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शकील खान
ये एक ऐसा गुमनाम नाम है, जिसे शायद भोपाल के गैस पीड़ित बुजुर्गों के अलावा आज कोई नहीं जानता। लेकिन, ये नाम उस शख्स का है, जिसने अपनी जान गंवाकर उस रात लाखों लोगों की जान बचाई थी। शकील यूनियन कार्बाइड में काम करने वाले मजदूर थे। जिस समय गैस निकली उस समय फैक्ट्री का लगभग पूरा स्टॉफ जा चुका था। शकील भी वहां नहीं थे। लेकिन कंपनी द्वारा सूचित किये जाने के बाद ये तुरंत फेक्ट्री की ओर निकल पड़े। हालांकि, लीक होने वाली गैस इतनी जहरीली थी, कि फैक्टी में जाने की हिम्मत जुटा पाना किसी भी कर्मचारी के बस में नहीं था। शहर में मचे मौत के तांडव और चारों ओर से आ रही चीख पुकार की आवाज को सुनकर अपनी जान की परवाह किये बगैर, सुरक्षा इंतेजाम ना होने के बावजूद शकील लीक हो रही गैस का वॉल बंद करने करीब 20 से 30 फिट ऊंचे टैंक पर चढ़ गए। उस मंजर को देखने वालों ने बताया टैंक पर चढ़ने के बाद शकील उस गैस के प्रेशर को सीधे अपने ऊपर झेल रहा था, जिसके हवा में मिलने से ही हजारों लोगों की जान चली गई थी।
शकील ने अपनी जान पर खेलते हुए उस पाइप के वॉल को तो बंद कर दिया, जिससे वो जहरीली गैस फूटे हुए टैंक में आ रही थी और वहीं से शहर की फिजा में घुल रही थी। फैक्ट्री में काम करने वाले एक कर्मचारी ने बताया कि, जिस वॉल को शकील ने बंद किया वो बिना पाने के बंद नहीं किया जा सकता था और जिस जहरीली गैस के टैंक पर वो बैठा था उसमें साइनाइट मिला था, जो चंद सैकंडों में इंसान को मारने के लिए पर्याप्त था। लेकिन शकील ने अपने हाथों से सैकंडों में दम घोंट देने वाले स्थान पर बैठकर उस वॉल को बंद कैसे कर दिया, इसे सिर्फ चमत्कार ही कहा जा सकता है। हालांकि, शकील वॉल बंद करते ही जहरीली गैस से ग्रस्त होकर बेहोश हो गए थे और करीब 20 से 30 फिट ऊंचे टैंक से नीचे गिर गए थे। गैस का रिसाव बंद होने के बावजूद भी उन्हें उठाने जा पाना संभव नहीं था।
प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो गैस रिसाव पूरी तरह बंद होने के बाद जब फैक्ट्री के सदस्य सुरक्षा इंतेजामों के साथ उन्हें देखने पहुंचे तो शकील के शरीर के कई अंग गल गए थे। इतनी ऊंचाई से गिरने पर उनके शरीर की कई हड्डियां भी टूट गईं थीं और बैहोश थे, आनन फानन में उन्हें शहर के जिला हमीदिया अस्पताल पहुंचाया गया, जहां कुछ दिनों के उपचार के बाद उनका निधन हो गया। गैस त्रासदी के बाद तो शहर पूरी तरह खाली हो गया था, लेकिन शहर वापस लौटने के बाद जैसे जैसे लोगों को शकील के बारे में पता चलता गया, मानों एक एक करके पूरा शहर ही उस जांबाज को देखने हमीदिया अस्पताल पहुंचने लगा। लेकिन उनपर गैस का इतना ज्यादा असर था कि, समय के डॉक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।
त्रासदी की रात शहर में मरने वालों का सरकारी आंकड़ा तीन हजार के पार था। वहीं, कुछ प्राइवेट एजेंसियों का कहना था कि, मरने वालों की संख्या 7 से 8 हजार थी, वहीं कुछ संगठनों ने उस रात 15 हजार से ज्यादा लोगों के मरने का दावा किया था। वहीं, त्रासदी के बाद हुई फैक्ट्री की जांच में सामने आया था कि, पलांट में तीन दिनों तक रिसने के हिसाब की गैस थी, साथ ही रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि, अगर सिर्फ 24 घंटे ही गैस का रिसाव होता रहता, तो वो पूरे शहर को मौत की नींद सुलाने के लिए पर्याप्त था और तीन दिनों में ये पूरे प्रदेश को भी अपनी चपेट में ले सकता था। सोचिये, अगर शकील ने अपनी जान गंवाकर उस वॉल को बंद नहीं किया होता तो मरने वालों का आंकड़ा क्या होता।
