खुद मैं भी उनके सामीप्य में कमोवेश दो दशक तक रहा। छात्र जीवन के उन रोमांचकारी क्षणों को भुलाए नहीं भूला जा सकता। जब महाराजा कॉलेज में आकर हम लोगों को अपनी विदेशी कार में बिठाकर पिकनिक पर ले जाते थे। उन्हें लोगों को खिलाने-पिलाने में जो आनंद आता था वह अविस्मरणीय है। वह सभी समाजों की सरदारी को अपने निवास मोती महल पर आमंत्रित कर भरतपुर में विकास की योजनाएं बनवाते थे। यही कारण था कि जब-जब भरतपुर, आगरा, मथुरा, अलीगढ़ मेवात या धौलपुर में प्रशासनिक या सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हुई। सरकारी अधिकारी एवं नेता उनसे परामर्श लेते थे। सन् 1972 की भयंकर बाढ़ में जब चारों ओर त्राहि मची थी। बृजेंद्र सिंह ने रात-दिन परिश्रम करके लोगों को राहत पहुंचाई। जिस गांव में वे जाते वहां गिरिराज महाराज के जयकारों से उनका स्वागत होता। लगभग दो एक घंटे में जब भरतपुर शहर डूबने वाला था और कलक्टर व प्रशासनिक अधिकारी मायूस होकर नगरवासियों को भगवान भरोसे छोड़ चुके थे। महाराजा ने अटलबंध का मोरा अपने हाथों से खोलते हुए शहर को बचाया।
महाराजा बृजेंद्र सिंह का शिक्षा दीक्षा विलायत में हुई थी। अंग्रेज से दिखने वाले महाराजा बृजेंद्रसिंह बृजभाषा एवं संस्कृति के पोषक थे। वे हमेशा बृजभाषा में वार्तालाप करते थे। एक दिन शाम को महाराज भ्रमण करते हुए सदर गेट तक आ गए। सेना कोईबड़ा अधिकारी उनसे मिलने दिल्ली से आया था। मैं भी सदर गेट पर था, चौकीदार बलवीर ने महाराजा को उनका विजिटिंग कार्ड देते हुए कहा कि हुजूर वे आपसे एकांत में मिलना चाहते हैं। उन्होंने उनको तत्काल बुलाया। उस अधिकारी ने उनका अपना परिचय अंग्रेजी में दिया। कहा कि आपने मुझे बम्बई में मिलने के लिए भरतपुर आमंत्रित किया था। बृजेंद्र सिंह ने कहा छोरा याये इ बतादे…मैं अंग्रेजी नाय जानूं…मोते हिंदी में बात करे। वह अफसर झेंप कर उनके चरणों में गिर गया। भारत-चीन युद्ध के समय उन्होंने देश के सुरक्षा कोष में सर्वाधिक स्वर्ण देकर कीर्तिमान स्थापित किया था। अपनी रियासत को भारत गणराज्य में 27 फरवरी 1948 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करते समय उनके खजाने में 80 लाख रुपए थे जो उन्होंने स्वतंत्र भारत के खजाने को सहर्ष सौंप दिए। देश के बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि जिस चार घोड़ों वाली चांदी की बग्घी में बृजेन्द्र सिंह दशहरा के अवसर पर निकलते थे वह उन्होंने देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भेंट में दे दी। इसमें बैठकर गणतंत्र दिवस पर पहले राष्ट्रपति निकलते थे। यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उनके त्याग, देशभक्ति एवं निर्लिप्तता को लक्षित करते हैं। इतिहास के प्रसिद्ध लेखक ठाकुर देशराज ने मुझे बताया था कि जब तत्कालीन गृहमंत्री और लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने लगभग देश के सभी राजा महाराजाओं से उनकी रियासतों को स्वतंत्र भारत में विलय करने के विलय पत्र पर हस्ताक्षर करा लिए तब उन्होंने भरतपुर के महाराजा को भी धौंसिया अंदाज में हस्ताक्षर करने पर विवश किया। बृजेन्द्र सिंह ने बड़े स्वाभिमानी अंदाज में पटेल से कहा- हम स्वतंत्र भारत में अपनी रियासत का विलीनीकरण अवश्य करेंगे, लेकिन अपनी जनता से, अपनी सरदारी से बात करके.. और वह भरतपुर चले आएं। महाराजा ने मोती महल आकर सभी सरदारी को बुलाया और परामर्श किया। यह उनकी प्रजातांत्रिक सोच का ऐसा उदाहरण है जो राजतंत्र से कहीं भी मेल नहीं खाता। इसी दौरान भरतपुर के किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की बात को लेकर भरतपुर में जन आक्रोश ने वस्तुत: एक विद्रोह का सा रूप ले लिया था। