चारुवा के बुजुर्ग अपने पुरखों से सुनी बातों के आधार पर इस घटना को सन 1870 के आसपास का बताते हैं। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर निकलने के बाद एक बार गर्भगृह में स्थित शिवलिंग को खोदकर ऊपर स्थापित करने का प्रयास किया था, पर बताते हैं कि करीब दस फीट की खुदाई के बाद भी उसका दूसरा सिरा नहीं निकला। तब फिर खुदाई कार्य बंद कराकर भूमि को समतल कर गर्भगृह में जाने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया गया।
मंदिर के परकोटे के पीछे एक गुफा का मुहाना है। जिसका संबंध तत्कालीन चंपावती नगरी और ऐतिहासिक किले से जोड़कर देखा जाता है। गुफा का दूसरा मुहाना किले में देखा जा सकता है। हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से दोनों मुहानों को बंद किया जा चुका है। गुप्तेश्वर का यह मंदिर अंचल में लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस मंदिर के सामने महाशिवरात्रि पर हर वर्ष विशाल मेला भी लगता है। मंदिर के पीछे के हिस्से में महाभारतकालीन आधारित चक्रव्यूह भी है।
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बताया जाता है कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले इस क्षेत्र में जबरदस्त अकाल पड़ा। उस समय तत्कालीन ग्रामीणों ने इस टीले पर पूजा पाठ की थी। इसके बाद मेघ जमकर बरसे थे। ग्रामीणों ने इस टीले का चमत्कार माना और टीले की खुदाई शुरू कर दी। इस खुदाई के दौरान पहले शिखर और फिर धीरे-धीरे मंदिर के चिन्ह स्पष्ट होते गए तथा आखिर में एक भव्य मंदिर बाहर आ गया।
इसी के साथ निकला पाषाण का शिवलिंग एवं अनेक प्रतिमाएं जिनका काल अनुसंधान का विषय हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि यह मंदिर 10वीं या 11वीं शताब्दी का होना चाहिए। मंदिर निकलने के बाद इस दुर्गम स्थान की साफ-सफाई ग्रामीणों ने की। फिर कालांतर में जनसहयोग से मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। चूंकि यह विशाल भूमिगत था और अनादिकाल से गुप्त रहा था। इसलिए इस मंदिर को गुप्तेश्वर मंदिर कहा जाने लगा।