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आलोक प्रताप सिंह
ये गैस पीड़ितों के हक में आवाज उठाने वाले आलोक प्रताप सिंह पहले व्यक्ति थे, भोपाल गैस त्रासदी के मात्र चौथे दिन यानी 7 दिसंबर 1984 को आलोक प्रताप सिंह ने विभूती झा, रामप्रकाश त्रिपाठी, हरदेनिया जी, डॉ. हरीशचंद्र, प्रमोद तांबत, अजय सिंह (SBI यूनियन लीडर), अशोक जैन भाभा, जे.सी बरई (SUCI, BHEL यूनियन लीडर) संतोष चौबे, श्री राम तिवारी आदि लोगों को साथ लेकर ‘जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा’ नाम से संगठन बनाया, जिसने त्रासदी का शिकार हुए पीड़ितों के हक में सबसे पहली आवाज बुलंद की। इसी संगठन द्वारा त्रासदी का शिकार हुए लोगों की पीड़ा के आधार पर देश के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई, जिसके आधार पर ही न्यायालय के आदेश द्वारा पहली बार पीड़ितों को 350 करोड़ अंतरिम मुआवजा दिया गया। इन्हीं के संगठन के बेनर तले यूनियन कार्बाइड का कचरा हटाने और इसके पुनर्वास की योजना बनाने को लेकर साल 1984 से 89 के बीच बड़ा जन आंदोलन किया गया। आलोक प्रताप सिंह गैस पीड़ितों के हित की लड़ाई लड़ते लड़ते इस दुनिया से चले गए हैं, लेकिन उनके पुत्र अनन्य प्रताप के नेत़ृत्व में आज भी संगठन बीते 34 सालों से निरंतर गैस पीड़ितों के हक की आवाज बुलंद कर रहा है।
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अब्दुल जब्बार
इन्हें गैस पीड़ितों के संघर्ष का चेहरा कहना सबसे सटीक नाम होगा। अब्दुल जब्बार को लोग प्रेम से (जब्बार भाई) नाम से पुकारते थे। इन्होंने अकेले ही बीते 35 सालों तक भोपाल गैस पीड़ितों के लड़ाई को पूरे जुनून के साथ लड़ी। इसी साल बीते महीने 14 नवंबर को लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया। अब्दुल जब्बार कोई प्रोफेशनल सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे। बल्कि, उन्होंने गैस पीड़ितों के हित और उन्हें इंसाफ दिलाने का प्रण लिया था और इसी को उन्होंने मरते दम तक मिशन बनाए रखा।
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इस कच्चे मकान में रहते थे अब्दुल जब्बार, कई लोग समझते थे करोड़पति
अब्दुल जब्बार को गैस पीड़ितों के प्रति दर्द इसलिए भी ज्यादा था, क्योंकि वो खुद भी गैस त्रासदी का शिकार हुए थे। मिथाइल आइसोसाइनाइट का गहरा असर उनकी आंखों और फेफड़ों पर भी काफी ज्यादा हुआ था, जिसकी पीड़ा उन्हें जीवनभर रही। हालांकि, इन पीड़ाओं को परे रखते हुए सामूहिक संघर्ष का रास्ता चुना और गैस पीड़ितों के संघर्ष का चेहरा बन गए। आज भोपाल में गैस पीड़ितों को मिलने वाले पर्याप्त उपचार का केन्द्र यानी भोपाल मेमोरियल अस्पताल भी उन्हीं की मेहनतों का नतीजा है। बावजूद इसके, वो अपने अंतिम समय तक गैस पीड़ितों के मुआवजे, पुनर्वास और चिकित्सकीय सुविधाओं को व्यवस्थित