यूं तो मोदक और लड्डू का भोग भगवान गणेश जी को अति प्रिय है ही, लेकिन इसके अलावा गणेश जी को ‘दूर्वा’ चढ़ाने का भी काफी महत्व है। गणेशजी को तुलसी छोड़कर सभी पत्र-पुष्प प्रिय हैं! गणपतिजी को दूर्वा अधिक प्रिय है। अतः सफेद या हरी दूर्वा चढ़ानी चाहिए। दूः+अवम्, इन शब्दों से दूर्वा शब्द बना है। ‘दूः’ यानी दूरस्थ व ‘अवम्’ यानी वह जो पास लाता है। दूर्वा वह है, जो गणेश के दूरस्थ पवित्रकों को पास लाती है।
कहा जाता है कि गणेश पूजन में गणेश जी को दूर्वा अर्पित करने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं और भक्त को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। गणेश जी को दूर्वा चढानें की मान्यता है माना जाता हौ कि उन्हे दूर्वा चढानें से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है, क्योंकि श्री गणेश को हरियाली बहुत पंसद है। गणेश जी को प्रदान की गई दूर्वा जातक के जीवन में भी हरियाली यानी कि खुशियों को बढ़ाने वाली होती है।
श्री गणेश जी को दूर्वा एक खास तरीके से चढ़ाई जाती है। श्री गणेश जी को हमेशा दूर्वा का जोड़ा बनाकर चढ़ाना चाहिए यानि कि 22 दूर्वा को जोड़े से बनाने पर 11 जोड़ा दूर्वा का तैयार हो जाता है। जिसे भगवान गणेश को अर्पित करने से मनोकामना की पूर्ति में सहायक माना गया है।
ज्ञात हो कि ‘दूर्वा’ एक प्रकार की घास है जिसे ‘दूब’ भी कहा जाता है, संस्कृत में इसे दूर्वा, अमृता, अनंता, गौरी, महौषधि, शतपर्वा, भार्गवी आदि नामों से जाना जाता है। ‘दूर्वा’ कई महत्वपूर्ण औषधीय गुणों से युक्त है। इसका वैज्ञानिक नाम साइनोडान डेक्टीलान है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय जब समुद्र से अमृत-कलश निकला तो देवताओं से इसे पाने के लिए दैत्यों ने खूब छीना-झपटी की जिससे अमृत की कुछ बूंदे पृथ्वी पर भी गिर गईं थी जिससे ही इस विशेष घास ‘दूर्वा’ की उत्पत्ति हुई।
जीवन में सुख व समृद्धि की प्राप्ति के लिए श्रीगणेश को दूर्वा ज़रुर अर्पित की जानी चाहिए। दूर्वा एक प्रकार की घास है। जिसे किसी भी बगीचे में आसानी से उगाया जा सकता है। भगवान श्रीगणेश को अर्पित की जाने वाली दूर्वा श्री गणेश को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा अर्पित की जाती है। किसी मंदिर की जमीन में उगी हुई या बगीचे में उगी हुई दूर्वा लेना चाहिए। ऐसी जगह जहां गंदे पानी बहकर जाता हो और दूर्वा उग आयी हो । वहां से दूर्वा का चुनाव नहीं किया जाना चाहिए। श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाने का मंत्र श्री गणेश को 22 दूर्वा इन विशेष मंत्रों के साथ अर्पित की जानी चाहिए।
इन मंत्रों के साथ गणेश जी को 11 जोड़ा दूर्वा चढ़ाए-
ऊं गणाधिपाय नमः।।
ऊं उमापुत्राय नमः।।
ऊं विघ्ननाशनाय नमः।।
ऊँ विनायकाय नमः।।
ऊं ईशपुत्राय नमः।।
ऊं सर्वसिद्धिप्रदाय नमः।।
ऊँएकदन्ताय नमः।।
ऊं इभवक्त्राय नमः।।
ऊं मूषकवाहनाय नमः।।
ऊं कुमारगुरवे नमः रिद्धि-सिद्धि सहिताय।।
श्री मन्महागणाधिपतये नमः।।
यदि आपको लग रहा कि इन मंत्रों को बोलनें में आपको परेशानी होगी तो इस मंत्र को बोल कर गणेश जी को दूर्वा अर्पण करें।
