किशोर साहू मूलत: लेखक थे। उस दौर के हिन्दी साहित्य में मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव के साथ उन्हें भी प्रमुख कहानीकारों में गिना जाता था। वे राजनंदगांव (छत्तीसगढ़) में पले-बढ़े। यह शहर कभी रेडियो पर गानों की फरमाइश भेजने में झूमरी तलैया (झारखंड) से टक्कर लेता था। चालीस के दशक में किशोर साहू लेखक, निर्देशक और अभिनेता के तौर पर फिल्मों से जुड़े। उनके निर्देशन में बनी ‘नदिया के पार’ (1948) दिलीप कुमार के शुरुआती दौर की सबसे कामयाब फिल्मों में गिनी जाती है। किशोर साहू ने जब अपनी कहानी पर ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ बनाने का फैसला किया तो कई निर्माताओं को त्रिकोणीय प्रेम वाली कहानी पसंद नहीं आई। उनका कहना था कि रईस युवती से शादी के बाद नायक डॉक्टर के पूर्व प्रेमिका नर्स के साथ रिश्ते कायम रखने को समाज स्वीकार नहीं करेगा। आखिरकार कमाल अमरोही निर्माता बनने को तैयार हुए, जो उन दिनों अपनी पत्नी मीना कुमारी को लेकर ‘पाकीजा’ बना रहे थे।
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ तैयार हुई, लेकिन कमाल अमरोही इसके नक्शे से खुश नहीं थे। वे कहानी में कुछ बदलाव के लिए दबाव डालते रहे, जो किशोर साहू को मंजूर नहीं थे। इस तनातनी को लेकर कमाल अमरोही ने फिल्म के पोस्टर्स पर अपना नाम नहीं दिया। उन्होंने यह वादा जरूर किया कि अगर फिल्म चल गई तो वे किशोर साहू को एक कार तोहफे में देंगे। फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई। किशोर साहू ने ‘मेरी आत्मकथा’ में लिखा है- ‘यह तोहफा आज तक नहीं मिला।’ यह जरूर हुआ कि इधर ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ के सिनेमाघरों में भीड़ बढ़ती गई, उधर बाद के पोस्टर्स पर निर्माता कमाल अमरोही का नाम भी नजर आने लगा।
कई साल बाद ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ की कहानी में मामूली हेर-फेर के साथ अमिताभ बच्चन, अनिल कपूर, प्रीति जिंटा और ग्रेसी सिंह को लेकर निर्देशक हनी ईरानी ने ‘अरमान’ (2003) बनाई, जिसके साथ ‘माया मिली न राम’ वाला मामला रहा। इसकी कहानी हनी के पूर्व पति जावेद अख्तर ने लिखी थी। कहानी और ट्रीटमेंट, दोनों मोर्चों पर यह निहायत कमजोर फिल्म साबित हुई।