साधक व्यक्ति को श्राद्ध का भोजन नहीं करना चाहिए
स्वाध्याय, अर्थात अपने कर्मों का चिंतन करना । मनन की तुलना में चिंतन अधिक सूक्ष्म होता है । अतः, चिंतन से जीव की देह पर विशिष्ट गुण का संस्कार दृढ होता है । सामान्य जीव रज-तमात्मक माया-संबंधी कार्यों का ही अधिक चिंतन करता है । इससे, उसके सर्व ओर रज-तमात्मक तरंगों का वायुमंडल निर्मित होता है । यदि ऐसे संस्कारों के साथ हम भोजन करने श्राद्धस्थल पर जाएंगे, तो वहां के रज-तमात्मक वातावरण का अधिक प्रभाव हमारे शरीर पर होगा, जिससे हमें अधिक कष्ट हो सकता है । यदि कोई व्यक्ति साधना करता है, तो श्राद्ध का भोजन करने से उसके शरीर में सत्त्वगुण की मात्रा घट सकती है । इसलिए, आध्यात्मिक दृष्टी से श्राद्ध का भोजन लाभदायक नहीं होता है ।
श्राद्ध का भोजन करने पर उस दिन पुनः भोजन करना
श्राद्ध का रज-तमात्मक युक्त भोजन ग्रहण करने पर, उसकी सूक्ष्म-वायु हमारी देह में घूमती रहती है । ऐसी अवस्था में जब हम पुनः भोजन करते हैं, तब उसमें यह सूक्ष्म-वायु मिल जाती है । इससे, इस भोजन से हानि हो सकती है । इसीलिए, हिन्दू धर्म में बताया गया है कि उपरोक्त कृत्य टालकर ही श्राद्ध का भोजन करना चाहिए ।’ कलह से मनोमयकोष में रज-तम की मात्रा बढ जाती है । नींद तमप्रधान होती है । इससे हमारी थकान अवश्य मिटती है, पर शरीर में तमोगुण भी बढता है ।