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‘जीवन में राम’ भाग 6: वचन पूरा करने की दृढ़ता है श्रीराम के जीवन का असाधारण गुण

प्रतिज्ञा पूरी करने की दृढ़ता रखने वाले ही हल कर पाते हैं जीवन की कठिनाइयां। पढ़िए, सिद्धपीठ श्रीहनुमन्निवास के आचार्य मिथिलेश नन्दिनी शरण की आलेश श्रृंखला जीवन में राम का छठा भाग..

अयोध्याJan 11, 2024 / 07:50 pm

Janardan Pandey

जीवन में राम

मा नव जीवन सतत संघर्ष की गाथा है। एक ऐसा संघर्ष जो मानवीय गुणों के संरक्षण और संवर्धन पर केन्द्रित है। इस संघर्ष की कठिनाइयां बस उनसे ही हल हो पाती हैं जो अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने की दृढ़ता रखते हैं। कहा गया है कि – ‘अंगणवेदी वसुधा कुल्या जलधि: स्थलीव पातालाम्। वल्मीकश्च सुमेरु: कृतप्रतिज्ञस्य वीरस्य।’ अर्थात् कृतप्रतिज्ञ वीर के लिए विस्तृत वसुधा आंगन की वेदी के समान, समुद्र छोटी धारा, पाताल की गहराई समतल और सुमेरु की ऊंचाई दीमक की बांबी के समान सुगम हो जाती है।

भारत के इतिहास में इस दृढ़प्रतिज्ञता के अद्वितीय उदाहरण भगवान् श्रीराम हैं। अपने वचन को पूरा करने की दृढ़ता, अपने स्वरूप को अपनी प्रतिज्ञाओं के अनुसार निरूपित करने का व्रत श्रीराम के जीवन का असाधारण गुण है। श्रीराम की वह प्रतिज्ञा वस्तुत: है क्या, जब इस पर विचार करते हैं तो उनका धर्मविग्रह होना सामने आता है। श्री जानकी जी को अपनी प्रतिज्ञा बताते हुए प्रभु कहते हैं कि – सीते! धर्म की रक्षा के लिए मैं लक्ष्मण को, तुमको और यहां तक कि अपने प्राणों को भी त्याग सकता हूं। पर, रक्षणीयों की रक्षा का व्रत कदापि नहीं छोड़ सकता।
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यही बात अन्यत्र भी श्रीराम की प्रतिज्ञा को लक्ष्य करके दुहराई गई है – ‘स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि। आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा।’ अर्थात् स्नेह, दया, सुख और यहां तक कि जानकी को भी धर्मरक्षा के लिए त्यागते हुए मुझे पीड़ा नहीं है। यही वह आत्मवत्ता है जो श्रीराम की दृढ़प्रतिज्ञता का मूल है। इसी दृढ़प्रतिज्ञता के गुण के माध्यम से श्रीराम ने पीढ़ियों से इस देश को अपने चरित्र में स्थिरता का संस्कार दिया है।
जिन सोलह बिन्दुओं के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने मानवता की जिज्ञासा की और संसार में आदर्श मनुष्यता को संभव बनाने का अनुष्ठान किया, उनमें प्रभु श्रीराम का धर्मविग्रह होना, उनका पराक्रमी, कृतज्ञ, सत्यनिष्ठ और दृढ़प्रतिज्ञ होना मनुष्य को प्रेरणा देता है। श्रीराम अमोघवीर्य हैं, उनका पराक्रम कभी निष्फल नहीं होता। जगत् मात्र को अपने अस्तित्व से उपकृत करने वाले श्रीराम अपने प्रति किए गए थोड़े भी उपकार को अत्यधिक मानते हैं। धर्मविग्रह कहलाने वाले श्रीराम का स्वरूपवाचक गुण सत्य है।
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