( फाइल फोटो) ग्वालियर। बरसाने की होली के बाद कुमाऊं की होली को अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए पूरे देश में जाना जाता है। इसी समाज के कई परिवार जो ग्वालियर में भी लंबे समय से रच बस गए हैं, इसके बावजूद इन्होंने अपनी सांस्कृतिक परंपरा को नहीं छोड़ा है। थोड़ा बहुत बदलाव के बाद इस समाज के लोग शहर के विभिन्न क्षेत्रों में आज भी अपनी परंपरा के अनुसार होली का त्योहार मनाते हैं। यह भी पढ़ें- # Holi : जानिये क्यों बदलनी पड़ी होलिका दहन की तारीख, भद्रा काल पर विचार इसके तहत महिलाएं होली के दिन बैठकी का आयोजन करती हैं जिसमें अधिकांशत: समाज के लोग ही हिस्सा लेते हैं। ग्वालियर के मुरार स्थित पवनसुत कॉलोनी के अलावा थाठीपुर की कई कॉलोनियों में इनका आयोजन होता है। जिसमें होली गायन शास्त्रीय धुन पर आधारित रहता है। यह है पूरी परंपरा होली का त्यौहार रंगों का त्यौहार है, धूम का त्यौहार है, लेकिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में होली रंगो के साथ-साथ रागों के संगम का त्यौहार है। इसे अनूठी होली कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि यहां होली सिर्फ रंगो से ही नहीं बल्कि रागों से भी खेली जाती है। पौष माह के पहले सप्ताह से ही तथा बसन्त पंचमी के दिन से ही गांवों में बैठकी होली का दौर शुरु हो जाता है। इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। होल्यार हारमोनियम, तबला और हुड़के की थाप पर भक्तिमय होलियों से बैठकी होली शुरु करते हैं। इन होलियों को शाष्त्रीय रागों पर गाया जाता है, जिनमें दादरा और ठुमरी ज्यादा प्रचलित है। यह भी पढ़ें- यहां अचलेश्वर महादेव निकलते हैं टोली के साथ, इनसे खेलते हैं होली अधिकतर बैठकी होलियों में राग धमार से होली का आह्वान किया जाता है तथा राग श्याम कल्याण से होली की शुरुआत की जाती है, बीच में समयानुसार अन्य रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं और इसका समापन राग भैरवी से किया जाता है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की बैठकी होली भी बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें महिलाओं के स्वभावानुसार श्रॄंगार रस की अधिकता होती है। यह भी पढ़ें- # Holi : फाग गीत के साथ बुंदेलखंडी रंग और भंग बैठकी होली कुमाऊं के लोक संगीत में रची बसी होने के बाद भी इसकी भाषा ब्रज की है, सभी बंदिशें राग-रागिनियों पर गाई जाती हैं। यह खांटी शास्त्रीय गायन तो है, लेकिन इसे गाने का ढब भी थोड़ा अलग है। क्योंकि इसे समूह में गाया जाता है, लेकिन इसे सामूहिक गायन भी नहीं कहा जा सकता और न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में बैठा कोई भी व्यक्ति बंदिश गा सकता है, जिसे भाग लगाना कहा जाता है। अर्थात बैठकी होली में शामिल हर व्यक्ति श्रोता भी खुद है और होल्यार भी खुद है। बैठकी होली पौष माह के प्रारम्भ से शुरु हो जाती हैे। कुमाँऊ में हो या वहाँ से बाहर होलियार होली की शुरूआत ज्यादातर जिस होली से करते हैं वो है ‘सिद्धि को दाता, विघ्न विनाशन, होली खेलें गिरिजापति नंदन’ यह भी पढ़ें- जानिये कहां और कैसे शुरू हुई शिवलिंग की पूजा इसके अलावा- जल कैसे भरूं जमुना गहरी -2 ठाडी भरूं राजा राम जी देखें बैठी भरूं भीजे चुनरी जल कैसे… जैसे गीत गाए जाते हैं जिनके स्वर अचानक ऊपर व नीचे आ जाते हैं।