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धर्म/ज्योतिष

आँसू अगर सच्चे हैं तो भीतर आनंद ही आनंद है

अगर आँसू सच्चे हैं तो उनका संबंध उत्सव और आनंद से है , उनका संबंध जाते हुए दुःख से है। आँसूओं का अर्थ ये नहीं है कि तुम दुखी हो , आँसुओं का ये अर्थ भी हो सकता है कि तुम आनंदित हो। मुक्त अनुभव कर रहे हो , भीतर की जकड़ को छोड़ने के लिए। जैसे किसी ने कलेजा भींच रखा हो , और फिर ज़रा तुम तनाव मुक्त हो जाओ , ज़रा तुम आश्वस्त और स्वतंत्र अनुभव करो।

Dec 21, 2023 / 10:25 am

Manoj Kumar

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If tears are true, then joy is hidden inside

अगर आँसू सच्चे हैं तो उनका संबंध उत्सव और आनंद से है , उनका संबंध जाते हुए दुःख से है। आँसूओं का अर्थ ये नहीं है कि तुम दुखी हो , आँसुओं का ये अर्थ भी हो सकता है कि तुम आनंदित हो। मुक्त अनुभव कर रहे हो , भीतर की जकड़ को छोड़ने के लिए। जैसे किसी ने कलेजा भींच रखा हो , और फिर ज़रा तुम तनाव मुक्त हो जाओ , ज़रा तुम आश्वस्त और स्वतंत्र अनुभव करो। और जिस चीज़ ने भींच रखा है , उसको तुम छोड़ दो , या वो तुम्हें छोड़ दे। ऐसा है आँसुओं का निकलना। तनाव में शरीर भी कैसा अकड़ जाता है ? पाँव का अंगूठा यूँ मुड़ जायेगा , मुट्ठियाँ भिंच जाएँगी। और जब तनाव जाता है , एक सहज सुरक्षा की आश्वस्ति उठती है , तो वो सारी जकड़ खुल जाती है , ज़रा विश्राम मिल जाता है।
अस्तित्वगत रूप से खूबसूरत बात है आँसुओं का बहना। तुम्हारी मनुष्यता का प्रतीक है , पशु नहीं रोते। लेकिन सांस्कृतिक रूप से रोना एक वर्जना है , अस्तित्व नहीं कहता कि मत रोओ। समाज कहता है , संस्कृति कहती है। कि मत रोओ। और फिर चूंकि वो कहती है मत रोओ , तो रोने के विपरीत जो उसको लगता है उसपर महत्व रखती है। समाज कहता है कि हर समय , तुम मुस्कुराते नज़र आओ। और ये बात भारतीय भी नहीं है , तुम राम को , कृष्ण को मूर्तियों में भी मुस्कुराता नहीं पाओगे। ये बात बड़ी पाश्चात्य है। इन्होंने मुस्कान चिपका रखी होती है। क्योंकि ये डरे हैं , आतंकित हैं , इन्हें रोने से बहुत डर लगता है। और वह रो भीतर रहे हैं। उस रूदन को , उस क्रंदन को , छुपाने के लिए वह मुस्कुराहट का चोला ओढ़ते हैं।

