हों, विधानसभा के अथवा जिला एवं ग्राम पंचायत के। हर चुनाव में नुक्कड़़़ सभाओं की रौनक देखने को जरूर मिल ही जाती है। बड़ी रैली-सभाओं में जहां अनाप-शनाप खर्च करना होता है लेकिन नुक्कड़़ सभाएं सस्ते में निपट जाती है। चुनाव आयोग के खर्च पर पाबंदी के चलते भी नुक्कड़ सभाएं पार्टियों के लिए उपयोगी साबित हो रही है। पहले के दौर में नुक्कड़ सभाओं के लिए भी झंडे-बैनर-बिल्लों से माहौल बनाया जाता था और गांव के चौपाल या किसी जगह नुक्कड़ सभा करने के लिए लोग जमा होते थे। लोकसभा जैसे चुनाव में जहां दायरा बड़ा होता है और उम्मीदवार भी रोजाना सैकड़ों किमी की यात्रा वाहनों के जरिए ही कर पाते हैं। ऐसे में किसी गांव-चौपाल में पहुंचकर आज भी नुक्कड़़ सभाएं की जाती है। ऐसा माहौल गांवों में अधिक मिल रहा है।
प्रत्याशी की सूचना अलग अंदाज में
हालांकि समय के साथ प्रचार का तरीका भी तेजी से बदल रहा है। हो सकता है कि आने वाले दौर में नुक्कड़़ सभाओं का दौर भी खत्म हो जाएं। पहले जहां गांव व गली-मोह्ललों में ढोल-नगाड़ों के साथ प्रचार किया जाता था। प्रत्याशी के आने की सूचना भी कुछ इसी अंदाज में दी जाती थी। गलियां बैनर-पोस्टर से पाट दी जाती थी लेकिन अब ऐसा कम दिखता है। चुनाव आयोग के डंडे में प्रचार सिमट कर रह गया है। अब तो हालात ऐसे हैं कि कई बार तो यह तक पता नहीं चल पाता कि प्रमुख पार्टियों से उम्मीदवार कौन है। निर्दलीय एवं छोटे दलों के उम्मीदवारों की जानकारी तो रिजल्ट के बाद पता चलती है।
सिमटता जा रहा चुुनाव
चुनावी शोरगुल जो छह महीने पहले शुरू होता था वह एक महीने में सिमटने लगा है। चुनाव शांतिपूर्ण माहौल में होने लगे हैं। अब चुनावी शोर से मुक्ति मिली है। हालांकि इससे कई लोगों का रोजगार भी छिन गया है। पहले जहां पेंटरों को चुनावी साल में रोजगार मिल जाता था। वह अब लगभग बन्द हो गया है। बैनर-पोस्टर भी कम छपते हैं। ऐसे में अन्य लोगों के रोजगार पर भी असर पड़ा है।
साफ-सुथरी राजनीति कम हो रही
हुब्बल्ली प्रवासी राजस्थान के बालोतरा जिले के गोलिया चौधरियान निवासी किशोर पटेल कहते हैं, पहले के दौर में मिल-बैठकर फैसले तय किए जाते थे। गांव में बड़े-बुजुर्ग सभी की सलाह-मशविरा से यह तय करते थे कि वोट किसे दिया जाएं। अब डिजिटल मीडिया के युग में बात की सच्चाई लगाना भी मुश्किल हो गया है। कई बार आरोप-प्रत्यारोप लगाकर वास्तविकता से दूर भ्रमित प्रचार किया जाता है। मौजूदा समय में साफ-सुथरी एवं स्वच्छ राजनीति खत्म होती जा रही है। अवसरवादी एवं दलबदलुओं का बोलबाला बढ़ रहा है।
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