कराने के लिए हमेशा लड़ते रहे। अप्रैल 2019 में ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गैस पीड़ितों के लंबित पड़े मामलों पर सुनवाई के लिए मुख्य न्यायाधीश के नाम 5 हजार से ज्यादा पोस्टकार्ड भेजे थे। उनके संघर्ष के बूते पर ही करीब पौने 6 लाख गैस पीड़ितों को मुआवजा और यूनियन काबाईड के मालिकों के खिलाफ कोर्ट में मामला दर्ज कराने में कामयाबी मिली थी। इस पूरी लड़ाई से उन्होंने अपने निजी हितों को पूरी तरह से दूर रखा और अपने अंतिम समय तक शहर के राजेंद्र नगर के अपने दो कमरों के पुराने मकान में ही रहे और दुनिया से जाने के बाद नजदीक ही स्थित चांदबढ़ कब्रिस्तान में अपनी मां की कब्र के पास सुपुर्दे खाक भी हुए।
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सिस्टर फेलिसिटी
अस्पताल के बरामदों और वार्डों में पड़े अनाथ बच्चों को बचाने के लिए जो कुछ भी बन पड़ा उन्होंने किया। दर्जनों बच्चे ऐसे थे जो अंधे होने के बावजूद इधर-उधर घूम रहे थे। अपनी ही उल्टी पर नंगे पैर बैठे खर्राटे भर रहे थे। सिस्टर ने सबसे पहले अस्पताल के भूतल पर एकदम अंत में ले जाकर बच्चों को अलग-अलग समूहों में इकट्ठा किया। उसने अस्पताल में ही अपना सहायता केंद्र बना रखा था।
उसने वार्ड में तेजी से भाग-दौड़ की ओर दूसरे बच्चों को उनके पास ले आई। उनमें से अधिकांश रात में खो गए थे। जब अफरा-तफरी तथा भय के मारे उनके माता-पिता ने उन्हें कुछ ट्रकों और कारों में सवार लोगों को सौंप दिया था। दो विद्यार्थियों की मदद से सिस्टर ने सावधानीपूर्वक बच्चों की आंखों को साफ किया, जिन पर गैस का असर हुआ था। कई पर तो असर तुरंत दिखा। उसकी खुद की आंखें आंसुओं से भर आई थीं। जब एक अनाथ बालक ने जोर से चिल्लाकर कहा था, हां मैं देख सकता हूं। इसके बाद वह उन लोगों को बचाने लगी जिनका चमत्कारिक ढंग से उसके सहायता केंद्र पर निदान कर दिया गया था।
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वी.के. शर्मा, उपस्टेशन मास्टर
उस बेरहम रात में सैकड़ों लोगों की जिंदगी बचाने में जुटे थे भोपाल स्टेशन पर कार्यरत उपस्टेशन मास्टर वी.के. शर्मा। इन्होंने यात्रियों से भरी ट्रेन के ड्राइवर को रेल को तेजी से भोपाल से बाहर ले जाने का आदेश दिया, साथ ही कई ट्रेनों को शहर में आने से बचाया, क्योंकि अगर ट्रेन में बैठे यात्री उस जहरीली गैस की चपेट में आ जाते, तो फिर इस गैस से होने वाला प्रभाव भारत के किन किन हिस्सों में जाता, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। शहर में आने वाली ट्रेनों को केंसल करने और शहर में आने या यहां से गुजरने वाले यात्रियों की जान की परवाह में जुटे उपस्टेशन मास्टर ने अपनी जान की परवाह किये बिना लोगों की रक्षा को अपना धर्म माना। बताया जाता है कि उनपर एमआईसी गैस का इतना प्रभाव हुआ था कि, उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए ही जहरीली गैस के प्रभाव से अपनी जान गंवा दी थी। लेकिन, इससे पहले ही उन्होंने शहर से सभी ट्रेनों को डाइवर्ट कर दिया था।
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मेजर कंचाराम खनूजा