उत्सव का मतलब ही होता है कि भीतर का ग़ुबार हट जाए, साफ़ हो जाए। शरीर की मैल नहाते वक़्त ही तो पता चलती है । जब नहाने जाते हैं तभी पता चलता है कुछ अच्छा है। उत्सव अपने लिए खाली जगह बनाना चाहता है। बहुत व्यापक होता है वो, साफ़ होता है। साफ़ और व्यापक, जैसे आसमान। बड़ा और साफ़। तो वो अपने लिए जगह बनाना चाहता है। उसे किसी भी तरह का अतिक्रमण, पसंद नहीं होता। और भीतर खाली स्थान को पुरानी यादें, भावनायें, वो सब कुछ जो अभी पूरा नहीं हुआ है और पूरा होना चाहता है। भीतर बहुत कुछ होता है जो अधूरा होता है। जैसे उसमें अभी कुछ किया जाना बाकी हो, जैसे कि उसका चक्र अभी अधूरा सा हो। वही सब भीतर ऐसे पकड़ के बैठा रहता है।
फिर यकायक, संयोगवश, या अनुग्रहवश, जीवन में उत्सव के पल आ जाते हैं। अब उत्सव आ गया है जैसे घर में दावत दी हो, उत्सव हो, और नाचते गाते हँसते खेलते कूदते, मेहमान आ गए हों। और भीतर क्या पड़ा हुआ है? पुराना कचरा। और ये मेहमान अब किस मन में है? किस रौ में है? कि हमें तो मस्ती करनी है, और साफ़ मस्ती। बेहोशी वाली नहीं। अब ये आ ही गए कि यहीं हमें तो अब दावत करनी है, और यहाँ कचरा पड़ा है। तो तुरंत उस कचरे को निकाल बाहर करेंगे। भीतर के अंधेरे से आज़ादी मिलती है उत्सव के क्षणों में। इसीलिए आदमी दो मौकों पर अश्रुपूरित हो जाता है। दोनों ही मौकों पर आँखें डबडबा जाती हैं।
तुम्हारे जीवन में दुःख आएगा , तुम रो पड़ोगे। तुम्हारे जीवन से दुःख जाएगा , तो भी तुम रो पड़ोगे। सामान्य भाषा में इस दूसरे रोने को हम कह देते हैं ? ख़ुशी के आँसू। वो वास्तव में ख़ुशी के आँसू नहीं होते। वो होते दुःख के ही हैं। पर वो जाते हुए दुःख के आँसू होते हैं। वो दुःख से मुक्ति के आँसू होते हैं। गाड़ी आती है तो भी दिखती है , और गाड़ी वापस लौटती है तो भी दिखती है।
रोना इसीलिए , जानने वालों ने बड़े स्वास्थ्य की बात कही है। वो कहते हैं कि रोना भली बात है , खूब रोया करो , रोने से आँखें साफ़ होती हैं , और मन भी। अच्छी बात है रोना। छोटी छोटी बात पर रो लिया करो। और रोने का पीड़ा से कोई संबंध हो ये ज़रूरी नहीं। कोई कहानी सुनी आँखें छलछला गयी , ठीक है , फिल्म देख रहे हो , फिल्म देखते देखते चार बूंदे लुढ़क गयीं , कोई बुराई थोड़े ही है। ये कमज़ोरी का लक्षण नहीं है। और न ही ये किसी मानसिक बीमारी का लक्षण है। यूँ ही बैठे बैठे भी अगर आँखें गीली हो जाएँ तो इसमें कोई हानि नहीं है , ये स्वास्थ्य की बात है।
हँसी से ज़्यादा गहराई होती है, आँसुओं में। लेकिन मालूम है, हम अकसर रोते वक़्त सुन्दर नहीं लगते, जबकि आँसू बहुत सुन्दर होते हैं, आँसुओं में तो कितनी सुंदरता है, आँसुओं पर देखो कितनी कवितायें लिखी गयी हैं। कोई कहता है आँखों से मोती झरे, कोई कहता है ओस की बूँदें हैं। लेकिन फिर भी हम जब रोते हैं, हम सुन्दर नहीं लगते, आमतौर पर ! क्योंकि हम आँसुओं के विरोध में खड़े हो जाते हैं। हम अपने आप को रोने देते नहीं। तो हमारे चेहरे पर गृहयुद्ध शुरू हो जाता है। आँसू निकलना चाहते हैं और हम आँसुओं को ले कर के शर्मसार रहते हैं। कि मैं रो क्यों दिया ! और उन्हें हम बाधित करने की, अवरुद्ध करने की कोशिश में लग जाते हैं; अब चेहरा कैसा हो जाता है? कि आँसू तो निकल रहे हैं, पर तुम कोशिश कर रहे हो कि ना निकलें। नहीं मैं थोड़े ही रो रहा हूँ ! मस्त हो के रोओ, चेहरा भी फिर आँसुओं जैसा ही सुन्दर दिखेगा। हमने मन में ये गलत समीकरण बैठा लिया है कि आँसू का संबंध दुःख से है,
अगर आँसू सच्चे हैं तो उनका संबंध उत्सव और आनंद से है , उनका संबंध जाते हुए दुःख से है। आँसूओं का अर्थ ये नहीं है कि तुम दुखी हो , आँसुओं का ये अर्थ भी हो सकता है कि तुम आनंदित हो। मुक्त अनुभव कर रहे हो , भीतर की जकड़ को छोड़ने के लिए। जैसे किसी ने कलेजा भींच रखा हो , और फिर ज़रा तुम तनाव मुक्त हो जाओ , ज़रा तुम आश्वस्त और स्वतंत्र अनुभव करो। और जिस चीज़ ने भींच रखा है , उसको तुम छोड़ दो , या वो तुम्हें छोड़ दे। ऐसा है आँसुओं का निकलना। तनाव में शरीर भी कैसा अकड़ जाता है ? पाँव का अंगूठा यूँ मुड़ जायेगा , मुट्ठियाँ भिंच जाएँगी। और जब तनाव जाता है , एक सहज सुरक्षा की आश्वस्ति उठती है , तो वो सारी जकड़ खुल जाती है , ज़रा विश्राम मिल जाता है।
