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इंसानियत के लिये मिसाल है शहादत-ऐ-हुसैन, जानिये क्यों खास है मोहर्रम की 10 तारीख

-मोहर्रम का महीना इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है।-इस महीने के 10वें दिन रोज-ए-आशुरा मनाया जाता है।-साल साल मोहर्रम की 10 तारीख 19 अगस्त 2021 को है।

भोपालAug 19, 2021 / 01:41 am

Faiz

इंसानियत के लिये मिसाल है शहादत-ऐ-हुसैन, जानिये क्यों खास है मोहर्रम की 10 तारीख

भोपाल. इस्लामिक महीनों के मुताबिक, मोहर्रम साल का पहला महीना है। वैसे तो साल के सभी महीनों का अपना एक मकसद है, लेकिन शिया और सुन्नी बिरादरी के नजरिये से देखें, तो साल के इस पहले माह को और भी महत्व दिया गया है। पवित्र किताब कुरआन के मुताबिक, वैसे तो मोहर्रम के महीने में कई तारीखी वाक्यात हुए, जिनमें ज्यादातर खुशी से जुड़े हैं। लेकिन, मोहर्रम के ही महीने की 10 तारीख को आखिरी पैगंबर मोहम्मद मुस्तफा स. के नवासे इमाम हुसैन और उनके परिवार के सदस्यों की शहादत के दिन के तौर पर जाना जाता है। इस दिन यो योम-ए-आशूरा (आशूरा का दिन) कहा जाता है। इस बार मोहर्रम माह की 10 तारीख 19 अगस्त 2021 को है। ऐसे में जहां मुस्लिम बिरदरी के लोग रोजे रखकर, गरीबों की मदद करके इन दिनों को याद रखते हैं, तो वहीं शिया बिरादरी उर्स और मातम करके इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं।


इस्लामिक कानून के मुताबिक, एक माह को तीन अशरों में बांटा गया है। एक अशराह यानी माह के दस दिन। इसी तरह करीब तीन अशरों का एक माह होता है। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, पहले अशरे पर (महीने की 10 तारीख) इमाम हुसैन, उनके परिवार और मिलने जुलने वाले 72 लोगों को मक्का (सऊदी अरब का शहर) से 1661 किलोमीटर दूरी पर स्थित कर्बला (इराक का एक शहर) के मैदान में शहीद कर दिया गया था। यही नहीं उन सभी मरने वाले 72 लोगों के सिर कलम करके नेजे पर चढ़ाकर उन्हें शहरों-शहर घुमाया गया था। इसी के बाद से मोहर्रम के पहले 10 दिन तैमूरी रिवायत को मानने वाले मुसलमान ताजियों-अखाड़ों को ठंडा करके शोक मनाते हैं। तो वहीं, अकसर मुसलमान रोजा-नमाज के जरिये उन्हें याद करते हैं।


इस हिसाब से अगर गौर करें, तो इमाम हुसैन की शहादत की याद में मोहर्रम महीने के दस दिनों को किसी त्योहार के रूप में नहीं बल्कि शहादत और इंसानियत के दस दिनों के तौर पर जाना जाता है। पाक किताब (पवित्र ग्रंथ) कुरआन के मुताबिक, पैगंबर मोहम्मद सा. अल्लाह (ईश्वर) के भेजे हुए आखिरी पैगंबर (ऋषि) हैं। उन्होंने हमेशा ही अपने जीवन में लोगों को एक ईश्वर के होने का सच बताया। इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल यानी पैगंबर मोहम्मद स. के दो नवासों में से एक थे। पैगंबर सा. अपने छोटे-छोटे से दोनो नवासों (हसन और हुसैन र.) से कितनी मोहब्बत करते थे, इसके कई किस्से हैं, जिन्हें इस रिपोर्ट में बयान करना संभव नहीं, क्योंकि यहां हम मोहर्रम पर बात कर रहे हैं।

 

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पैगंबर मोहम्मद साहब के बाद ये लोग बने खलीफा

पैगंबर मोहम्मद साहब के इस दुनिया से जाने के बाद मोहम्मद साहब के ससुर अबू बकर र. को खलीफा (राजा) नियुक्त किया गया था। इन्हीं की खिलाफत में रहकर सभी मुसलमान पैगंबर मोहम्मद साहब के बताए तरीकों के मुताबिक इस्लाम को मानते हैं। अबू बकर र. की मृत्यु के बाद पैगंबर मोहम्मद साहब के एक और सहाबी (सहाबी- वो व्यक्ति जिसने पैगंबर मोहम्मद साहब से स्वयं ज्ञान प्राप्त किया हो) हजरत उमर खलीफा बने। हजरत उमर के निधन के बाद एक अन्य सहाबा उस्मान ग़नी खलीफा नियुक्त किये गए। इसके बाद पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद हजरत अली खलीफा बने। याद रहे कि, हजरत अली हसन और हुसैन र. के पिता हैं। हजरत अली के निधन के बाद हजरत हसन जो पैगंबर मोहम्मद साहब के बड़े नवासे थे, खलीफा बने। इस समय तक पैगंबर मोहम्मद साहब को इस दुनिया से गए करीब 50 साल हो चुके थे।