श्री गणेशाय नमः दूर्वांकुरान् समर्पयामि।
गणेश जी को दूर्वा अत्याधिक प्रिय क्यों है? इसके संबंध में पुराणों में एक कथा कही गई है जिसके अनुसार अनादि काल में अनलासुर नाम का एक विशाल दैत्य हुआ करता था जिसके कोप से धरती सहित स्वर्ग लोक में भी त्राही-त्राही मची हुई थे। समस्त देवता, ऋषि-मुनि, मानव इस दैत्य के आतंक से त्रस्त थे। यह दैत्य धरती पर मानवों को जिंदा ही निगल जाता था।
इस विशालकाय दैत्य से तंग आकर एक बार देवराज इंद्र सहित समस्त देवता और ऋषि-मुनि महादेव शिवजी की शरण में पहुंचे और प्रार्थना की कि हमें इस दैत्य के आतंक से मुक्ति दिलाएं। महादेव ने कहा कि यह काम तो विध्नहर्ता गणेश ही कर सकते हैं, आपको उनकी शरण में जाना चाहिए। महादेव का आदेश पाकर सभी देवता और प्रमुख ऋषि-मुनि भगवान गणेश जी के पास पहुंचे और अनलासुर के कोप से मुक्ति दिलाने की विनती गणपति बप्पा से की।
देवताओं, ऋषि-मुनियों और धरती पर प्राणियों के संकट निवारण के लिए गणेश जी ने अनलासुर के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। महा दैत्य अनलासुर से भयंकर युद्ध करते हुए गणेश जी ने अनलासुर को उसके किए की सजा कुछ ऐसे दी कि उसको ही निगल लिया। गणेश जी के पेट में जाने के बाद इस दैत्य के मुंह से तीव्र अग्नि निकली जिससे गणेश के पेट में बहुत जलन होने लगी। गणपति के पेट की जलन शांत करने के लिए कश्यप ऋषि ने गणेश जी को दूर्वा की 21 गांठें बनाकर खाने के लिए दी। ‘दूर्वा’ को खाते ही गणेश जी के पेट की जलन शांत हो गई और गणेश जी प्रसन्न हुए जिसके बाद सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित समस्त धरती वासियों ने गणेश की खूब जय-जयकार की। कहा जाता है तभी से भगवान गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
गणेश पूजन में ‘इदं दुर्वादलं ऊं गं गणपतये नमः’ मंत्र बोलकर गणेश जी को दूर्वा अर्पित करें।
इसके अलावा गणेश पुराण में दूर्वा को लेकर एक और कथा भी है, जिसके अनुसार, नारदजी भगवान गणेश को जनक महाराज के अंहकार के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि वह स्वयं को तीनों लोकों के स्वामी बताते हैं। इसके बाद गणेशजी ब्राह्मण का वेश धारण कर मिथिला नरेश के पास उनका अंहकार चूर करने के लिए पहुंचे। तब ब्रह्माण ने कहा कि वह राजा की महिमा सुनकर इस नगर में पहुंचे हैं और बहुत दिनों से भूखें हैं। तब जनक महाराज ने अपने सेवादारों से ब्राह्मण देवता को भोजन कराने के लिए कहा।
तब गणेशजी ने पूरे नगर के अन्न खा गए लेकिन उनकी तब भी भूख शांत नहीं हुई। इस बात की जानकारी राजा को मिली और उसने अपने अंहकार के लिए गणेशजी से क्षमा मांगी। तभी ब्राह्मण रूप धरे गणेशजी गरीब ब्राह्मण त्रिशिरस के द्वार पर पहुंचते हैं। जहां उनको भोजन कराने से पहले ब्राह्मण त्रिशिरस की पत्नी विरोचना ने गणेशजी को दूर्वांकुर अर्पित किया। इसे खाते ही भूख शांत हो गई और वह पूरी तरह तृप्त हो गए। इसके बाद गणेशजी ने दोनों को मुक्ति का आशीर्वाद दिया। तब से गणेशजी को दूर्वांकुर जरूर चढ़ाया जाता है। इसको चढ़ाने से पार्वती पुत्र की कृपा जल्दी भक्तों पर होती है।