उस दौर में कोई राजपूत शासक अकबर के सामने तलवार उठाने को तैयार नहीं था। वह महाराणा प्रताप को भी अपनी अधीनता स्वीकार कराना चाहता था। मगर, जैवंता बाई की कोख से जन्में मेवाड़ के लाल के मन में मातृभूमि की रक्षा और स्वाभिमान की ज्वाला अकबर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के सुनहरे ख्वाब से कहीं अधिक दैदिप्यमान थी। प्रताप ने तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद अकबर के सारे संधि प्रस्तावों को ठुकराकर युद्ध चुना। दिन भी तय हो गया और जगह भी।
आमेर के राजा मानसिंह के नेतृत्व में विशाल मुगल फौज ने अजमेर से मेवाड़ कूच किया। गोगुंदा से मुठ्ठीभर सेना लिए प्रताप अपने रणवीरों के साथ खमनोर व बलीचा के बीच घाटियों में जम गए। 18 जून 1576 का सूर्योदय होने के साथ ही ऐसा भीषण युद्ध हुआ, जो इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। राणा प्रताप के खास सिपहसालारों सहित हजारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, मगर उन्होंने अकबर का दंभ हल्दीघाटी में चूर-चूर कर दिया।
आज उसी हल्दीघाटी युद्ध की 448वीं बरसी है। युद्धतिथि हमें याद दिला रही है कि कैसे महाराणा प्रताप के प्रिय अश्व चेतक, झाला मान, ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर, उनके दोनों पुत्रों, हाकीम खां सूर जैसे अनगिनत बलिदानों ने हमारे मेवाड़ की आजादी पर आंच नहीं आने दी।