जब अमन की खातिर हजरत हसन ने त्याग दी बादशाहत

हजरत हसन की खिलाफत के दौर में मुसलमान दो गुटों में बंटने लगे थे। एक छोटा ग्रुप उस समय के एक और बुजुर्ग सहाबा हजरत मोआविया र. को खलीफा बनाने की मांग करने लगे। इसपर हजरत हसन ने खलीफा के पद से इस्तीफा देकर खिलाफत की कमान हजरत मोआविया को सौंप दी, यानी बादशाहत त्याग दी। लेकिन, हजरत मोआविया के निधन के बाद उनके बेटे यजीद ने खुद ही खलीफा होने का ऐलान कर दिया और अरब मुमालिक की सभी रियासतों में यजीद को खलीफा तस्लीम कर लेने पर जोर दिया। इस बात की खबर जब पैंगबर मोहम्मद साहब के छोटे नवासे इमाम हुसैन को लगी, तब वो मदीना शहर में रहते थे। वो वहां से अपने परिवार के लोगों के साथ मक्का पहुंचे और पिछले खलीफाओं की बुजुर्ग ओलादों से इस संबंध में पूछा। इस दौरान उन्हें मालूम हुआ कि, यजीद जलिम प्रवत्ति का व्यक्ति है और खलीफा का पद उसके हाथ में रहने का मतलब है, जालिम के हाथ में सत्ता चली जाना।


जब कूफा के लोगों ने हुसैन को बुलाया

ऐसे में इमाम हुसैन ने यजीद की बात मानने से इंकार कर दिया। इसी बीच कूफा (आज का इराक) के 12000 परिवारों ने कहा कि, हम इमाम हुसैन को खलीफा मानते हैं और उन्हीं की बेअत (सरदार मानेंगे) करेंगे। कूफा के गवर्नर की तरफ से ये पैगाम भेजा गया था। साथ ही, उन्हें वहां का बुलावा भी भेजा गया। जैसे ही, कूफा के लोगों की ओर से इमाम हुसैन को बुलाने की बात यजीद को पता लगी, तो उसने सबसे पहले कूफा पर हमला कर वहां का गवर्नर बदल दिया। इमाम हुसैन को अपना खलीफा चुनने वाले गवर्नर के बजाय वहां यजीद ने अपना गवर्नर बैठा दिया।


जब यजीद के गवर्नर ने हुसैन को धमकाया

जालिम के सामने सर झुकाने के बजाय, सर कटाने को दी तरजीह

जरा सोचिये कि, भला कोन शख्स ऐसा होगा जो अपनी जान के बदले में अपना पूरा धन-दौलत और यहां तक की सबकुछ दे देने में ही अपनी भलाई समझेगा। लेकिन, इमाम हुसैन के सामने तो उनके परिवार के एक-एक सदस्य को मारने के बाद उनसे पूछा जा रहा था कि, बोलो अब यजीद को खलीफा चुनते हो कि, नहीं? तो जवाब में इमाम हुसैन कहते रहे कि, जालिम के आगे सर झुकाने से बेहतर है, सर कटा दें। देखते ही देखते इमाम हुसैन के परिवार और उनके साथियों में शामिल कूफा जा रहे लोगों में से 72 सदस्यों को शहीद कर उनके सिर काटकर नेजों पर टांग दिये गए। इसके बाद भी इमाम हुसैन से पूछा गया, तो उन्होंने जान बचाने के लिये हक से हटने को गलत कहा। जरा सोचिये, कि वो दिन किस बरबरियत पर इंसानियत की मिसाल पेस कर रहा होगा, जब 72 सिर कटकर लोहे के नेजों पर टंगे थे। उनमें से एक सिर इमाम हुसैन के पोते अब्दुल्लाह का भी था, जिसकी उम्र सिर्फ 10 माह थी। इसके बाद भी जब इमाम हुसैन यजीद की पैरवी करने पर राजी न हुए, तो उसके गवर्नर ने बेरहमी से हुसैन को भी शहीद कर दिया।


आज भी सीरिया में मौजूद है वो खूनी मैदान

इसके बाद यजीद के गवर्नर ने नेजों पर चढ़े सभी 72 सिरों को शहर में घुमाते हुए यजीद के महल ले गया। साथ ही, ये ऐलान कर गया कि, जो कोई भी इन शवों को उठाकर ले जाएगा या दफन करेगा, उसे कड़ी सजा दी जाएगी। इसपर, वहां के लोगों में खासा देहशत की वजह से कोई भी उन्हें लेने नहीं आया। लेकिन, उस रेतीले इलाके में एक तेज हवा चली, जिसकी वजह से उस मैदान में पड़े सभी शव खुद ब खुद रेत में इस तरह दब गए, मानों वहां उनकी कब्र हो। इमाम हुसैन समेत उन सभी 72 लोगों की कब्रें आज भी इराक के कर्बला शहर के उसी मैदान में मौजूद हैं।


शहीद होकर पैश की इंसानियत की मिसाल, लौट आते… तो बस जान ही बचा पाते

इमाम हुसैन की शहादत को इंसानियत की मिसाल माना जाता है। क्योंकि, उन्होंने न सिर्फ खुद को बल्कि अपने पूरे खानदान को मरकर नेजों पर चढ़ते हुए देखना मंजूर किया। लेकिन, बुराई को लोगों पर मुसल्लत होना कबूल नहीं किया। वो खुद तो सर कटाकर चले गए, लेकिन सच पर कायम रहने की मिसाल पेश कर गए। क्या चला जाता अगर यजीद की पैरवी करके खुद को और अपने परिवार और करीबी साथियों को बचा लाते, लेकिन उन्होंने अपने परिवार से ज्यादा इंसानियत को किसी जालिम बादशाह के चंगुल में फंसने से बचाने के लिये अपनी जान कुर्बान कर दी और आगे आने वाले लोगों को हर शर्त पर इंसानियत और सच पर डटे रहने की सीख दे दी।

 

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