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विजयी होने के लिये आल्हा ने इस मंदिर में बनवाया था सोने का हवन कुंड

लोग अपनी मनौती पूरी करने के लिये विख्यात मंदिरों व धार्मिक स्थलों पर जाते है। विधि विधान से हवन पूजा कर मनौती मानते है और मनोकामना पूरी होने पर वापस उस स्थल पर आकर मनौती के अनुसार चढ़ावा चढ़ाते है

कानपुरJul 26, 2016 / 11:11 am

Ruchi Sharma

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कानपुर देहात. लोग अपनी मनौती पूरी करने के लिये विख्यात मंदिरों व धार्मिक स्थलों पर जाते है। विधि विधान से हवन पूजा कर मनौती मानते है और मनोकामना पूरी होने पर वापस उस स्थल पर आकर मनौती के अनुसार चढ़ावा चढ़ाते है। ये धार्मिक प्रथा प्राचीन काल से अभी तक चली आ रही है। प्राचीनकाल में बडे-बडे योद्धा युद्ध में फतह हासिल करने के लिये मंदिरों की स्वयं स्थापना कर उनकी आराधना करते थे। या सुप्रसिद्ध मंदिरों में श्रद्धा भाव से प्रतिमाओं की स्थापना कराकर फतेह हासिल करते थे। 

ऐसा ही एक परहुल देवी का मंदिर है। जो मैथा ब्लाक के लम्हरा गांव में स्थापित है। यह मंदिर वहां से गुजरी रिंद नदी के किनारे स्थित है, जो कि आल्हा ऊदल काल से जुडा इतिहास याद दिलाता है। आल्हा ने युद्ध में जीत हासिल करने के लिये परहुल देवी के मंदिर में एक सोने का ज्योति कुंड बनवाया था। जिसमें ज्योति जलाकर मनोकामना मांगी थी। 

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इस मंदिर में नवरात्रि में दूर दराज से लोग मत्था टेकने आते है। मान्यता है कि इस मंदिर में आने वाले माता के भक्तों के सभी कष्ट दूर होते है। इस मंदिर में दर्शन के लिये लोग शिवली रूरा मार्ग पर गहलौं से आगे रिंद नदी पुल के पास मंदिर मार्ग है। कन्नौज व फर्रुखाबाद से आने वाले भक्त गहिरा चौराहे से गहलौं सम्पर्क मार्ग द्वारा मंदिर पहुंचते है। वहीं रूरा से जाने वाले श्रद्धालुओं को बस या टैम्पो का सहारा लेना पड़ता है।

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क्या है मंदिर का इतिहास

लम्हरा गांव के समीप से गुजरी रिंद नदी के निचले स्थल पर बने परहुल देवी मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। यह मंदिर आल्हा काली की याद दिलाता है। नवरात्रि के पर्व पर यहां श्रद्धालुओं का तांता लगता है। नवरात्रि की अष्टमी पर दूर दराज जनपदों व दूसरे राज्यों से लोग यहां मन्नते मांगने आते है। बताया जाता है कि वीर योद्धा आल्हा ने विजय कामना के लिये मंदिर मे सोने का ज्योति कुंड बनवाया था। जिसमें अखंड ज्योति जलाई थी। उस ज्योति की रोशनी जनपद कन्नौज के राजमहल तक जाती थी। जिससे कन्नौज की महारानी पदमा के निद्रा में खलल पड़ती थी।

जिसको बुझाने के लिये ऊदल ने अखंड ज्योति बुझाने के बाद उसको रिंद नदी में फेंक दिया था। आज भी इस मंदिर में रात्रि में दीपक की रोशनी होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलने पर नौमुखी देवी मूर्ति की पूजा व सफेद गुलाबी जंगली फूल चढे हुये मिलते है। यह मान्यता है कि अभी भी आल्हा यहां आकर ज्योति जलाकर रात्रि में पूजा करते है।

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आल्हा ने ज्योति कुंड क्यो बनवाया था

महोबा के राजा परमाल थे। जिनके राज्य मे दो सेनापति दक्षराज व वक्षराज थे। दक्षराज के दो पुत्र आल्हा व ऊदल थे। वहीं वक्षराज के दो पुत्र सुलखान व मलखान थे। उस समय मांडा के राजा जम्बे ने महोबा पर चढाई कर दी। जिसमे एक विशाल युद्ध हुआ। युद्ध मे दक्षराज मारे गये थे। उस समय दक्षराज की पत्नी के गर्भ मे ऊदल पल रहे थे। ऊदल का जन्म होने के बाद जब वह 11 वर्ष के हुये तो उन्होने मांडवा राज्य पर हमला बोल दिया। उस समय मांडवा का राजा जम्बे का पुत्र करिंगा था। उसी समय युद्ध मे विजय हासिल करने के लिये आल्हा ने इस परहुल देवी के मंदिर मे जाकर सोने का ज्योति कुंड बनवाया और अखंड ज्योति जलाई थी।

इस मंदिर में विराजमान नौमुखी परहुल देवी की मान्यता यूं है कि नवरात्रि की अष्टमी को लोग मनौतियां पूरी होने पर घंटे चढ़ाने के लिये आते है। मंदिर के पुजारी का कहना है, कि प्राचीनकाल से जुडे इसके इतिहास की वजह से अन्य प्रांतों के लोग यहां दर्शन के लिये आते है। रात्रि मे मंदिर में ज्योति की रोशनी देखने के लिये लोग यहां रात्रि विश्राम भी करते है।

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