100 से ज्यादा फिल्मों में संगीत
बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की तरह एस.एन. त्रिपाठी भी कभी पहलवान थे। बाकायदा वाराणसी (बनारस) के अखाड़े में पहलवानों से दो-दो हाथ किया करते थे। उनका मानना था कि दमदार संगीत के लिए संगीतकार में दम-खम होना जरूरी है। शास्त्रीय संगीत की बारीकियां उन्होंने लखनऊ के मॉरिस कॉलेज से सीखीं। इस कॉलेज की स्थापना शास्त्रीय संगीत के दिग्गज पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने की थी। उन दिनों खुर्शीद मिनॉशर-होमजी वहां संगीत पढ़ाया करती थीं, जो बाद में फिल्मों में सरस्वती देवी के नाम से मशहूर हुईं। उन्हें और जद्दन बाई (नर्गिस की मां) को हिन्दी सिनेमा की पहली महिला संगीतकार माना जाता है। मॉरिस कॉलेज में सरस्वती देवी के सम्पर्क ने एस.एन. त्रिपाठी के लिए फिल्मों का रास्ता खोला। तीस से अस्सी के दशक तक उन्होंने 100 से ज्यादा फिल्मों को अपनी खास शैली के संगीत से सजाया। लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, गीता दत्त, आशा भोसले, मुकेश, महेंद्र कपूर उनके पसंदीदा गायक थे।
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निर्देशन भी किया, अभिनय भी
एस.एन. त्रिपाठी हरफनमौला फनकार थे। उन्होंने कई फिल्मों का निर्देशन भी किया और कइयों में बतौर एक्टर नजर आए। उनके हिस्से में पौराणिक फिल्में ज्यादा आईं। इसलिए पौराणिक संगीतकार का लेबल ताउम्र उनके साथ रहा। हकीकत यह है कि पौराणिक से इतर कई फिल्मों में उन्होंने अलग-अलग रंगों वाली धुनें रचीं। इनमें ‘ओ पवन वेग से उडऩे वाले घोड़े’, ‘न किसी की आंख का नूर हूं’, ‘लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में’ शामिल हैं।
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‘लाल किला’ से बढ़ा गजलों का चलन
ऐतिहासिक फिल्म ‘लाल किला’ को आज सिर्फ मोहम्मद रफी की आवाज वाली दो गजलों ‘न किसी की आंख का नूर हूं’ और ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ के लिए याद किया जाता है। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी इन गजलों की धुनों में एस.एन. त्रिपाठी ने नया प्रयोग किया। सीमित वाद्यों वालीं यह स्वर प्रधान धुनें एक-एक मिसरे के भाव की गहरी अभिव्यक्ति हैं। फिल्मों में गजलों का चलन इन दो गजलों की लोकप्रियता के बाद बढ़ा। बाद में संगीतकार मदन मोहन गजलों के बादशाह के तौर पर मशहूर हुए। मुगल शैली के संगीत पर अपनी गहरी पकड़ के जौहर एस.एन. त्रिपाठी ने ‘हातिमताई’ में भी दिखाए। इस फिल्म में मोहम्मद रफी की आवाज वाली नात ‘परवरदिगारे-आलम तेरा ही है सहारा’ अपने जमाने में काफी मकबूल हुई थी। आज भी मकबूल है।