अस्तित्वगत रूप से खूबसूरत बात है आँसुओं का बहना। तुम्हारी मनुष्यता का प्रतीक है , पशु नहीं रोते। लेकिन सांस्कृतिक रूप से रोना एक वर्जना है , अस्तित्व नहीं कहता कि मत रोओ। समाज कहता है , संस्कृति कहती है। कि मत रोओ। और फिर चूंकि वो कहती है मत रोओ , तो रोने के विपरीत जो उसको लगता है उसपर महत्व रखती है। समाज कहता है कि हर समय , तुम मुस्कुराते नज़र आओ। और ये बात भारतीय भी नहीं है , तुम राम को , कृष्ण को मूर्तियों में भी मुस्कुराता नहीं पाओगे। ये बात बड़ी पाश्चात्य है। इन्होंने मुस्कान चिपका रखी होती है। क्योंकि ये डरे हैं , आतंकित हैं , इन्हें रोने से बहुत डर लगता है। और वह रो भीतर रहे हैं। उस रूदन को , उस क्रंदन को , छुपाने के लिए वह मुस्कुराहट का चोला ओढ़ते हैं।
जो आदमी जितनी मुस्कुराहट पहने घूम रहा हो, जान लेना कि भीतर उसके घोर व्यथा है। अगर आप सहज हो, तो ना आपको उत्तेजना में हँसने की ज़रुरत है, ना ही उत्तेजना में रोने की ज़रुरत है। फिर आपका हास्य भी, सहज, सुमधुर, सरल, सूक्ष्म होगाा, और आपके आँसू भी उतने ही सहज होंगे। कभी हँस दिए, कभी रो दिए। कौन सी बड़ी बात है? आप आवश्यक नहीं समझोगे, कोई एक भाव अपने चेहरे पर ढोना। आप ये नहीं कहोगे कि मेरी जितनी भी तसवीरें आयें, वो सब? हँसती हुई आयें। हँसती हुई आ गयी तो ठीक, हँसती हुई नहीं आई, तो भी ठीक। और रोती हुई आ गयी तो भी बराबर ही ठीक।
हम अपने ही आँसू देख कर के घबरा जाते हैं, और हम दूसरों के आँसू देख कर के भी घबरा जाते हैं। कोई रो रहा होगा तो या तो उसे कोशिश करेंगे चुप कराने की ! कोई हँस रहा हो तो उसे चुप कराते हो? कोई रोता हो, तो लग जाएँगे, कोई उसको रुमाल दे रहा है, कोई उसको ढांढस बंधा रहा है, कोई छाती से लगा रहा है, कोई ज़बरदस्ती उसकी पीठ ठोक रहा है, कोई पानी ले के खड़ा हो गया है। उसको लग रहा है, क्या आपदा आ गयी है, क्या हो गया? किसी ने एक सौ एक डायल कर दिया। एम्बुलेंस खड़ी हो गयी है। फायर ब्रिगेड, पुलिस, एम्बुलेंस, सब बुला लो। कोई रो रहा है।
नतीजा ये है कि बहुत लोग, बहुत शुष्क, बहुत पाषाण, बहुत रेतीले हो गए हैं। उनसे रोया ही नहीं जाता। और उनको रोने की बहुत सख्त ज़रुरत है। देखे हैं ना ऐसे लोग? ये तथ्य तो हटा दो कि वो रोएँगे, ये कल्पना करना भी मुश्किल है कि वो रोते हुए कैसे लगेंगे? उनसे रोया जाएगा ही नहीं। वो मुर्दा हो गए, वो रेत और पत्थर हो गए। रेत भी रात में ज़रा नम हो जाती है। जब ओस पड़ती है। वो कभी भी नम नहीं होते। ऐसे लोग मर गए। तुम यदि रो नहीं सकते, तो तुम जीवित भी नहीं हो। तुम्हारी आँखें अगर कभी भीगती नहीं तो अब आँखें नहीं हैं ये। “रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून”। उन्होंने, वो बात नहीं कही थी पर फिर भी उनकी बात गौर तलब है। “पानी गए ना उबरे, मोती मानस चून”। जीवन में पानी का होना बहुत ज़रूरी है।
कबीर कहते हैं, आठ पहर भीजा रहे, प्रेम कहावे सोय। ज़रा नमी, ज़रा गीलापन, थोड़ी आद्रता। वो नहीं है तो कौन सी आध्यात्मिकता, कौन सा प्रेम, कौन सा सत्य? भीजा होना बहुत ज़रूरी है। ये भीजापन, ये भीगापन जीवन की निशानी है। जीवित शाख होती है, ज़रा गीली, ज़रा लचीली; और मुर्दा शाख अकड़ी हुई होती है।
जिन्होंने कभी भी जीवन में दुःख के आँसू रोये हों , उनके लिए बहुत आवश्यक है कि वो आनंद के आँसू रोना सीखें। क्योंकि अगर आप कभी दुःख के आँसू रोए हैं , तो दुःख आपके भीतर कहीं ना कहीं बैठ तो गया ही है। अब उसकी वापसी , रवानगी , करवानी ज़रूरी है। और जब रवानगी होगी तो आँसू पुनः आएँँगे। तो एक बार अगर आँसू आए , तो चक्र आधा चला। जब दूसरी बार आँसू आएँगे तो चक्र पूरा हो जाएगा। जो कभी भी रोये हों जीवन में एक बार , वो दोबारा रोएँ। पहली बार रोए थे कि दुःख आया , और अब रोए ? कि दुःख गया।
जो कभी न रोए हों , उन्हें कोई आवश्यकता नहीं रोने की। पर ऐसा तो कोई है नहीं। कभी न कभी तो रोए हो। विषम को सम करो।

