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बॉलीवुड

Mithun Chakraborty की नई पारी : कभी अमिताभ के बाद सबसे महंगे एक्टर थे, 90 के दशक में की सी-डी ग्रेड फिल्में

5 साल तक दूर रहने के बाद फिर सियासत में सक्रिय हुए मिथुन चक्रवर्ती ( Mithun Chakraborty )
टीएमसी ( TMC ) ने बनाया था राज्यसभा सांसद, तीन बार ही सदन में पहुंचे
फिल्मों में कभी अमिताभ बच्चन ( Amitabh Bachchan ) के बाद सबसे महंगे अभिनेता थे

Mar 08, 2021 / 08:14 pm

पवन राणा

-दिनेश ठाकुर
करीब 33 साल पहले का जयपुर। आमेर किले के पास सागर लेक क्षेत्र में मिथुन चक्रवर्ती ( Mithun Chakraborty ) की ‘दाता’ की शूटिंग चल रही थी। प्रशंसकों से घिरे मिथुन ( जो शौकिया गायक भी हैं) फरमाइश पर धीमे-धीमे अपनी फिल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ का गीत गुनगुना रहे थे, ‘तुम्हें अपना साथी बनाने से पहले, मेरी जान मुझको बहुत सोचना है।’ वाकई सियासत में नई पारी शुरू करने से पहले मिथुन दादा को बहुत सोचना पड़ा। अटकलें काफी समय से गरम थीं। वह ‘आप जो समझ रहे हैं, वैसा कुछ नहीं है’ कहकर पत्ते नहीं खोल रहे थे। अब जबकि वह भाजपा ( BJP ) में शामिल हो चुके हैं, अपनी पुरानी फिल्म ‘सुरक्षा’ का गीत गुनगुना रहे होंगे, ‘मैंने प्यार किया तो ठीक किया/ इकरार किया तो ठीक किया/ इक बार किया तो ठीक किया/ सौ बार किया तो ठीक किया।’

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कभी वामपंथी थे
सियासत में स्थायी और स्थिर कुछ नहीं होता। इसमें ‘घाट-घाट का पानी’ पीने वालों की अलग महिमा है। खासकर जब कोई अभिनेता से नेता बनता है, तो कबीर के मिसरे ‘जाति न पूछो साधु की’ वाली तर्ज पर उससे उसकी पार्टी नहीं पूछनी चाहिए। बहते पानी और रमते जोगी की तरह आज यहां, कल वहां। निदा फाजली के शेर से बात और साफ हो जाती है, ‘अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं/ रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।’ फिल्मों में आने से पहले मिथुन का नाम गौरांगो चक्रवर्ती था। वामपंथी विचारधारा रखते थे। फिल्मों में जमने के बाद कम्युनिस्ट हो गए। लचीले कम्युनिस्ट, क्योंकि एक बार लोकसभा चुनाव के दौरान वह कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी के लिए भी प्रचार करते नजर आए थे।

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राज्यसभा की सदस्यता छोड़ी
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की विदाई के बाद वह तृणमूल कांग्रेस से जुड़े। इस पार्टी के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य बने। सांसद रहते हुए सिर्फ तीन बार राज्यसभा गए। वह शारदा चिटफंड कंपनी के ब्रांड एम्बेसेडर थे। इस कंपनी के महा घोटाले की जांच के दौरान उनका नाम भी उछला, तो सियासत से उनका मोहभंग हुआ। पांच साल पहले राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद वह सियासत से दूर थे। दक्षिण में सिनेमा और सियासत दूध में पानी की तरह घुल-मिल चुके हैं। देश के बाकी हिस्सों में इनका वैसा मेल-मिलाप नहीं हो सका। उत्तर और पूर्वी भारत में फिल्मी कलाकारों का इस्तेमाल चुनावी मौसम में भीड़ जुटाने के लिए ज्यादा होता है।

तीन बार जीता नेशनल अवॉर्ड
सियासत में भले मिथुन चक्रवर्ती अब तक कोई कारनामा नहीं कर पाए हों, फिल्मों में उन्होंने बड़े-बड़े तीर मारे हैं। पहली ही फिल्म ‘मृगया’ (1976) के लिए उन्होंने नेशनल अवॉर्ड जीता था। एक दौर में अमिताभ बच्चन के बाद वह सबसे महंगे अभिनेता हुआ करते थे। अमिताभ बच्चन की ‘दो अनजाने’ में उनका दो-तीन मिनट का मामूली-सा रोल था। बाद की फिल्मों (गंगा जमुना सरस्वती, अग्निपथ) में वह अमिताभ के साथ सह-नायक बनकर आए। उन्हें दो और फिल्मों ‘तहादेर कथा’ (1992) और ‘स्वामी विवेकानंद’ (1998) के लिए नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया।

डिस्को और कराटेनुमा मारधाड़ के जनक
हिन्दी फिल्मों में डिस्को और कराटेनुमा मारधाड़ का दौर मिथुन चक्रवर्ती ने शुरू किया। सत्तर के दशक में अपेक्षाकृत कम बजट वाली ‘सुरक्षा’, ‘तराना’ और ‘प्रेम विवाह’ की कामयाबी के बाद उन्हें ‘गरीबों का अमिताभ बच्चन’ कहा जाता था। अस्सी के दशक में ‘प्यार झुकता नहीं’ (1985) की धमाकेदार कामयाबी के बाद उनका कॅरियर रॉकेट की रफ्तार से ऊपर गया। यह फिल्म 1973 में आई ‘आ गले लग जा’ (शशि कपूर, शर्मिला टैगोर) की नकल थी, लेकिन जनता जनार्दन को खूब भाई। ‘गुलामी’ (1985) में मिथुन ने बार-बार ‘कोई शक’ दोहराकर अपने आलोचकों के सारे शक दूर कर दिए। यह जरूर है कि नब्बे के दशक से उन्होंने अपनी प्रतिभा और ऊर्जा सी-डी ग्रेड की फिल्मों (चंडाल, जख्मी सिपाही, जनता की अदालत, चीता, गुंडा) में ज्यादा खर्च की। फिल्मों में सिक्का जमने के बाद उनका जोर ‘आने भी दो यारो’ पर रहा।

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