भक्त मीरा ने गुरु के बारे में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं होती । भक्तिपूर्ण इंसान ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है। वही सच्चा गुरु है। स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रैदास थे । मीरा के पदों में भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम की ओजस्वी प्रवाह-धारा और प्रीतम से वियोग की पीड़ा का मर्मभेदी वर्णन मिलता है । प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के बराबर शायद ही कोई कवि हो । उनका यह पद आज भी जीवंत हैं..
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई ।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई ।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई ।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई ।
भगत देखि राजी भई, जगत देखि रोई ।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई ।
मीरा के लिए कृष्ण भ्रम नहीं हकीकत थे
“इंसान आमतौर पर शरीर, मन और बहुत सारी भावनाओं से बना है । यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने शरीर, मन और भावनाओं को समर्पित किए बिना किसी चीज के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर सकते । कुछ लोगों के लिए यह समर्पण, शरीर, मन और भावनाओं के परे, एक ऐसे धरातल पर पहुंच गया, जो बिलकुल अलग था, जहां यह उनके लिए परम सत्य बन गया था । ऐसे लोगों में से एक मीराबाई थीं, जो कृष्ण को अपना पति मानती थीं । श्रीकृष्ण को लेकर मीरा इतनी दीवानी थीं कि महज आठ साल की उम्र में मन ही मन उन्होंने कृष्ण से विवाह कर लिया । उनके भावों की तीव्रता इतनी गहन थी कि श्रीकृष्ण उनके लिए सच्चाई बन गए । यह मीरा के लिए कोई मतिभ्रम नहीं था, यह एक सच्चाई थी कि कृष्ण उनके साथ उठते-बैठते थे, घूमते थे । इस पद में मीराबाई के भाव का क्या कहना अद्भूत..
पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो ।
बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो ।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो ।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो ।
सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस पायो ।।