अगर ऐसा नहीं है, तो बहुत शुभ है।
आँसूओं को इतनी सहजता से बहने दो, कि उनके झरने का एहसास भी न हो। ये कोई बड़ी बात है ही नहीं कि आज मैं रोया। तुम कहते हो क्या कि आज साँस ली, आज खाना खाया? तो वैसे ही, सहजता से, जैसे कोई झरना बहता हो पहाड़ में, आँसूओं को भी बहने दो, कोई बड़ी बात नहीं। अगर तुम आँसूओं को अपनी स्मृति में अंकित करोगे, तो याद रखना कि तुम उन्हें अवरुद्ध भी कर रहे हो।
हम साक्षी नहीं होते, साझी हो जाते हैं। साक्षी होने में, और साझे होने में अंतर जानते हैं, देखा भर नहीं कि आँसू बह गए, उसके साथ कुछ करने लग गए। छेड़खानी, उपद्रव। इसे रोक दो, इसे कोई नाम दे दो। इसकी कोई व्याख्या कर दो। कुछ भी।
कोई और आ के कहे, तुम रो रहे हो क्या? तुम कहो, हम रो रहे थे, हमें तो पता भी नहीं चला। तब ये निर्जरा के आँसू हैं। तब ये मुक्ति के आँसू हैं। तब ये सफाई के आँसू हैं।
हमारी स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती है ना, रोते वक़्त। खासतौर पर अगर सामाजिक परिपेक्ष है, लोग देख रहे हैं। हमें लगता है कि ज़रूर दोषी हैं, या पापी हैं, या कोई कमी है हम में। तभी तो हम रो रहे हैं, दूसरे नहीं रो रहे। दूसरे श्रेष्ठ होंगे।
आचार्य प्रशांत

वेदान्त मर्मज्ञ, लेखक, विचारक

पूर्व सिविल सेवा अधिकारी

संस्थापक, प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन

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