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विनिवेश के नाम पर निजीकरण

सबसे पहले तो हमेें विनिवेश और निजीकरण में फर्क करना चाहिए। किसी सरकारी संस्था का नियंत्रण जब सरकार

Sep 22, 2016 / 12:09 am

मुकेश शर्मा

Disinvestment

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सबसे पहले तो हमेें विनिवेश और निजीकरण में फर्क करना चाहिए। किसी सरकारी संस्था का नियंत्रण जब सरकार के पास होता है और उस कंपनी का कुछ शेयर सरकार बाजार में बेच देती है तो उसे विनिवेश कहते हैं। लेकिन जब मालिकाना हक के साथ-साथ नियंत्रण सार्वजनिक क्षेत्र इकाई (पीएसयू) का प्रबंधन पर नियंत्रण जब सरकार से निजी संस्था के पास चला जाता है तो उसे कहा जाता है निजीकरण। प्रबंधन पर नियंत्रण बदल जाता है तो उसे निजीकरण कहा जाता है।


 भारत में सार्वजनिक ईकाइयों में विनिवेश की बात काफी दशकों से चल रही है। इसे कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों की सरकारों ने किया। एच डी देवेगौड़ा सरकार, गुजराल सरकार, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विनिवेश प्रक्रिया शुरू की। लेकिन वाजपेयी सरकार में पहली बार यह देखने को मिला कि विनिवेश से निजीकरण की ओर बढ़ा गया। उस वक्त केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने इसकी कमान संभाली। इसके कुछ उदाहरण मैं देना चाहता हूं। पहला है, आईपीसीएल (इंडियन पैट्रोकेमिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड) यह रिलायंस (अंबानी बंधुओं) के हाथों में चली गई। हिंदुस्तान जिंक, वेदांता समूह के पास चला गया। आईटीडीसी, (इंडिया टूरिज़्म डवलपमेंट कॉरपोरेशन), इसके बहुत होटलों का मालिकाना हक बदल गया।


 होटल कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के सेंटॉर होटल, मुंबई का प्रबंधन बदल गया। यानी अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त यह विवादित मुद्दा बना। असल में सार्वजनिक इकाइयों पर मालिकाना हक सरकार का नहीं है बल्कि यह जनता की संपत्ति है। अगर कोई सार्वजनिक इकाई घाटे में चल रही है तो उसे बंद करना पड़ता है लेकिन उसकी जमीन बेचने से जो पैसा सरकार को मिलता है, उसका जनता को कोई लाभ नहीं होता। ऐसी कंपनियों की जमीन बहुत महंगी होती है पर सरकारें ऐसी संपत्तियों को कौड़ी के दाम में बेच देती है जो जनहित में कतई नहीं है। यही विवाद अरुण शौरी के वक्त उठा कि मुंबई स्थित जिस सेंटॉर होटल को एक कंपनी को बेचा गया, उस कंपनी ने दूसरी कंपनी को बेच दिया।


 इन्होंने बड़ा मुनाफा कमाया तो सवाल उठा कि अगर इस होटल की इतनी ज्यादा कीमत थी तो सरकार ने सस्ते में क्यों बेचा? आईपीसीएल का रिलायंस के साथ प्रतिस्पर्धा चल रही थी लेकिन सरकार ने उसे बेच डाला। उसका सारा हक अंबानी परिवार के पास चला गया। यानी निजी मोनोपॉली तैयार कर दी गई। आज अंबानी पैट्रोकेमिकल्स बाजार में इकलौता बड़ा खिलाड़ी है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए निजी कंपनियों की मोनोपॉली नुकसानदेह है।


भारतीय राजनीति में ऐसी बिरादरी है, जो निजीकरण का समर्थन करती है। वह कहती है कि सरकारी कंपनियां अधिक उत्पादक कार्य नहीं करती हैं। सरकारी बाबू भ्रष्टाचार करते हैं। उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाती है तो काम करना बंद कर देते हैं। देश का पैसा बर्बाद होता है। इसलिए निजी संस्था में बदलते ही अधिक उत्पादन होने लगता है। इसलिए वाजपेयी सरकार हो या नरेंद्र मोदी सरकार या कांग्रेस सरकार, इन्होंने दक्षिणपंथी अर्थनीति में विश्वास जताया है। इनका मानना है कि समाजवाद से देश आगे नहीं बढ़ पाया इसलिए इन्हें पूंजीवाद की ओर जाना चाहिए और यह मान लिया कि खुली आर्थिक नीति ही विकास करा सकती है।


निजी संस्था सरकारी संस्था से ज्यादा दक्षता से कार्य करती है, उत्पादकता बढ़ जाती है। लेकिन मेरा कहना है कि सरकारी स्तर पर निजीकरण का विवाद अरसे से चल रहा है। अमरीका में रोनाल्ड रीगन के दौर में तो ब्रिटेन में मारग्रेट थेचर के वक्त से लेकर आज तक यह विवाद थमा नहीं है। भारत में नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया के जमाने भी यह जारी है। पूंजीवादी बनाम समाजवादी विचारधारा का विवाद दुनियाभर में चलता रहा है। इसलिए यह आश्चर्य करने की बात नहीं है कि मोदी सरकार भी निजीकरण के रास्ते पर ही चलेगी।


 पर विवाद यहां खत्म नहीं होता है। बेचान से जो पैसा हासिल होगा, उसका सरकार क्या करेगी? वाजयेपी सरकार के वक्त एक फंड बनाया गया था, यह पैसा उसमें चला गया था। सरकार ने कहा था कि इसका इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए होगा। लेकिन पूरे पैसे का इस्तेमाल जनसेवा के लिए नहीं हुआ।


यही अब तक की सरकारों में भी हो रहा है। जब 51 फीसदी शेयर सरकार के हाथ से निकल जाता है तो साफ-साफ निजीकरण हो जाता है, यह विनिवेश नहीं कहा जा सकता। सरकार रोना रोती है कि उनके पास पैसा नहीं है इसलिए विनिवेश जरूरी है लेकिन मोदी सरकार जिस गति से बढऩा चाहती है, उसकी राह आसान नहीं है। खुद आरएसएस और भारतीय मजदूर संघ विरोध करेंगे। हालांकि पीएम नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस पर आमादा रहेंगे क्योंकि सारी सरकारें पैसे की कमी का हवाला देते हुए विनिवेश की आड़ में निजीकरण करती रही हैं। मौजूदा सरकार में तो पूंजीवादी विचारधार के तहत तेजी से निजीकरण की ओर कदम उठाए जा रहे हैं।
(पत्रिका से बातचीत पर आधारित)

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