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री पटेल ने इस स्थिति का मौके पर जायजा लेने के लिए अपने विशेष प्रतिनिधि के रूप में नरहरि विष्णु गाडगिल को भरतपुर भेजा, ताकि वे भरतपुर नरेश को भारतीय संघ में अपनी रियासत को मिलीाने के लिए सहमत कर सके।
भरतपुर प्रवास के दौरान एक दिन महाराजा बृजेन्द्र सिंह ने गाडगिल को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया। भोजन से पूर्व की बातचीत के दौरान सहज जिज्ञासावश गाडगिल ने भरतपुर के इतिहास और लोहागढ़ दुर्ग की अजयेता के संबंध में महाराजा से पूछ लिया- ‘योर हइनेजÓ मे आई आस्क व्हेन डिड भरतपुर एक्चुएली फैल (अर्थात महाराजा साहब, मैं एक सवाल पूछ सकता हूं कि भरतपुर वास्तव में कब परास्त हुआ था) इस पर महाराजा ने अपने मुंह से दबे सिगार की राख को झाड़ते हुए जवाब दिया- इन नाइंटीन फोरटी सेवन (अर्थात सन् 1947 में) यह उत्तर सुनते ही गाड़गिल एक बारगी स्तंभित से होकर रह गए और उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि भरतपुर को न तो मुगल साम्राज्य की विपुल शक्ति ही अपने अधीन रख सकी थी और न ही ब्रिटिश साम्राज्य इसे नवा सका था। जाट राज्य का पचरंगी ध्वज सतत फहराने का श्रेय देश में सिर्फ भरतपुर के लोहागढ़ दुर्ग को ही है। यह सौभाग्य अन्य किसी दुर्ग को प्राप्त नहीं हुआ। यही कारण है कि भारत के किसी भी अन्य भूतपूर्व देशी रियासत का कोई शासक इतने बेवाक तरीके से अपनी स्वाधीनता के बारे में गर्वोपित नहीं कर सका था। शौर्य, पराक्रम, बलिदान तथा स्वाभिमान से जीने की यह परम्परा भरतपुर संस्थापक महाराजा सूरजमल और खेमकरण सोगरिया से शुरू होकर इस राज्य के अंतिम शासक नरेश बृजेन्द्र सिंह तक चली। राष्ट्रीय ध्वज के साथ-साथ राज्य का परम्परागत ध्वज भी लोहागढ़ दुर्ग पर फहराता रहेगा कि जब तक केन्द्र सरकार ने घोषणा नहीं की तब तक लोहागढ़ के रणबांकुरें किले के दरवाजों से हटे नहीं। वे कुशल तैराक, इंजीनियर, सैनिक, आखेट प्रेमी, कला प्रेमी, स्क्रेकश विलियर्ड टेनिस खिलाड़ी थे। उन्होंने भरतपुर के इतिहास पर अंगे्रजी भाषा में एक पुस्तक भी लिखी जिसके चलते उन्होंने एक सम्पन्न लाइब्रेरी भी खड़ी कर दी। संभव है जो आज भी मोती महल में मौजूद है। उन्होंने अपने शासनकाल में छूआछूत प्रथा के उन्मूलन के लिए न केवल हरिजनों को गंगा मंदिर में प्रवेश दिलाया बल्कि मंदिर में ही उनके साथ सामूहिक भोज का आयोजन किया जो समानता की सबसे बड़ी मिशाल है। उनके पिता महाराजा कृष्ण सिंह ने स्वयं स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान सैनानियों को अपने यहां शरण देने का सिलसिला कायम रखा। हर संभव आर्थिक मदद भी देते रहे। भरतपुर रियासत देश के सभी रजबाडों में पहली रियासत थी जहां आजादी को हर स्तर पर खुलकर समर्थन दिया गया था। राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक होने का जीवंत प्रमाण हिंदी साहित्य समिति के रूप में आज भी देखा जा सकता है, जो उत्तर भारत की सम्पन्न एवं प्रसिद्ध साहित्य भंडार की अमूल्य धरोहर है। जिसका उद्घाटन गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने किया था। महाराजा सवाई बृजेन्द्र सिंह का निधन आठजुलाई1995 को हुआ।