भोपाल इंजीनियर दल इकाई कका यह सिख कमांडर उस विनाशक रात के महानायक थे। अपने बचाव के लिए उसने अग्रिशामकों वाला चश्मा और मुंह पर गीला रुमाल बांधकर लोगों को बचाने में पूरी रात जुटे रहे। वह गत्ता फैक्ट्री के चार सौ मजदूरों और उनके परिवारों को बचाने के लिए एक ट्रक पर चढ़ गए थे। जिनपर नींद के दौरान ही गैस ने हमला कर दिया था।
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डॉ. सत्पथी
हजारों लोग मौत की गहरी नींद में सो चुके थे। किसी को भी आज तक मृतकों का सही आंकड़ा नहीं पता। फिर भी उस समय डॉ. सत्पथी और एक फॉरेंसिक विशेषज्ञ ऐसे शख्स थे, जिन्होंने पीड़ितों की पहचान के लिए बड़ी संख्या में फोटो प्रदर्शित किए थे। उनमें से चार सौ लोग तो ऐसे थे जिनपर किसी ने दावा ही नहीं किया था। यानी उनके पूरे के पूरे परिवार ही तबाह हो गए थे।
डॉ. दीपक गांधी
भोपाल की उस काली रात में हमीदिया अस्पताल में ड्यूटी देने के नाम पर चंद डॉक्टर्स ही थे। वहीं कुछ अपनी जान बचाने के लिए वहां से निकल भागे थे। दीपक गांधी गैस पीडि़त लोगों को संभालने वाले पहले डॉक्टर थे। उसके बाद मरने वाले लोगों का ज्वचर ही पूरे शहर से फूट पड़ा। वे तीन दिन और तीन रात लगातार काम करते रहे। 3 दिसंबर की सुबह भोर तक हमीदिया अस्पताल अस्पताल नहीं बल्कि मरने वालों का एक विशाल घर बन चुका था।
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ग़ुलाम दस्तगीर
उस भयानक काली रात में हर कोई अपनी और अपने परिवार की जान बचाने में जुटा था। लेकिन इन सब के बीच एक शख्स ऐसा भी शख़्स था, जिसने न तो खुद की परवाह की और ना ही अपने परिवार की। उसने अपने एक फैसले से सैकड़ों की जान बचाई। बस न बचा पाया तो खुद अपने 3 बेटों को और ना ही अपनी पत्नी को। उस शख़्स का नाम है ग़ुलाम दस्तगीर। उस वक़्त गुलाम दस्तगीर भी भोपाल स्टेशन के डिप्यूटी स्टेशन सुप्रिटेंडेंट हुआ करते थे। रात की ड्यूटी पर जब वो स्टेशन पर गश्त पर निकले, तो उन्हें आंखों में जलन और गले में खुजली महसूस हुई। उस वक़्त स्चेशन पर गोरखपुर-कानपुर एक्सप्रेस खड़ी थी। जिसे छूटने में करीब 20 मिनट बाकी थे। लेकिन उन्हें किसी बड़े हादसे का आभास हो गया था। वो भाग कर अपने सीनियर्स के पास पहुंचे और ट्रेन को वक़्त से पहले खोलने का अनुरोध किया। ऐसा करना गलत था। लेकिन कुछ भी होने पर वो सारी गलती खुद की मानने को तैयार थे, जिसे देख उनके सीनीयर्स ने ट्रेन वक़्त से पहले खोलने का आदेश दे दिया।
जैसे ही ट्रेन वहां से निकली, भोपाल के हालात बद-से-बदतर हो गए। स्टेशन पर लोगों की भीड़ आने लगी। हर कोई शहर छोड़ कर भागना चाह रहा था। लेकिन एक भी ट्रेन नहीं आने वाली थी। ग़ुलाम ड्यूटी पर ही रहे, ये जानने के बाद भी कि उनका परिवार भी गैस कांड का शिकार हो सकता है। इतना ही नहीं, स्टेशन पर खड़े कई लोगों को उन्होंने बचाने का प्रयास किया। हालात अब काफी बिगड़ चुके थे। मदद के लिए जब वो अपने सीनीयर्स के पास पहुंचे तब तक, उनके साथ के 23 लोगों की जान जा चुकी थी। उस रात की घटना में ग़ुलाम ने उनके परिवार के 3 बेटों और पत्नी को खो दिया था, हादसे से बचे एक बेटा त्वचा की बीमारी से ग्रस्त हो चुका था। खुद गुलाम भी जहरीली गैस की चपैट में आकर त्वचा और फैफड़ों की बीमारी से घिर गए थे। इसकी बीमारी में रहते हुए साल 2003 में उनकी मौत हो गई।