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यही बात अन्यत्र भी श्रीराम की प्रतिज्ञा को लक्ष्य करके दुहराई गई है – ‘स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि। आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा।’ अर्थात् स्नेह, दया, सुख और यहां तक कि जानकी को भी धर्मरक्षा के लिए त्यागते हुए मुझे पीड़ा नहीं है। यही वह आत्मवत्ता है जो श्रीराम की दृढ़प्रतिज्ञता का मूल है। इसी दृढ़प्रतिज्ञता के गुण के माध्यम से श्रीराम ने पीढ़ियों से इस देश को अपने चरित्र में स्थिरता का संस्कार दिया है। जिन सोलह बिन्दुओं के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने मानवता की जिज्ञासा की और संसार में आदर्श मनुष्यता को संभव बनाने का अनुष्ठान किया, उनमें प्रभु श्रीराम का धर्मविग्रह होना, उनका पराक्रमी, कृतज्ञ, सत्यनिष्ठ और दृढ़प्रतिज्ञ होना मनुष्य को प्रेरणा देता है। श्रीराम अमोघवीर्य हैं, उनका पराक्रम कभी निष्फल नहीं होता। जगत् मात्र को अपने अस्तित्व से उपकृत करने वाले श्रीराम अपने प्रति किए गए थोड़े भी उपकार को अत्यधिक मानते हैं। धर्मविग्रह कहलाने वाले श्रीराम का स्वरूपवाचक गुण सत्य है।