सांसद ने आदिवासी समाज के ऐतिहासिक योगदान और उनके अधिकारों को लेकर वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों की नीतियों पर गंभीर सवाल उठाए। उन्होंने आदिवासियों की परंपरागत व्यवस्थाओं और उनके संवैधानिक संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हुए सरकार को चेताया कि आदिवासियों को लोकतंत्र सिखाने की नहीं, आदिवासियों से लोकतंत्र सीखने की जरूरत है।
आजादी में आदिवासियों का ज्यादा योगदान
इस दौरान सांसद रोत ने लोकसभा में आदिवासी समाज की ऐतिहासिक विरासत और उनके बलिदानों का उल्लेख करते हुए कहा कि आदिवासी समाज का जल, जंगल और जमीन से गहरा जुड़ाव है। यही उनके जीवन का आधार है और यही उनके पूर्वजों की विरासत है। बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा जैसे नेताओं ने भी आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी। देश की आजादी में सबसे ज्यादा बलिदान आदिवासी समाज ने दिया है, लेकिन उनके योगदान को नजरअंदाज किया जा रहा है। उन्होंने आगे कहा कि संविधान निर्माण के दौरान आदिवासी समाज की परंपरागत गंवई व्यवस्था, गमती पटल और मुखिया व्यवस्था को अपनाया गया था। लेकिन आज लोकतंत्र में बढ़ती तानाशाही आम आदमी और विशेषकर आदिवासी समाज के लिए संकट खड़ा कर सकती है।
राजस्थान सरकार पर गंभीर आरोप
उन्होंने भजनलाल सरकार की ताजा नीतियों पर निशाना साधते हुए कहा कि
राजस्थान सरकार ने गैर-आदिवासियों को एसटी एस्टेट की जमीन खरीदने की अनुमति देकर आदिवासी समाज के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। यह फैसला आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के अधिकार को खत्म करने की दिशा में एक खतरनाक कदम है।
सांसद ने सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों का हवाला दिया, जिनमें 1957 का वेदांता जजमेंट और 2013 का रामा रेड्डी बनाम राज्य शामिल हैं। उन्होंने कहा कि इन फैसलों में आदिवासी जमीन के संरक्षण के स्पष्ट निर्देश दिए गए थे, लेकिन आज तक इन्हें लागू नहीं किया गया।
आदिवासी समाज की अपनी पहचान- सांसद
सांसद राजकुमार रोत ने अपने भाषण के अंत में कहा कि आदिवासी समाज की अपनी पहचान और अधिकार हैं। उनकी जमीन, जल और जंगल की सुरक्षा करना न केवल सरकार की जिम्मेदारी है, बल्कि यह आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का सम्मान भी है।